अमरबेल के फूल

01-06-2022

अमरबेल के फूल

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 206, जून प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

मूल कहानी: ला पोटेंज़ा डेल्ला फ़ेल्स मैश्चियो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द मेल फ़र्न); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

प्रिय पाठक, इस अंक में जो लोक कथा आपके लिए लेकर आई हूँ, वह मनुष्य की अमरत्व पा लेने की अदम्य और आदिम प्यास को रेखांकित करती है। हालाँकि कहानी का देशकाल आधुनिक है परन्तु क्या सागर मंथन का उद्देश्य यह अमरत्व ही न था? क्या हरिण्यकशिपु की चाह भिन्न थी? 

एक बात और ध्यान देने की है कि यदि इस लोककथा का नायक कुछ और हिम्मत करके अपने लक्ष्य को पा लेता तो वर्तमान के युद्ध इतने विनाशकारी और घातक ना होने पाते। कृपया पढ़ें:


गुनिया गाँव का वह छबीला नौजवान पेशे से डाकू था, शातिर इतना कि देश का क़ानून आज तक उसे पकड़ नहीं पाया था। 

एक दिन की बात है, जब दिन भर के जश्न के बाद उसके गाँव के सारे लोग थकान और आनंद के बाद की गहरी नींद में बेसुध सो रहे थे, छबीला कंधे पर बंदूक लटकाए ऐसे मैदान से गुज़र रहा था, जहाँ एक वीरान, खंडहर, उजाड़, हवेली अपने गत ऐश्वर्य को याद करती, चुपचाप खड़ी थी। तभी पास की झाड़ियों से निकलकर एक बनैला सूअर हवेली की तरफ़ दौड़ा। छबीले ने निशाना साधा और गोली दाग दी, सूअर पलक झपकते ढेर हो गया। 

रास्ता सीधा उस हवेली की ओर जा रहा था। जब छबीला हवेली से कुछ ही दूर रह गया तो उसने हवेली की ओर से आती खिलखिलाहटें और गाने के स्वर सुने। उसके क़दम थम गए, सोचा—’इस सूअर के स्वादिष्ट मांस से तो हवेली में चलने वाला जश्न और भी रंगीन हो जाएगा, मेरा क्या मैं कल सुबह तड़के उठकर अपनी राह चल पड़ूँगा’। वह सूअर को घसीटते हुए हवेली में घुसा, बोला, “इस मस्त सभा के भोजन के लिए एक बनैला सूअर हाज़िर है!” 

उसकी आवाज़ सुनते ही उपस्थित जन समुदाय के सभी स्त्री-पुरुष ठठाकर हँस पड़े और एक दूसरे का हाथ थाम कर गोलाकार में नाचने-गाने लगे। उन सब से हाथ मिलाने के लिए जब छबीले ने हाथ बढ़ाया तो उसका ध्यान सबके चेहरे पर आँखों के ख़ाली कोटरों पर गया, वह सन्न रह गया। छबीला समझ गया कि यह जश्न जीवितों का नहीं बल्कि मृतात्माओं (भूतों, जिन्नों) का है। 

नाचते हुए सभी जिन्नों ने उसे घेरे के बीच में लेना चाहा। एक जिन्न स्त्री ने उसे हौले से छूकर कहा, “मेरे साथ आओगे तो मैं तुम्हें बताऊँगी कि अमरबेल के फूल कहाँ मिलते हैं।”

छबीला तो उसके साथ तुरंत चला ही जाता क्योंकि उसने सुना हुआ था कि अमरबेल के तीन फूल पा लेने के बाद इन्सान कभी बंदूक की गोली से नहीं मर सकता और उसकी इच्छा थी कि वह सभी मनुष्यों को गोली लगने की मृत्यु से बचा सके। तभी उनमें से एक प्रेत उसकी ओर तेज़ी से बढ़ा। छबीले ने उसे पहचान लिया, वह उसके दादाजी थे, “सावधान मेरे पोते!” दादा बोले, “अगर तुम इस घेरे के बीच में आ गए तो कभी निकल नहीं पाओगे! आज तुमने यदि इस घेरे से निकल जाने की जी तोड़ कोशिश नहीं की तो कल तुम मरे हुए मिलोगे। लेकिन जैसे जीते-जी मैंने अपने कुल की रक्षा की है, वैसे ही मैं आज भी तुम्हारी रक्षा करूँगा। तुम हमारे साथ आओ और नाचो-गाओ, लेकिन जब तुम्हें लगे कि तुम घेरे के बीच में पहुँच रहे हो, तो यह मंत्र बोलना: 

"नाचो-गाओ, ख़ुशी मनाओ
मेरा समय अभी ना आया
इसमें मुझको मत, उलझाओ"

यह सब सुन, समझकर छबीला फिर उस स्त्री के पास गया, जिसने उसे अमरबेल का पता बताने को कहा था। नाचने-गाने के बीच उसने छबीले को बताया, “जिसे भी अमरबेल के फूलों की चाह हो, वह फागुन मास की अमावस को उस जगह जाए जहाँ से नदी मुड़ जाती है, जहाँ कभी मुर्गे की बाँग भी सुनाई नहीं देती। वहीं आधी रात को अमरबेल पर तीन फूल खिलेंगे। निडर होकर फूल खिलने का इंतज़ार करो, चाहे जो भी मुसीबतें आएँ, उनका सामना डटकर करो, मन में तनिक भी डर न आने दो।”

“मैं ज़रूर उन्हें तोड़ लाऊँगा और फिर बंदूक की गोली से, मैं तो क्या, कोई भी इंसान कभी नहीं मरेगा!”

इस पर वह भूतनी बोली, “ऐसा तुम सोचते हो! देखो ज़रा, तुम उत्साह में भरकर धीरे-धीरे हमारे घेरे के बीच में आ गए हो। अब तुम वापस कभी नहीं जा सकते, हमारे ही साथ हमेशा रहोगे,” और नाचते-नाचते उसने छबीले का हाथ पकड़ लिया। अब छबीले को होश आया, दादाजी के बताए मंत्र को वह ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगा:

"नाचो-गाओ, ख़ुशी मनाओ
मेरा समय अभी ना आया
इसमें मुझको मत, उलझाओ"

यह मंत्र सुनते ही सारी प्रेत-आत्माएँ एक-एक कर चीखते-चिल्लाते एक ढेर बन कर गिर पड़ीं। 

छबीला डाकू बिजली की तेज़ी से बाहर निकला, अपने घोड़े पर सवार हो, ऐड़ लगाई और रफ़ू-चक्कर हो गया। कुछ प्रेत उसके पीछे गिरते-पड़ते झपटे भी परन्तु कोई उसे पकड़ नहीं पाया। 

और फिर फागुन की अमावस का दिन भी आ गया। छबीला नदी की ओर चल पड़ा। नदी के मोड़ तक आते-आते रात हो गई। अमावस्या की अँधियारी, आधी रात होते न होते भयानक तूफ़ान आगया। तेज अंधड़, घनघोर बारिश, और ओले भी पड़ने लगे। बिजली रह-रहकर ऐसे कौंधती थी मानो आग की लपटें निकल रही हों। बादलों की गड़गड़ाहट के साथ ऐसी ही बिजली की कौंध में उसने देखा, बरगद के पेड़ पर लिपटी एक लता में एक फूल खिल गया है! उसने लपक कर उसे तोड़ लिया। 

अभी उसने फूल तोड़ा ही था कि उसे हज़ारों टापों-खुरों की आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं। असंख्य सूअर, बारहसिंघे, गाय, बैल और दूसरे अनेक जंगली जानवर तूफ़ान से व्याकुल हो उसकी ओर दौड़ पड़े। ऐसा लगा मानो वे उसे अपने पैरों तले रौंद कर मार ही डालेंगे। परन्तु छबीला निडरता से अपने पैर ज़मीन पर जमाए, अमरलता के अगले फूल के खिलने का इंतज़ार करता रहा। तभी उसे लगा कि उसके पैरों पर कुछ गीला, चिपचिपा रेंग रहा है-एक अजगर उसके पैरों को निगलता हुआ, उसकी टाँगों को भी लीलता, धड़ से होता हुआ उसकी गर्दन तक पहुँच गया। गले पर उसकी लपेट इतनी मज़बूत हो गई कि छबीले का साँस लेना भी दुश्वार हो गया। अंत में अजगर ने उसकी आँखों में आँखें डाल कर उसे घूरा, घूरकर एक गहरी फुँफकार छोड़ी और अदृश्य हो गया। 

तभी छबीले ने देखा अमरबेल पर दूसरा फूल खिल गया है!! उसने इस फूल को भी तुरंत तोड़ लिया . . . छबीला आनंदित हो उठा, उसे लगा कि अब वह मानवता को बंदूक की गोली की मृत्यु से बचा लेगा। उस जैसे डाकू को भी कभी बंदूक की गोली से मारा न जा सकेगा। 

और वह अमरबेल के तीसरे फूल के खिलने की प्रतीक्षा करने लगा। 

. . . और अचानक सन्नाटे को चीरती, घोड़ों की टापों और बंदूकों की गोलियों की धाँय-धाँय सुनाई पड़ने लगी। कुछ देर तो छबीला डाकू चुपचाप सुनता रहा, पर तभी उसे दूर के पुल पर से होकर उसकी तरफ़ बंदूक ताने, सिपाहियों की एक क़तार दिखलाई पड़ गई। वह बड़बड़ाया, “कहीं ऐसा ना हो कि फूल खिलने से पहले ही सिपाही मुझे खोज लें, और अमरबेल का तीसरा फूल पाने से पहले मैं उनकी बंदूक की गोली से मारा जाऊँ!” वह डर गया और निशाना साध कर उसने सिपाहियों के दस्ते पर गोली दाग दी। सहसा उसी पल सिपाही घोड़े, पुल और बंदूकें सब ग़ायब हो गए और उसके साथ ही साथ ही बरगद पर चढ़ी अमरबेल और उसके खिले हुए वे दोनों फूल भी जो छबीले ने तोड़ लिए थे!! 

अमरबेल का तीसरा फूल न कभी खिल पाया न इन्सान को मिल पाया! 

. . . यह मनुष्य का दुर्भाग्य ही था कि छबीला डाकू और थोड़ी देर धैर्य न रख सका!! 

बंदूक की गोलियाँ आज तक लोगों के सीने चीर, उन्हें मौत की मीठी नींद सुलाती जा रही हैं। 

1 टिप्पणियाँ

  • 1 Jun, 2022 02:41 PM

    बहुत ही सुंदर , दिल दहला देने वाली मर्मस्पर्शी कहानी। आपका अनुवाद सराहनीय है । मूलभाव दिल में सीधा उतरता है।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा
कविता
यात्रा-संस्मरण
ललित निबन्ध
काम की बात
वृत्तांत
स्मृति लेख
सांस्कृतिक आलेख
लोक कथा
आप-बीती
लघुकथा
कविता-ताँका
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में