गुरु और चेला

15-07-2025

गुरु और चेला

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 281, जुलाई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

मूल कहानी: ला स्कोला डेला सलमांका; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो; अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द स्कूल ऑफ सलमांका); 
पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स; हिन्दी में अनुवाद: ‘गुरु और चेला’-सरोजिनी पाण्डेय

 


प्रिय पाठक, आज जो लोक कथा मैं आपके लिए लेकर आई हूँ, उसके संग्रह कर्ता ने इस कथा का मूल स्थान भारत माना है। हो सकता है आप लोगों में से कुछ लोगों ने इसका भारतीय रूप भी सुना या पढ़ा हो। यदि ऐसा हो तो कृपया मुझे भी सूचित अवश्य करें। लीजिए संसार का चक्कर लगाती इस जादुई-सी कथा का आनंद अपनी भाषा में लीजिए:

 

एक बार की बात है, एक पिता की इकलौती संतान एक पुत्र था। बेटे के दैनिक जीवन के आचार-व्यवहार से ऐसा समझ में आता था कि वह बहुत चालक और समझदार है। एक दिन अपने चालक बेटे से पिता ने कहा, “बेटा मैंने ज़िन्दगी बहुत किफ़ायत-शि'आरी से जी है और किसी तरह सौ अशरफ़ियाँ बचायी हैं। मैं इन्हें दुगनी करना चाहता हूँ। लेकिन मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि इन्हें कहाँ लगाऊँ? दुनिया में बहुत चालाक लोग रहते हैं, कहीं ऐसा ना हो कि मैं दुगना करने के चक्कर में इनसे भी हाथ धो बैठूँ; इस बारे में तुम्हारी क्या राय है? तुम जवान हो समझदार हो तुम कुछ बताओ।”

बेटा कुछ देर तो चुप रहा मानो कुछ सोच रहा हो फिर बड़े धीरे से बोला, “पिताजी, मैंने एक गुरुकुल के बारे में सुना है, जहाँ के गुरुजी बहुत सारी विद्याएँ सिखाते हैं, संयोग से गुरु जी की दक्षिणा भी सौ अशर्फ़ियों की ही। है। अगर मैं इन अशर्फ़ियों को ख़र्च करके वहाँ जाकर कुछ विद्या सीख लूंँ तो जब मैं पढ़-लिख कर बाहर आऊँगा तो अवश्य ही दो सौ अशर्फ़ियों से भी ज़्यादा कमा लूँगा।”

यह बात पिता को भी समझ में आ गई और अगले दिन सुबह ही पिता पुत्र उस पहाड़ की ओर चल पड़े, जहाँ गुरुकुल था। 

कुछ ही समय बाद में एक आश्रम में जा पहुँचे। 

“कोई हमारी आवाज़ सुनता है क्या?” 

“कौन है?” 

“एक विद्यार्थी”
“यहाँ न तो चाँद चमकता है, न परिंदा पर मारता है। यह कौन अपने को विद्यार्थी कहकर आवाज़ लगता है? क्या तुम मेरी जटाजूट काटने को कैंची लाए हो? क्या तुम मेरी बाड़ की सफ़ाई करने आए हो?” 

“बालों को काटने की हम कैंची लाए हैं नाखून के लिए नहन्नी (nail clippers) भी लाए हैं!”

उनकी यह बात सुनकर दरवाज़ा तुरंत खुल गया पिता और पुत्र भीतर गए। वहाँ एक संन्यासी बैठा था, जिसकी बरौनियाँ गालों तक लंबी हो गई थीं, बाल लंबे और उलझे हुए जटाजूट बने थे, नाखून ख़ूब लंबे थे। इन दोनों ने मिलकर संन्यासी के बाल, नाखून, सब काट-छाँट कर साफ़ कर दिए। 

जब संन्यासी की आँखें पूरी खुल गईं, तब इन्होंने संन्यासी से गुरुकुल के बारे में सलाह माँगी। 

संन्यासी ने भी इन लोगों की बात का समर्थन किया और फिर उन्हें बताया, “तुम लोग इसी पहाड़ पर चढ़ते जाओ। जब चोटी पर पहुँच जाओ तो उस छड़ी से धरती पर चोट करना जो मैं तुम्हें अभी दूँगा। वहाँ तुम्हें एक संन्यासी मिलेंगे जो मुझे भी अधिक उम्र के होंगे, वह मेरे पिता हैं और वही गुरुकुल के असली ‘उस्ताद’ हैं, ‘गुरु’ हैं।”

यह सब जानकर, कुछ देर संन्यासी की सेवा करके पिता और पुत्र आगे बढ़े। दो दिन, दो रात वे लगातार ऊपर चढ़ते रहे और पहाड़ की चोटी पर जा पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने वैसा ही किया जैसा कि संन्यासी ने बताया था। देखते ही देखते पहाड़ खुल गया और उनके सामने एक वयोवृद्ध, सौम्य, गुरुजी आ खड़े हुए। 

उनको देखते ही पिता उनके चरणों में झुक गया और आँखों में आँसू भरकर अपने आने का कारण बताया। गुरुजी कुछ कठोर हृदय वाले ‘गुरु’ थे, जैसा कि अक्सर होता है। जब पिता ने उन्हें दक्षिणा के रूप में सौ अशरफ़ियाँ दे दी तब उन्होंने इन दोनों को भीतर बुला लिया। 

गुरुजी उन्हें कई कमरों से होकर ले जा रहे थे, जिन में तरह-तरह के, लगभग हर जाति-प्रजाति के पशु-पक्षी भरे थे। गुरु जी ने उधर से गुज़रते हुए सीटी बजायी और देखते ही देखते वे सारे पशु-पक्षी युवकों में बदल गए! गुरु जी ने पिता से कहा, “तुम अपने बेटे की ज़िम्मेदारी मुझ पर डालकर निश्चिंत हो जाओ। मैं उसका भरपूर ख़्याल रखूँगा। मैं उसको हर विद्या में कुशल बनाऊँगा। एक साल बाद जब तुम यहाँ आओगे, तब अगर तुम उसे पहचान लोगे तो अपने साथ घर ले जा सकोगे और साथ ही मैं तुम्हारी सौ अशरफ़ियाँ भी लौटा दूँगा। यदि तुम उसे पहचान न सके तो वह मेरे पास हमेशा के लिए रह जाएगा।”

ऐसी शर्त सुनकर बेचारा पिता रोने लगा। लेकिन फिर उसने हिम्मत की, बेटे को गले लगाया, उसका माथा बार-बार चूमा और आँखें पोंछते हुए घर वापस चला पड़ा। 

साल भर गुरुजी सुबह से रात तक इस नए चेले को मेहनत से पढ़ाते, अभ्यास कराते, विद्याएँ सीखाते। चेला भी प्रतिभावान था मेहनत से सब कुछ सीखने में जुटा रहता। साल बीतते न बीतते चेला, वह सब सीख गया, जितना। गुरु जी जानते थे, अच्छा या बुरा सब कुछ। 

पिता भी अपने बेटे को लेने पहाड़ की ओर चल पड़ा। उसे यही चिंता खाए जा रही थी कि वह अपने बेटे को कैसे पहचानेगा? उतने जानवरों-परिंदों के बीच में यदि वह अपने बेटे को न पहचान सका तो क्या होगा? 

वह अपनी चिंता में डूबा पहाड़ पर चढ़ता जा रहा था, तभी उसने हवा की सरसराहट के बीच में एक आवाज़ सुनी, “मैं हवा हूँ, इंसान मैं बन जाऊँगा” और उसके सामने उसका बेटा आ खड़ा हुआ।

“पिताजी,” बेटे ने कहा, “मेरी बात ध्यान से सुनिए! मेरे गुरुजी आपको कबूतरों से भरे एक कमरे में ले जाएँगे। वहाँ आपको एक कबूतर गुटर गूँ करता सुनाई देगा और वह मैं ही होऊँगा।” इतना कह कर वह फिर बोला, “इंसान मैं हूँ, हवा मैं बन जाऊँगा ” और यह कहते ही वह फिर हवा बनकर उड़ गया। 

अब पिता ख़ुशी-ख़ुशी पहाड़ी चढ़कर गुरुकुल की ओर चढ़ने लगा। 

जब वह पहाड़ की चोटी पर पहुँच गया तो उसने छड़ी से धरती पर चोट की और गुरुजी उसके साथ सामने आ खड़े हुए। पिता ने कहा, “मैं अपना बेटा लेने आया हूँ, हे भगवान! उसे पहचानने में मेरी मदद करना।”

“ठीक है, ठीक है,” गुरुजी बोले, “तुम शायद ही ऐसा कर पाओ। आओ, मेरे साथ भीतर आओ।” 

गुरु जी उसे घर के एक कोने की तरफ़ ले चले। वे कभी सीढ़ियाँ चढ़ते, कभी सीढ़ियाँ उतरते भूल-भुलैया की तरह उसे ऐसे ले जा रहे थे जिससे वह घबरा जाए। जब वह कबूतरों से भरे कमरे में पहुँचे, तब गुरु जी ने कहा, “लो अब बताओ कि इसमें तुम्हारा बेटा कहाँ है? कौन है? अगर तुम उसे न पहचान सके तो हम आगे चलेंगे।”

उन कबूतरों के बीच में एक बहुत सुंदर कबूतर जो काला और सफ़ेद रंग का था, इधर-उधर गुटर गूँ गुटर गूँ करता हुआ घूमने लगा। पलक झपकते ही पिता ने कहा, “यही मेरा बेटा है! मेरा ख़ून मुझे पुकार रहा है! यही मेरा बेटा है!” गुरु जी को मानो काटो तो ख़ून नहीं! अब वह क्या कर सकते थे? वह तो शर्त से बँधे हुए थे। उन्होंने सौ अशरफ़ियाँ और पिता का बेटा, अपना चेला उन्हें लौटा दिया। गुरु जी को चेले से अधिक दुख सौ अशर्फ़ियों के जाने का था! 

बाप बेटा ख़ुशी-ख़ुशी घर लौट आए। जैसे ही वह घर पहुँचे, उन्होंने दावतों का दौर शुरू कर दिया। सारे नातेदार-रिश्तेदार बुलाए गए, गाँव भर में ख़ुशियाँ मनाई गईं। यह उत्सव महीने भर तक चलता रहा। 

अब एक दिन बेटा बोला, “पिताजी, अभी तो हमारे पास वही पहले वाली सौ अशरफ़ियाँ ही हैं, हमने उनको दुगना तो किया नहीं। अगर हम अपने लिए एक बढ़िया घर बनाना चाहें तो उतनी अशरफ़ियों में तो शायद ईंटें भी ना ख़रीद पाएँ। मैं भला गुरुकुल क्यों गया? मैं इसीलिए तो गया था न कि और धन कमा सकूंँ। आप मेरी बात ध्यान से सुनिए, कल पास के गाँव सोनपुर में कतकी का मेला लगने वाला है न, मैं कल एक घोड़ा बन जाऊँगा आप मुझे उस मेले में बेचने के लिए ले चलिएगा। सावधान रहिएगा, मेरी तलाश में गुरुजी भी वहाँ ज़रूर आएँगे और वह मुझे पहचान भी लेंगे लेकिन आप मुझे सौ अशरफ़ियाँ से कम में बिल्कुल मत बेचिएगा और वह भी बिना काठी के, याद रखिए बिना काठी के, अब मेरी ज़िन्दगी आपके हाथ में है, सौ अशरफ़ियों में काठी का दाम शामिल नहीं रहेगा।”

अगले दिन पिता की आँखों के सामने ही बेटा एक सुंदर घोड़े में बदल गया, जिसके माथे पर एक सफ़ेद सितारा बना हुआ था। वह मेले की ओर चल पड़े। 

मेले में जो भी इस घोड़े को देखता वह देखता ही रह जाता सब उसे ख़रीदना चाहते थे। लेकिन सौ अशरफ़ियों का दाम सुनकर कोई हिम्मत नहीं कर पाता था। 

जब मेला ख़त्म ही होने वाला था, तब एक बूढ़ा आदमी आया उसने भी घोड़े पर हाथ फेरा और पूछा, “कितना दाम लोगे भला इसका?” 

“सौ अशरफ़ियाँ, जी, वह भी काठी के बिना!” यह सुनकर बूढ़ा थोड़ी देर तक तो बड़बड़ा आया, दाम बहुत ऊँचा होने की शिकायत भी की, लेकिन जब उसे लगा कि मलिक दाम कम नहीं करेगा, तब उसने अशरफ़ियाँ गिननी शुरू कीं। पिता ने अशरफ़ियाँ लेकर गिन-गिन कर जेब में रखना शुरू किया। उसने अभी तक घोड़े की काठी भी नहीं उतारी थी। जैसे ही सौ की गिनती पूरी हुई, बुड्ढा बिजली की तेज़ी से कूद कर घोड़े की पीठ पर सवार हो गया और हवा की तरह उड़ गया। पिता चिल्लाया, “रुको, रुको मुझे अभी काठी उतारनी है। तुमने काठी का दाम नहीं दिया है।” लेकिन भला उसकी कौन सुनता? घोड़ा और सवार आँखों से ओझल हो गए थे। 
घोड़े पर सवार गुरुजी चेले पर कोड़े बरसा रहे थे। कोड़े इतनी ज़ोर से मारे जा रहे थे कि घोड़े के शरीर से जगह-जगह से ख़ून बहने। लगा। वह इतना घायल हो गया कि कभी भी गिर पड़ता। ऐसी दशा में वे जल्दी ही एक सराय के पास पहुँच गए। गुरुजी घोड़े से उतरे और घायल घोड़े को ले जाकर घुड़साल में बाँध दिया। न काठी उतारी और न ही उसे दाना-पानी दिया। 

उसमें एक लड़की काम करती थी, वह जितनी सुंदर थी उतनी ही दयालु भी। गुरु जब ऊपर खाने-पीने चला गया तो उसने इस घोड़े को देखा, “तुम्हारा मालिक सचमुच ही कोई कसाई होगा जो तुम्हें बिना दाना-पानी के ऐसी दशा में घुड़साल में छोड़ गया है।” नौकरानी घोड़े को सहलाती हुई बोली। कोई बात नहीं, मैं तुम्हारी मदद करूँगी।” यह कह कर वह घोड़े को पानी पिलाने के लिए झरने पर ले गयी, उसकी काठी भी उतार दी कि वह आराम से पानी पी सके। 

“मैं घोड़ा हूँ और अब मछली मैं बन जाऊँगा” घोड़े ने कहा और काठी उतरते ही वह एक मछली बनकर झरने में कूद गया। घोड़े की आवाज़ शायद गुरु के कानों में मैं भी पड़ गई। थी। वह खाने की थाली अपने सामने से सरका कर ग़ुस्से से भरा हुआ झरने के पास आया और “मैं इंसान हूँँ और सर्प मछली मैं बन जाऊँगा” कहते हुए झरने में कूद गया और सर्प मछली बनकर मछली का पीछा करने लगा। 

चेले ने भी हिम्मत नहीं छोड़ी, “मछली हूँँ मैं और कपोत मैं बन जाऊँगा” और पलक झपकते ही पानी से एक सुंदर कपोत उड़ा। गुरु जी ने भी कहा, “सर्प मछली हूँ मैं और बाज़ मैं बन जाऊँगा” और एक बाज़ पक्षी कपोत के पीछे उड़ने लगा। वे उड़ते गए-उड़ते गए। बाज़ कपोत के पीछे ऐसे उड़ता था मानो अब पकड़ा तब पकड़ा। उड़ते-उड़ते वे इंदरपुर नगर में जा पहुँचे। इंदरपुर के राजा की बेटी उसे समय महल के बग़ीचे में सैर कर रही थी। पक्षियों की आवाज़ सुनकर उसने ऊपर देखा तो एक कपोत का पीछा करता एक बाज़ दिखाई दिया। यह दृश्य देखकर वह बेचारी घबरा गई। तभी उसने आवाज़ सुनी “मैं कपोत हूँँ अँगूठी मैं बन जाऊँगा।” और चेला एक अँगूठी बनकर राजकुमारी की चोली में जा पड़ा। राजकुमारी घबराकर महल की ओर चल पड़ी। बाज़ भी नीचे झपटा और महल के बारजे पर जा बैठा और राजकुमारी को महल में जाते देखता रह गया। 

रात को जब सोने जाते समय राजकुमारी कपड़े बदलने लगी तो उसकी चोली में से निकलकर अँगूठी उसके हाथों में आ गई। ज्योंही वह उसे ध्यान से देखने के लिए दीपक के पास ले जाने लगी कि उसके कानों में आवाज़ आयी, “राजकुमारी जी, आपकी आज्ञा के बिना इस रूप में आपके पास आने के लिए मुझे क्षमा करदें, यह मेरी ज़िन्दगी और मौत का सवाल था। मुझे अपने सही रूप में आने की आज्ञा दें, तो मैं आपको अपनी पूरी कहानी सुनाऊँ।”

यह आवाज़ सुनकर तो मानो राजकुमारी के प्राण ही निकलने को हो गए। फिर कुछ ही पल में वह सँभल भी गई और उसने अँगूठी को अपने असली रूप में आने की आज्ञा दे दी। राजकुमारी से आज्ञा पाने के बाद अँगूठी जगमगायी और आवाज़ आयी, “अँगूठी हूँ मैं और इन्सान मैं बन जाऊँगा।”

इसके साथ ही एक सजीला नौजवान राजकुमारी के सामने खड़ा हो गया। उसे देख राजकुमारी तो मंत्र मुग्ध-सी उसे बस देखती ही रह गयी। फिर उसकी कहानी सुन लेने पर युवक की योग्यताओं और उसके दुर्भाग्य पर तो वह मानो उस पर मर ही मिटी। वह युवक के प्रेम में ऐसी पागल हुई कि उसने उसे महल में ही रह जाने के लिए राज़ी कर लिया। अब चेला दिन भर अँगूठी बनकर राजकुमारी की अंगुली में चमकता रहता और रात को इंसान के रूप में आ जाता था। 

उधर गुरु भी चैन से बैठने वाला नहीं था। एक दिन अचानक राजा जब सुबह उठा, तो वह पेटदर्द से व्याकुल हो रहा था। राज्य के सारे हकीम-वैद्य-डॉक्टर उसका इलाज न कर पाए, दर्द कम होने का नाम ही नहीं लेता था। राजकुमारी पिता की के दुख में डूबी रहने लगी उसका दुख देखकर चेला और भी दुखी रहने लगा क्योंकि वह मन ही मन जानता था कि यह सारी करतूत उसके गुरु की ही है। 

और कुछ दिन बीतते ही ‘बहुत-बहुत दूर देश’ का एक विदेशी वैद्य महल में आया। उसने बताया कि उसका देश पृथ्वी के दूसरे छोर पर है। उसने कहा कि यदि उसे राजा के कमरे में अकेले जाने दिया जाए तो वह उसे ठीक कर देगा। उसका यह दावा सुनकर उसे तुरंत महल में ले जाने की तैयारी होने लगी। राजकुमारी उस समय अपने पिता के कमरे में ही थी। उसने देखा कि उसकी उँगली में पड़ी अँगूठी अचानक बहुत तेज़ी से चमकने लगी। अब वह समझने लगी थी कि यह इस बात का संकेत है कि अँगूठी उससे कुछ कहना चाह रही है। उसने कमरे का दरवाज़ा बंद किया और अँगूठी के रूप में नौजवान चेले ने कहा, “राजकुमारी जी आप बहुत बड़ी ग़लती कर रहीं हैं। यह वैद्य और कोई नहीं, मेरा गुरु है। वह राजा को तो ठीक कर देगा लेकिन बदले में तुम्हारी यह अँगूठी माँग लेगा। तुम ऐसा हरगिज़ ना करना। यदि ठीक होने पर तुम्हारे पिता तुम्हें ऐसा करने पर मजबूर करें तो तुम अँगूठी को बहुत ज़ोर से फ़र्श पर फेंक देना। वैद्य के हाथ में कदापि न देना!”

सारी बातें वैसे ही हुईं जैसा कि चेले ने कहा था। राजा ठीक हो गया और उसने वैद्य से कहा, “वैद्य जी, आप जो भी चाहें माँग लें, मैं सब कुछ आपको दूँगा, आपने मेरे प्राण बचाए हैं।” पहले तो वैद्य बने गुरु ने कहा उसे कुछ नहीं चाहिए, लेकिन जब राजा ने कई बार इसरार किया तब उसने राजकुमारी की उँगली की अँगूठी माँगी। राजकुमारी ने अँगूठी देने से इनकार कर दिया। रोई, चिल्लाई और अंत में बेहोश हो गई। लेकिन जब उसे लगा कि उसके पिता ज़बरदस्ती उसकी उँगली में से अँगूठी निकल रहे हैं तो अचानक वह उठी, उँगली में से अँगूठी निकाली और फ़र्श पर ज़ोर से फेंक दी। जैसे ही अँगूठी फ़र्श से टकराई उसमें से आवाज़ आ गई, “अँगूठी में हूँ अनार में बन जाऊँगा” और अचानक अनार के दाने फ़र्श पर बिखर गए। 

गुरु बोला, “वैद्य में हूँ और मुर्ग़ा मैं बन जाऊँगा!” और तुरंत एक मुर्ग़े में बदलकर अनार के बीज खाने लगा, लेकिन एक बीज राजकुमारी के लहँगे के नीचे जा छुपा और वहीं छुपा रहा। 

राजकुमारी ने भी उसे वहीं छुपा रहने दिया, “अनार दाना में हूँ और लोमड़ी में बन जाऊँगा!” कुछ देर बाद अनार के बीज ने कहा और राजकुमारी के लहँगे के नीचे से एक लोमड़ी बाहर कूदी और मुर्ग़े को एक ही बार में चट कर गई। चेले ने गुरु को चकमा दे दिया था, अब लोमड़ी एक नौजवान में बदल गई राजकुमारी ने राजा को सारी कहानी सुनाई और फिर जैसा कि आप समझ ही गए होंगे, राजकुमारी का विवाह चेले से हो गया। 

“गुरु गुड़ ही रह गया—चेला शक्कर बन गया।” 

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