राजकुमार-नीलकंठ

01-07-2022

राजकुमार-नीलकंठ

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

मूल कहानी: इल प्रिंसिप कैनारिनो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द कैनरी प्रिंस); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोज़िनी पाण्डेय

 

प्रिय पाठक, इस कथा के मूल संग्रह कर्ता के अनुसार इस कथा की विशिष्टता इसकी लयात्मकता है, मेरे अनुवाद में वह कितना सुरक्षित रह पाई है, यह तो आप ही बता पाएँगे! तो लीजिए एक और इतालवी लोक कथा, पढ़िए और आनंद लीजिए:
 

एक बार की बात है, एक राजा था, उसकी एक बेटी थी। दुर्भाग्य से रानी की मृत्यु असमय ही हो गई। राजकुमारी की देखभाल में माँ के न रहने से कोई कमी न आ जाए, इसलिए राजा ने दूसरा विवाह कर लिया। अब जो नई रानी आई वह राजा के सामने तो राजकुमारी से सामान्य व्यवहार करती परन्तु मन ही मन राजकुमारी से द्वेष रखती थी। जब राजकुमारी बड़ी होने लगी तो रानी ने राजकुमारी के बारे में राजा के कान भरने शुरू कर दिए। राजा यूँ तो अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था, परन्तु पत्नी की ज़िद और पारिवारिक शान्ति के लिए वह राजकुमारी को किसी दूसरी जगह रखने को राज़ी हो गया, साथ ही उसने रानी से यह भी वादा करवा लिया कि राजकुमारी जहाँ भी रहे उसकी सुख-सुविधा का पूरा ख़्याल रखा जाए। यदि उसके साथ कोई दुर्व्यवहार हुआ तो फिर किसी की ख़ैर नहीं! 

रानी ने कहा, “आप चिंता ना करें महाराज, राजकुमारी को कोई कष्ट नहीं होगा।” 

फिर रानी ने जंगल के बीचों-बीच, बहुत समय से वीरान पड़े एक महल में राजकुमारी को रहने के लिए भेज दिया। वहाँ पर हर प्रकार की सुख-सुविधा के साथ दासियों का एक दल भी भेजा जिन्हें यह आदेश दिया गया कि राजकुमारी को किसी भी हाल में महल से बाहर न निकलने दिया जाए, यहाँ तक कि उसे खिड़कियों-झरोखों से भी बाहर झाँकने न दिया जाए। उन सेविकाओं के लिए राज महल की सेविकाओं के योग्य वेतन भी तय कर दिया गया। 

खाने-पीने, रहने-सोने के लिए राजकुमारी को सारी सुविधाएँ मिलती थीं, बस उस नज़र-बंद किशोरी को बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी। यहाँ दासियों को कोई विशेष काम-धंधा तो था नहीं, ऊपर से मोटा वेतन—वह सब आलसी होती चली गईं। वे केवल अपने आराम के बारे में सोचतीं, राजकुमारी पर बहुत कम ध्यान देतीं। राजा अक़्सर रानी से पूछते, “हमारी बेटी कैसी है? वह इन दिनों क्या करती रहती है?” राजा की दृष्टि में अच्छी बनी रहने के लिए वह कभी-कभार जंगल के महल में जाती। जैसे ही वह सवारी से बाहर पैर निकालती, सारी दासियाँ उसे घेर लेतीं और बतातीं कि राजकुमारी ख़ूब आनंद से है। चिंता की कोई बात नहीं। 

“तुम बहुत अच्छी लग रही हो”, “तुम ख़ुश तो हो ना!”, “और किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है तुम्हें?”, “लगता है तुम्हें जंगल की हवा रास आ रही है”, “ख़ुश रहो, ख़ूब ख़ुश रहो”—जैसी बातें करके वह राजकुमारी से विदा ले राजधानी लौट आती थी। राजा जी से आकर कह देती कि राजकुमारी सुख से है। “वह तो महल में रहकर इतनी ख़ुश कभी नहीं लगती थी, जितनी वहाँ पर है”–आदि आदि। 

इधर अपने कमरे में अकेले रहते, दासियों की बेपरवाही झेलते, बेचारी राजकुमारी अपना समय बस खिड़की से बाहर झाँकने में बिताती थी। 

दासियाँ बात करना तो दूर उसकी तरफ़ देखती तक न थीं। बेचारी राजकुमारी खिड़की की चौखट पर एक तकिया रख, उस पर अपनी कोहनियाँ टिकाए, हथेलियों के बीच अपना चेहरा जमाए बाहर जंगल में देखा करती थी। अगर वह चौखट पर तकिया न रख लेती तो कोहनियों पर तो घट्ठे (calluses) ही पड़ जाते! 

खिड़की से बाहर का जंगल दिखाई देता था। राजकुमारी सारा दिन जंगल की पगडंडियों, पेड़ों के तनों, सुंदर फूल, नीला आकाश, आकाश में उड़ते बादल देखती और पक्षियों की चहचहाहट सुनती रहती थी। 

और एक दिन!! 

एक जंगली सूअर का पीछा करते-करते उसी पगडंडी पर एक राजपुत्र आ निकला। जब वह उधर से गुज़रा तो लंबे समय से वीरान पड़े उस छोटे से महल की मुँडेरों पर कपड़े सूखते और रसोई की चिमनी से धुआँ निकलते देख कर हैरान रह गया। खिड़कियों के पर्दे भी खुले थे। जब उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई तो उसे ऊपर की मंज़िल की एक खिड़की में एक सुंदर कन्या नज़र आई। राजकुमार से आँखें चार होते ही वह थोड़ा सकपकाई। लेकिन जब उसने नीले कोट और शिकारियों वाला पजामा पहने, कंधे पर बंदूक लटकाए राजकुमार को अपनी ओर देख कर मुस्कुराते देखा तो वह भी हौले से मुस्कुरायी। पूरे एक घंटे तक दोनों एक दूसरे की आँखों में आँखें डाले एक दूसरे को निहारते, मुस्कुराते रहे। इतनी दूरी से केवल अखियाँ ही बतियाँ कर सकती थीं! 

अगले दिन फिर शिकार का बहाना करके अपने नीले, चमकीले कपड़ों में सजा राजकुमार वहीं पहुँच गया। दूसरे दिन वह वहाँ दो घंटे रुका। इन दो घंटों में उन्होंने नज़रों के बान चलाए, एक दूसरे को देख कर मुस्कुराए, सिर झुका कर एक दूसरे को सलाम भेजे और पाए। हाथ से बार-बार सहलाया अपना कलेजा, कभी-कभी थोड़ा-सा शर्माये-लजाये, विदाई के समय दोनों ने रुमाल भी हिलाये। 

तीसरे दिन राजकुमार फिर वहीं जा पहुँचा। आज वहाँ वह पूरे तीन घंटे तक रुका। आज दोनों प्रेमी एक क़दम और बढ़े, दोनों के बीच चुंबन उछाले ओर पकड़े गये। 

चौथे दिन जब राजकुमार और राजकुमारी प्रेम संकेतों का व्यापार करने लगे तो एक वृक्ष के पीछे से खिलखिलाहट की आवाज़ आई। एक बूढ़ी परी उन्हें देखने बाहर निकल आई, “हा ऽ हा ऽ हा ऽ।“

“तुम कौन हो? तुमने कौन सा ऐसा अजूबा देखा जो हँस रही हो?” राजकुमार चिढ़कर बोला। 

“अजूबा! क्या यह अजूबा नहीं कि दो बुद्धू प्रेमी इतनी दूर-दूर हैं?”

“तो देवी जी, तुम ही बताओ कि हम एक दूसरे के पास कैसे पहुँचें?” 

“मैं कई दिनों से तुम दोनों को देख रही हूँँ, कितने भोले और प्यारे हो तुम दोनों! ठहरो मैं तुम्हारी मदद करूँगी!” 

बूढ़ी परी ने महल का द्वार खटखटाया और दासी को धुँधले, पीले, पन्नों वाली एक बहुत पुरानी और मोटी-सी किताब देते हुए बोली, “यह राजकुमारी के लिए उपहार है, जिसको पढ़ कर वह अपना समय आनन्द से बिता सकती है।”

दासियाँ किताब राजकुमारी के पास ले गईं। राजकुमारी उसे खोल कर तुरंत ही पढ़ने लगी, लिखा था, “यह जादुई किताब है, पन्ने आगे पलटो—आदमी चिड़िया बन जाएगा, पन्ने पीछे पलटो—चिड़िया आदमी बन जाएगी।”

राजकुमारी दौड़कर खिड़की पर गई, किताब चौखट पर रखी और तेज़ी से पन्ने पलटते हुए नीचे राजकुमार पर नज़र जमाए रही, जो चमचमाती नीली पोशाक में पगडंडी पर खड़ा, उसी की ओर देख रहा था। राजकुमारी राजकुमार पर अपनी नज़रें गड़ाए तेज़ी से किताब के पन्ने पलटने लगी। सहसा राजकुमार के हाथ हिले, देखते ही देखते वे डैनों में बदल गए! नीली पोशाक पहने राजकुमार सुंदर नीलकंठ पक्षी बन आकाश में उड़ा और देखते ही देखते यह तकिए वाली खिड़की की चौखट पर आ पहुँचा। राजकुमारी अधीर हो उठी। उसने सुंदर नीलकंठ को हाथों में उठाया और हौले से चूम लिया। फिर वह लजा गई, यह सोच कर कि वह तो एक युवक था! लेकिन उसकी लज्जा तुरंत भाग भी गई और वह नीलकंठ को राजकुमार बनाने के लिए जादुई किताब को पीछे की तरफ़ पलटने लगी। पक्षी ने पंख फुलाए, डैने फड़फड़ाए और सुंदर नीली पोशाक में सजा युवक सामने खड़ा था। अपने घुटनों पर झुक कर उसने राजकुमारी से कह भी तो दिया, “मैं तुमसे प्रेम करता हूँ!” उन दोनों को अपना प्रेम प्रकट करते न करते साँझ हो गई। धीरे-धीरे राजकुमारी ने जादुई किताब के पन्ने आगे पलटने शुरू किये, युवती की आँखों में आँखें डाले युवक धीरे से फिर नीलकंठ पक्षी बन गया, खिड़की की चौखट पर बैठ पंख तोले, एक छलाँग लगाई, कुछ देर मुँडेर पर टिका रहा फिर खुले आकाश में दो-तीन चक्कर लगा, पेड़ की निचली डाली पर जा बैठा। पक्षी को वहाँ बैठा देख राजकुमारी ने पन्ने उल्टे पलटने शुरू कर दिए। धीरे-धीरे राजकुमार युवक बना और पेड़ से नीचे कूद गया। घोड़ा खोला, कुत्तों के लिए सीटी बजायी, एक चुंबन खिड़की की तरफ़ उछाल कर–यह जा . . . वह जा . . . 

अब हर दिन किताब के पन्ने आगे पलटे जाते, राजकुमार चिड़िया बनता, महल की ऊँची बुर्ज़ पर टिकता, खिड़की पर आ बैठता। किताब पीछे की तरफ़ पलटी जाती, नीलकंठ राजकुमार बनता, प्रेमालाप होता। शाम होते ही किताब सीधी और फिर उलटी पलटी जाती। वह बाहर निकल, घोड़े पर सवार हो, अपने महल चला जाता। दिन प्रतिदिन यह युगल, प्रेम के पारावार में डुबकियाँ लगाता, गहरे और गहरे उतरता जा रहा था। 
 फिर एक दिन विमाता रानी, बेटी से मिलने आई। उसने कमरे में एक चक्कर लगाया और सौतेली बेटी से पूछा, “तुम ठीक हो न? मुझे तुम थोड़ी दुबली लग रही हो! चिंता की तो कोई बात नहीं है न? यहाँ तुम ख़ूब ख़ुश रहती हो न?” 

बातें करते-करते वह कमरे की हर चीज़ की जाँच पड़ताल भी करती जाती थी। जब उसने खिड़की से बाहर झाँका तो पगडंडी पर नीली पोशाक में उसे राजकुमार नज़र आया। उसने सोचा, “अगर यह लड़की सोचती है कि इस लड़के से वह नैन-मटक्का कर पाएगी, तो मैं ऐसा हरगिज न होने दूँगी!” 

माँ ने बेटी को शरबत लाने भेज दिया। अपने बालों के जूड़े से दो-चार काँटे निकाले और तकिए में इस तरह खोंस दिए कि उनका नुकीला सिरा ऊपर की ओर रहे, “अब यह लड़की खिड़की से झाँकने का मज़ा चखेगी!” 

जब बेटी शरबत लेकर लौटी तो सौतेली माँ बोली, “मेरी तो प्यास ही ख़त्म हो गई है। तुम्हीं यह शरबत पी लो। मुझे जल्दी से तुम्हारे पिता के पास वापस जाना चाहिए। तुम्हें किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है ना? ठीक है, मैं चलती हूँँ, ख़ुश रहो!” और रानी चली गई। 

जैसे ही रानी की गाड़ी नज़रों से ओझल हुई राजकुमारी ने किताब के पन्ने पलटने शुरू किए। राजकुमार तो प्रतीक्षा में था ही, नीलकंठ बनकर उड़ा और तीर की तरह आकर तकिए पर गिरा। गिरते ही उसके मुँह से दर्द भरी तेज़ आवाज़ निकली। सुंदर नीले पंख ख़ून से सन गये। रानी के बालों के काँटे पक्षी की छाती में घुस गए थे। नीलकंठ किसी तरह उठा, बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी उड़ान से उड़कर बड़ी कठिनाई से किसी तरह वापस नीचे पहुँचा। ज़मीन पर बैठा और फिर खुले डैनों से ज़मीन पर भहरा पड़ा। 

बेचारी राजकुमारी को कुछ समझ में नहीं आया कि यह सब क्या और कैसे हो गया! उसने इस आशा से किताब के पन्ने पीछे पलटे कि जब नीलकंठ राजकुमार बनेगा तो उसके शरीर पर घाव नहीं होंगे। लेकिन हाय! ऐसा कुछ न हुआ! जब राजकुमार मनुष्य रूप में आया तब भी उसके गहरे घावों से ख़ून टपक रहा था। उसकी नीली चमक़दार पोशाक ख़ून से गीली हो रही थी। वह बेहोश सा ज़मीन पर ही पड़ा रह गया। उसके कुत्ते आसपास ही मँडराते हुए भौंक रहे थे। कुत्तों का भौंकना सुनकर कुछ दूसरे शिकारी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने पेड़ों की डालों से टिकठी बनाई, राजकुमार को उठाकर उस में डाला और ले गए। जाते हुए राजकुमार ने, शोक, भय और आशंका में डूबी, अपनी प्रिया की ओर नज़र तक न उठाई। 

महल जाकर भी राजकुमार की हालत में सुधार नहीं हुआ। घाव भरने का नाम ही नहीं ले रहे थे, न पीड़ा में ही कोई कमी आई थी। डॉक्टरों-वैद्यों को समझ में नहीं आ रहा था कि राजकुमार का इलाज कैसे हो? राजा ने अपने बेटे का इलाज करने वाले के लिए भारी इनामों की घोषणा भी कर दी, लेकिन कोई भी इलाज करने के लिए आगे न आया। 

इधर राजकुमारी अपने प्रेमी की याद और चिंता में घुली जा रही थी। एक रात को उसने अपनी बिस्तर की चादर को पतली पट्टियों में काट डाला और फिर उन्हें बट कर रस्सी बनाई। एक रात जब सन्नाटा हो गया, तब वह महल की बुर्ज पर गई और फिर रस्सी के सहारे नीचे उतर कर, उसी पगडंडी पर चल पड़ी, जिस पर से राजकुमार आता-जाता था। घना जंगल और अँधेरा होने के कारण वह आगे नहीं बढ़ पा रही थी, जंगली जानवरों का भी भय सता रहा था, सो उसने सुबह के उजाले का इंतज़ार करना ठीक समझा और एक पुराने वट वृक्ष की जड़ों के बीच में घुसकर लेट गई। चिंता और थकान के कारण जल्दी ही बेसुध हो, सो भी गई। 

अभी अँधेरा छंटा भी न था कि उसकी नींद एक सीटी की आवाज़ सुनकर खुल गई। फिर उसने एक और सीटी सुनी, फिर एक और, और इस तरह उसने चार सीटियाँ सुनीं। उसके बाद उसने देखा कि चार दीपक चार दिशाओं से चले आ रहे हैंः वास्तव में ये चार परियाँ थीं, जो पृथ्वी की चार दिशाओं से आ रहीं थीं। उनकी सभा इसी पेड़ के नीचे होती थी। राजकुमारी जड़ों के बीच में छुपी, उनकी क्रियाएँ देखने और बातें सुनने की कोशिश करने लगी। सभी परियाँ, जो वयोवृद्ध और गुणी थीं, एक दूसरे का अभिवादन करने लगीं और फिर एक खुला स्थान देकर एक अलाव जलाया और साथ लाया खाना खाने लगीं। जब वे भोजन करके छक गईं, तो आपस में बतियाने लगीं कि किसने क्या अजूबा देखा! 

एक बोली, “मैंने तुर्किस्तान का सुल्तान देखा जिसने बीस नयी शादियाँ कीं।”

दूसरी बोली, “मैंने चीन देश का सम्राट देखा जिसके सिर की चोटी तीन गज़ लंबी है।”

तीसरी ने कहा, “मैंने ऐसे नरभक्षियों का देश देखा जिनका राजा भूल से अपने ही काज़ी को खा गया।”

चौथी बोली, “मैंने तो अपने ही देश के राजा के बीमार बेटे को देखा, जिसका इलाज कोई कर नहीं पा रहा है। वह इलाज सिर्फ़ मैं जानती हूँँ, पर मैं कुछ कर नहीं सकती क्योंकि मैं मनुष्य नहीं हूँँ!” ऐसा कहते हुए वह बूढ़ी परी सिसकने लगी . . . उसकी साथिनों ने पूछा, “वह इलाज क्या है? बताओ तो!” 

“राजकुमार के कमरे के फ़र्श का एक पत्थर ढीला है, उसी पत्थर के नीचे एक डिबिया में एक मलहम है, यदि कोई मनुष्य अपने हाथों से उस मलहम को राजकुमार के घावों पर लगा दे तो, घाव तुरंत भर जाएँगे।”

इधर जड़ों के बीच में छिपी बैठी राजकुमारी ने ये सारी बातें सुनी। उसकी ख़ुशी का ठिकाना ना रहाः बड़ी कठिनाई से उसने अपनी ख़ुशी की चीख रोकी। 

इधर परियों की सभा पूरी हो चुकी थी। वे सब एक दूसरे का हाल-समाचार सुनने-पूछने के बाद अपनी-अपनी राह चली गईं। 

भोर होते ही राजकुमारी चल पड़ी राजधानी की ओर। एक दुकान से उसने एक पुराना, हकीमों वाला चोगा और एक चश्मा ख़रीदा। उन्हें पहनकर वह महल की ओर चल पड़ी। दरवाज़े पर जब उसने अंदर जाने की इजाज़त माँगी तो एक छोटे क़द के बिना तामझाम वाले डॉक्टर को किसी ने अंदर नहीं जाने दिया। 

‘मरता क्या न करता’। जब राजा को यह बात मालूम हुई तो वह बोला, “उसे आने दो। अब इससे अधिक बुरा मेरे बेटे का और क्या हो सकता है? क्या मालूम उसके हाथों में ही यश हो!” जब वह बेचारा-सा डॉक्टर अंदर आया तो उसने अपने को मरीज़ के साथ अकेला छोड़ने की बात कही जो तुरंत मान भी ली गई। 

जब राजकुमारी अपने प्रेमी राजकुमार के पास कमरे में पहुँची तो उसे अति दयनीय दशा में रुग्ण-शैय्या पर पड़ा देखा। उसकी रुलाई छूटने को हो गई, इच्छा हुई कि वह अपने प्रियतम को अंक में भर, चुम्बनों की बौछार कर दे। लेकिन समय की नज़ाकत को देखकर वह सँभल गई। राजकुमार की चिकित्सा और उसकी पीड़ा दूर करना ज़्यादा ज़रूरी था। 

वह अपने पैरों से फ़र्श थपथपाते हुए कमरे में घूम-घूम कर ढीले पत्थर की तलाश करने लगी। जल्दी ही वह ढीला पत्थर भी पा गयी। उसे उठाकर तलाश करने पर उसे एक डिबिया मिली, उसे लेकर वह राजकुमार के पास पहुँची और धीरे-धीरे घावों पर मरहम लगाने लगी। जैसे-जैसे घाव पर मलहम लगता, घाव भरने लगता था। प्रसन्नता में डूबी राजकुमारी ने राजपरिवार को भी कमरे में बुला लिया। 

जब सब लोगों ने राजकुमार के शरीर के घाव ग़ायब और उसे चैन से सोता हुआ पाया तो उनकी ख़ुशी की सीमा ना रही। 

“हकीम साहब आपके लिए मेरा सारा ख़ज़ाना खुला है, आप हुकुम कीजिए,” राजा बोले। 

“मुझे धन नहीं चाहिए, बस राज-चिह्न अंकित राजकुमार की ढाल, उसकी पताका और ख़ून के धब्बों वाली नीली पोशाक चाहिए।”

राजकुमारी को ये तीनों चीज़ें मिल गईं और वह चली गई। 

तीन दिन आराम करने के बाद राजपुत्र फिर शिकार के लिए निकला। जंगल में वह एक बार फिर उसी महल के पास से गुज़रा पर राजकुमारी की खिड़की की तरफ़ उसने निगाह तक नहीं उठाई। राजकुमारी तो रोज़ ही उसकी प्रतीक्षा में रहती थी, जैसे ही उसने राजकुमार को देखा, वह जादुई किताब के पन्ने पलटने लगी। राजकुमार के न चाहते हुए भी वह नीलकंठ पक्षी में बदल गया और उड़कर राजकुमारी के कमरे में पहुँचा, जहाँ उसे राजकुमारी ने फिर से मनुष्य बना लिया। 

“मुझे जाने दो अपने जूड़े के काँटों से मेरा शरीर लहूलुहान कर के भी क्या तुम्हें चैन नहीं मिला? अभी और क्या बाक़ी है?” राजकुमार झल्लाया। अब उसके मन में राजकुमारी के लिए प्रेम का लेश मात्र भी न था। जब राजकुमारी ने ये शब्द सुने तो दुख से उसे मूर्छा आने लगी। बड़ी कठिनाई से काँपते गले से वह बोली, “तुम ग़लत समझ रहे हो, मैंने ही तुम्हारा इलाज करके तुम्हारे प्राण बचाए हैं।”

“यह सच नहीं है, मेरे प्राण तो किसी दूर देश से आए एक गुणी, और नेकदिल हकीम ने बचाए हैं। उसे तो धन की भी इच्छा नहीं थी। वह तो मेरी ढाल, पताका और ख़ून से सनी पोशाक लेकर ही चला गया था।”

“यह रही तुम्हारी ढाल, पताका और ख़ून सनी नीली पोशाक! मैं ही हकीम का रूप बनाकर तुम्हें बचाने गई थी। तकिए में जूड़े के काँटे लगाने का काम मेरी सौतेली माँ ने किया था!” यह कहते हुए राजकुमारी फूट-फूट कर रो पड़ी। 

यह सब सुनकर राजकुमार हैरान रह गया। आज से पहले राजकुमारी उसे इतनी सुंदर और प्यारी कभी नहीं लगी थी। उसका हृदय प्रेम और कृतज्ञता से भर गया था। राजकुमारी के पैरों में माथा नवा कर वह क्षमा माँगने लगा। 

उसी शाम को अपने महल लौटने पर राजकुमार ने अपने पिता से कहा कि वह जंगल वाले महल में रहने वाली लड़की से ही विवाह करेगा। 

“तुम केवल किसी राजकुमारी से ही विवाह कर सकते हो, किसी साधारण लड़की से नहीं!” राजकुमार के पिता ने कहा। 

अब राजकुमार ने सारी कथा अपने पिता को सुना दी। 

“मैं पत्थर दिल और कृतघ्न नहीं हूँँ। मैं तो बस उसी युवती से विवाह करूँगा जिसने मेरे प्राण बचाए हैं।” 

फिर क्या था, विवाह की सारी तैयारी हो गई। आसपास के सभी राजा-नवाब बुलाए गए। राजकुमारी के पिता भी समारोह में मौजूद थे। उन्होंने जब दुलहन के रूप में अपनी बेटी को देखा तो चौंक पड़े। उनके मुँह से बेसाख़्ता निकल पड़ा– 

“मेरी प्यारी बेटी!!”

“क्या!” राजकुमार के पिता हैरान होते हुए बोले, “मेरे बेटे की दुलहन आपकी बेटी है? उसने हमें यह बात क्यों नहीं बताई?” 

अब बोलने की बारी राजकुमारी की थी, “अब मैं उस आदमी को अपना पिता नहीं मानती जो अपनी नई पत्नी के कारण अपनी बेटी को क़ैद में डाल दे!” यह कहते हुए उसने अपनी उँगुली विमाता रानी की ओर उठा दी। 

अपनी बेटी के साथ हुए अत्याचारों को जानकर राजकुमारी के पिता का मन करुणा, घृणा और पश्चाताप से भर गया। उन्होंने तत्काल रानी को क़ैद करवा दिया। उसके बंदी बनाए जाने के बाद सभी ने उत्साह से विवाह के उत्सव में भाग लिया और आनंद मनाया॥

इस तरह:

आज की कहानी हो गई ख़त्म, 
शादी का खाना हो गया हज़म, 
ईश्वर ने चाहा तो जल्द मिलेंगे हम!! 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा
कविता
सांस्कृतिक कथा
आप-बीती
सांस्कृतिक आलेख
यात्रा-संस्मरण
ललित निबन्ध
काम की बात
यात्रा वृत्तांत
स्मृति लेख
लोक कथा
लघुकथा
कविता-ताँका
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में