लूला डाकू
सरोजिनी पाण्डेयमूल कहानी: ल' सैसिनो सेंज़ा मैनो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (वन हैंडेड मर्डरर); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय
प्रिय पाठक, एक और इतालवी लोककथा लेकर उपस्थित हूँ। इस कथा से आप को यह मालूम होगा कि बेटी का ‘दहेज़’ केवल भारत में ही नहीं कुछ पश्चिमी देशों में भी पिता के लिए चिंता का कारण हो सकता था! साथ ही कथा यह सनातन सत्य स्थापित करती है कि संकटकाल में धैर्य बनाए:
बड़े पुराने दिनों की बात है, एक राजा था, बहुत कंजूस! इतना मक्खीचूस कि अपनी इकलौती बेटी को घर की परछत्ती में क़ैद करके रखता था कि कहीं कोई युवक उस पर मोहित होकर, उसका हाथ न माँग ले और उसे अपनी बेटी की विदाई दहेज़ देकर करनी पड़ जाए! एक दिन एक बटमार डाकू (हत्या करके लूटपाट करने वाला) उस शहर में आया। राजा का महल देखकर उसने आसपास के लोगों से पूछताछ की, तो मालूम हुआ कि महल राजा का है, साथ ही उसने परछत्ती में क़ैदी की तरह रखी जाने वाली राजकुमारी का भी क़िस्सा सुना। उसकी उत्सुकता जाग गई। फिर क्या था, जब रात पड़ी तो वह महल की छत पर चढ़ गया और परछत्ती की छोटी-सी खिड़की चालाकी से खोल ली।
राजकुमारी ने खुली खिड़की की चौखट पर एक आदमी का चेहरा देखा तो चीख पड़ी, “चोर, चोर! पकड़ो, पकड़ो!” डाकू ने तेज़ी से खिड़की का पट बंद किया और भाग गया। पहरेदार आए और बंद खिड़की को देखकर यह कह कर चले गए कि, “राजकुमारी जी, आपको धोखा हुआ है! यहाँ कोई नहीं है।”
अगली सुबह उसने अपने पिता से पिछली रात की कहानी कह सुनाई राजा ने कहा, “तुम्हारा सारा डर बेबुनियाद है। तुम वहीं रहोगी। भला राजा के महल में आने की हिम्मत कौन करेगा?”
दूसरी रात को भी डाकू उसी समय छत पर आया और खिड़की खोलकर भीतर झाँकने लगा। राजकुमारी “चोर-चोर” चिल्लाई, पर आज भी डाकू भाग निकला। राजा ने अगली सुबह राजकुमारी की परछत्ती में न रहने की इच्छा फिर अनसुनी कर दी।
तीसरी रात को राजकुमारी ने हिम्मत दिखलाई और शाम से ही खिड़की के पट लोहे की ज़ंजीरों से बाँध दिए। डाकू के आने के समय का अंदाज़ा लगाकर वह छुरा लेकर खिड़की पर मुस्तैद हो गई। आज फिर डाकू आया, खिड़की खोलने की कोशिश की, दो पटों की दरार में से किसी तरह अपना एक हाथ भीतर घुसा ही दिया। और तभी राजकुमारी ने छूरे से वार कर, उसका वह हाथ कलाई से काट दिया। डाकू चीखा, “दुष्टा, तुम्हें इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी,” और छत पर से कूदता हुआ भाग निकला।
अगले दिन राजकुमारी ने डाकू का कटा हाथ जब राजा को और राज दरबार में दिखाया तब सब लोगों को राजकुमारी की बातों की सच्चाई का विश्वास हो गया और सभी ने राजकुमारी के साहस और बुद्धि की सराहना की। इस दिन के बाद उसे परछत्ती में सोने से मुक्ति भी मिल गई।
अभी कुछ ही समय बीता था कि एक बहुत सजीले, आकर्षक, अजनबी युवक ने राजा से भेंट करने का संदेशा भिजवाया। उस युवक की भाषा इतनी शिष्ट और प्रभावशाली थी कि वह राजा को तुरंत ही पसंद आ गया। अब जब भी वह उस युवक से मिलते, वह शानदार कपड़ों और हाथों में दस्ताने पहने मिलता।
एक दिन बातों ही बातों में उसने बताया कि वह अभी तक कुँवारा है और पसंद की कन्या मिलने पर वह बिना दहेज़ के ही विवाह करेगा क्योंकि उसके पास ईश्वर का दिया हुआ बहुत कुछ है। यह सब जानकर कंजूस राजा ने सोचा कि उसकी बेटी के लिए इससे अच्छा वर नहीं मिल सकता! राजा ने तुरंत अपनी बेटी को बुलवा भेजा जिससे उसे इस युवक से मिलवाया जा सके। राजकुमारी ने जैसे ही युवक को देखा, वह काँप उठी उसे लगा कि वह इस युवक को पहले से जानती थी। मुलाक़ात के बाद जैसे ही वह पिता के साथ अकेली हुई उसने कहा, “महाराज, मुझे लगता है कि यह वही चोर है, जिसका हाथ में ने काटा था ।”
राजा का उत्तर था, “क्या बात कर रही हो बेटी, क्या तुमने उसके सुंदर हाथ और क़ीमती दस्ताने नहीं देखे? बेशक वह एक रईसज़ादा है।” आख़िरकार हुआ यह कि उस अजनबी ने राजकुमारी का हाथ माँग लिया और राजकुमारी ने भी पिता की बात मानने और उसकी तानाशाही से मुक्ति पाने के लिए इस विवाह के लिए हामी भर दी। जल्दी ही बड़े सादे ढंग से राजकुमारी का विवाह उस नई पहचान के युवक से हो गया क्योंकि न तो कंजूस राजा अधिक धन ख़र्च करना चाहता था ना ही वह युवक लंबे समय तक अपने काम से दूर रहना चाहता था।
शादी में दहेज़ के नाम पर एक आध असली-नक़ली गहने दे राजा ने अपनी बेटी विदा कर दी।
युवक उसे अपनी बग्गी में विदा कराकर ले चला।
चलते-चलते बग्गी एक जंगल में पहुँची जहाँ वह सीधा रास्ता छोड़कर टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर झाड़ियों झंखाड़ के बीच चलने लगी। जंगल में काफ़ी अंदर जाने पर युवक ने कहा, “प्रिये, ज़रा मेरे दस्ताने तो उतारना,” और जैसे ही राजकुमारी ने दस्ताने खींचे तो हाथ का ठूँठ देखकर चीख पड़ी, “कोई मुझे बचाओ!” यह समझ गई कि उसका ब्याह उसी आदमी से हुआ है जिसका हाथ उसने काटा था, परन्तु उस जंगल में उसकी सहायता करने वाला भला कौन था!
“अब तुम पूरी तरह मेरे वश में हो,” उस अजनबी ने कहा, “मैं हत्यारा डाकू हूंँ और अब मैं तुमसे, मुझे अपंग बनाने का, बदला लूँगा।”
डाकू का घर जंगल के किनारे समुद्र के पास था।
“यहाँ मैं अपना लूट का सारा माल रखता हूंँ,” डाकू ने एक घर की ओर इशारा करते हुए कहा, “अब तुम इस की रखवाली करोगी।” डाकू ने राजकुमारी को ज़ंजीरों के साथ एक पेड़ से बाँध दिया और चला गया। बेचारी राजा की बेटी एक पालतू पशु की तरह पेड़ से बँधी रही, उसके सामने विशाल सागर दूर-दूर फैला था।
समुद्र में कभी-कभार वह एक आध जहाज़ हिचकोले खाते देखती थी। एक बार उसने उधर से गुज़रते एक जहाज़ को देखा। हिम्मत करके वह ज़ोर-ज़ोर से पुकारने और हाथ से इशारा करने लगी। उसका भाग्य अच्छा था, नाविकों ने अपनी दूरबीन से उसे देखा और जहाज़ से उतर कर उसके पास आ गए। जब राजकुमारी ने उन्हें अपनी दर्द भरी कहानी सुनाई तो उन्होंने उसके सारे बंधन काट दिए और डाकू के सारे ख़ज़ाने के साथ उसे जहाज़ पर बैठा लिया।
इस जहाज़ पर कपास की गाँठें लदी थीं। नाविकों ने राजकुमारी और ख़ज़ाने को इन गाँठों के बीच में छुपा दिया।
उधर जब डाकू घर वापस आया तो अपना ख़ज़ाना और अपनी पत्नी को ग़ायब पाया। उसने अनुमान लगा लिया कि राजकुमारी को अवश्य ही समुद्र के रास्ते से ले जाया गया होगा। जब उसने सागर की ओर नज़र डाली तो दूर क्षितिज में ग़ायब होता हुआ एक जहाज़ भी उसे दिखलाई पड़ गया। उसने अपनी तेज़ रफ़्तार वाली डोंगी निकाली और कुछ ही समय में जहाज़ तक जा पहुँचा।
“सारा कपास समुद्र में फेंक दो, मेरी बीवी भाग गई है, मैं तलाशी जहाज़ की तलाशी लूँगा,” डाकू ने गरज कर कहा। इस पर कपास के व्यापारी बोले, “तुम्हारा दिमाग़ ख़राब है? तुम हमें बर्बाद करना चाहते हो? तुम अपनी तलवार सभी गाँठों में घुसा कर देख लो कि इसमें कोई छुपा बैठा है क्या?”
बात डाकू की समझ में आ गई। वह अपनी लंबी तलवार हर गाँठ में घुसा-घुसा कर देखने लगा। ऐसा करने से गाँठ में छुपी बैठी राजकुमारी को घाव भी लगा, पर जब तलवार खींच कर बाहर निकाली गई तो रूई से पुंछ कर उस पर लगा हुआ ख़ून साफ़ हो गया था। हर बार तलवार साफ़ ही दिखी। नाविकों ने डाकू को यह भी बता दिया कि उन्होंने एक दूसरा जहाज़ भी तट के आसपास देखा था। यह सुनकर डाकू ने इस जहाज़ को छोड़ दिया और दूसरे जहाज़ की तलाशी लेने के लिए तेज़ गति से तट की ओर अपनी ढोंगी से चल दिया।
डाकू की तलवार से राजकुमारी की बाँह पर खरोंच आई थी, इसलिए नाविकों ने उसे अगले बंदरगाह पर उतार देना चाहा। इस पर राजकुमारी ने गिड़गिड़ा कर प्रार्थना की, “मुझे यहाँ ना छोड़ो, मुझे समुद्र में डुबा दो! मुझे मार डालो! परन्तु यहाँ छोड़कर मत जाओ! मुझपर दया करो!” नाविकों ने आपस में बातचीत की। एक वयोवृद्ध नाविक की कोई संतान न थी, उसने सुझाया कि वह इस लड़की को अपने घर ले जा सकता है, अगर किसी को एतराज़ ना हो तो! यह तय हुआ कि इस नाविक को डाकू का धन और राजकुमारी दोनों दे दिए जाने चाहिएँ।
नाविक की पत्नी ने राजकुमारी को अपनी बेटी ही मान लिया और उसे संतान का प्यार देने लगी। राजकुमारी उनके साथ उनकी बेटी की तरह रहने लगी, बस एक शर्त उसने रखी थी कि उसे कभी किसी पुरुष के सामने आने को न कहा जाए, वह हमेशा घर के अंदर ही रहेगी। इस पर नाविक दंपती ने कहा, “चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है, हमारे घर कभी कोई आता-जाता ही नहीं!”
राजकुमारी का समय आराम से बीते इसके लिए उन लोगों ने डाकू के ख़जाने से कुछ सिक्के निकाले और राजकुमारी के लिए कशीदाकारी का सामान ख़रीद लाये।
राजकुमारी बहुत सुंदर कशीदाकारी करना जानती थी, उसने एक सुंदर चादर बनाई। इतनी सुंदर चादर तो केवल राजा के पास होनी चाहिए, ऐसा सोचकर नाविक चादर लेकर राज दरबार में पहुँच गया। उस सुंदर नमूने को देखकर राजा ने उससे पूछा कि यह किसकी कलाकारी है? नाविक ने जब बताया कि उनकी बेटी की उँगलियों का कमाल है तो राजा को भरोसा नहीं हुआ, एक नाविक की बेटी क्या ऐसा महीन सुन्दर काम कर सकती है!
राजा ने चादर ख़रीद तो ली लेकिन उसका संशय बना रहा।
चादर को बेचने से मिले पैसों से कुछ और रेशम, सूइयाँ और कपड़ा लेकर नाविक घर लौटा।
इस बार राजकुमारी ने एक सुंदर परदा बनाया। इसे भी राजा के पास पहुँचाया गया। राजा का संदेह और पक्का हो गया कि यह किसी संभ्रांत घराने की ही लड़की का काम था!
इस बार जब नाविक और उसकी पत्नी घर लौटने लगे, तब राजा ने उनका पीछा किया। नाविक की गृहणी जब द्वार बंद करने लगी तब राजा ने अपना पैर दरवाज़े में अड़ा दिया, इस पर गृहणी डर कर चीख पड़ी। राजकुमारी ने जब यह चीख सुनी तो उसे लगा कि लूला डाकू आ पहुँचा है और वह डर के मारे बेहोश हो गई।
राजा और स्त्री राजकुमारी की सुश्रुषा में लग गए। थोड़ी देर में जब उसे होश आया और उसने इस राजा को देखा तो वह आश्वस्त हो गई कि यह लूला डाकू नहीं है। अब यह राजा तो राजकुमारी की कला पर मोहित हो गया था। उसने पूछा, “तुम इतना ज़्यादा डर क्यों गईं? आख़िर बात क्या है?”
राजकुमारी का उत्तर छोटा सा उत्तर था, “मेरा नसीब ही खोटा है!”
इससे अधिक वह कुछ नहीं बोली।
अगले दिन से राजा उस नाविक की आज्ञा से उसके घर रोज़ पहुँचने लगा। वह राजकुमारी से बातें करता और उसे कशीदाकारी करते हुए देखता रहता।
आख़िर एक दिन उसने राजकुमारी के सामने विवाह का प्रस्ताव रख ही दिया। नाविक दंपती संकुचित हो उठे, “हम तो ग़रीब लोग हैं मालिक!”
“इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, मुझे आपकी लड़की बहुत पसंद है।”
“मैं तैयार हूंँ,” राजकुमारी ने कहा, “लेकिन मेरी एक शर्त है।”
“वह क्या?”
“मैं अपने पिता (नाविक) और आपको छोड़कर किसी अन्य पुरुष से कभी नहीं मिलूँगी और मुझे ऐसा करने को कभी कहा भी न जाए!”
राजा ने यह शर्त स्वीकार कर ली, राजा तो कुछ विशेष प्रसन्न था कि यह लड़की उसके अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष को देखना भी नहीं चाहती थी!
उनकी शादी चुपचाप हो गई क्योंकि वधू किसी अन्य पुरुष का सामना जो नहीं करना चाहती थी!
लेकिन राजा की प्रजा इस बात से एकदम ख़ुश नहीं थी, भला ऐसा भी कभी हुआ है कि राजा का ब्याह हो और प्रजा अपनी महारानी की सूरत तक ना देख पाए?
जब प्रजा की इच्छा का दबाव बहुत बढ़ गया तो राजा विवश हो गया। बहुत समझाने-बुझाने पर राजकुमारी एक घंटे के लिए महल की छत पर बने बारजे पर आने को तैयार हो गई।
“ठीक है, कल सुबह ग्यारह से बारह के बीच, एक घंटे के लिए मैं छज्जे पर आऊँगी जिससे प्रजा मुझे देख ले,” राजकुमारी ने राजा की इच्छा और उसकी लोकप्रियता का ध्यान रख कर कह दिया।
अगले दिन ग्यारह बजे तक महल के सामने का मैदान लोगों से खचाखच भर गया। ऐसा लगता था मानो सारा नगर ही रानी को देखने के लिए उमड़ पड़ा है। राज्य के दूर-दूर के इलाक़ों से भी लोग आ पहुँचे थे। जैसे ही रानी छज्जे पर आई, लोगों ने आनंद और प्रशंसा के नारों से सारा मैदान गुंजा दिया। उन्होंने इतनी सुंदर रानी पहले कभी नहीं देखी थी।
राजकुमारी में भी ऊपर से भीड़ पर नज़र डाली। उसका मन भय और आशंका से भरा था और उसने देख ही लिया कि उस भीड़ में लूला डाकू भी खड़ा था। राजकुमारी को देखकर उसने अपना लूला हाथ उठाया और आँखें तरेरीं। बेचारी रानी डर से चक्कर खाकर गिर पड़ी और बेहोश हो गई। बीमार रानी को उठाकर भीतर ले जाया गया। उसे माँ का प्यार देने वाली नाविक की पत्नी बड़बड़ाई, “आप लोगों ने उसे सबको दिखाना चाहा था न! अब देखो! उसकी इच्छा के विपरीत काम करने का क्या नतीजा हुआ!!”
रानी का इलाज करने के लिए शहर के सारे नामी-गिरामी वैद्य डॉक्टर आए, पर उसका इलाज कोई न कर पाया। बेचारी हरदम काँपती रहती और अपने को अकेला छोड़ दिए जाने की बात दोहराती रहती। उन्हीं दिनों राजा से मिलने एक विदेशी आया, जो बेहद चापलूस और मीठी ज़ुबान वाला था। राजा ने एक रात उसे अपने साथ भोजन करने का निमंत्रण दे डाला। यह विदेशी कोई और नहीं, भेस बदले हुए वही लूला डाकू था।
उसने अपनी ओर से सारे महल के लोगों को मदिरापान कराने का ज़िम्मा ले लिया। महँगी मदिरा के बड़े-बड़े पीपों के मुँह महल के हर बाशिंदे के लिए खोल दिए गए। इस मदिरा में नशे और नींद की दवा पहले से मिली थी। दावत वाले दिन शाम से ही महल के दासी, दास, पहरेदार, मंत्री, दरबारी यहाँ तक कि राजा ने भी जमकर मदिरापान किया और नशे में धुत्त होकर सो गए।
जब महल में राजा के खर्राटे गूँजने लगे तो लूला डाकू दबे पैरों महल में घूमने लगा। सभी लोग चित्त पड़े थे। घूमते-घूमते वह रानी के कमरे में जा पहुँचा। वहाँ उसने देखा कि रानी बिचारी अपने पलंग पर, एक कोने में सिकुड़ी बैठी है और फटी-फटी आँखों से उसे देख रही है। ऐसा लगता था मानो उसे पहले से ही मालूम था कि लूला डाकू वहीं आएगा।
“अब बदला लेने का मेरा समय आ गया है!” लूला फुसफुसाया।
“उठो, एक तसले में पानी लेकर आओ, जिसमें मैं तुम्हारा गला काटने के बाद अपने हाथों का ख़ून धो सकूँ।”
रानी दौड़ कर कमरे से बाहर आई और अपने पति को जगाते हुए बोली, “उठो, जागो, मुझे बचाओ” पर राजा बिना हिले-डुले सोता ही रहा। महल के सारे संतरी, पहरेदार नशीली दवा में डूबे थे। उन्हें जगाने का कोई उपाय नहीं था। हार कर रानी पानी से भरा एक तसला लेकर अपने कमरे में आ गई। डाकू ने फिर आज्ञा दी, ”जाओ साबुन ले आओ “
वह फिर बाहर दौड़ी, अपने पति को जगाने की कोशिश एक बार फिर की, पर सब बेकार!
वह साबुन लेकर लौट आई।
“तौलिया भी लेकर आओ!” डाकू फिर गरजा।
वह बाहर आई और सोए पड़े पति की पिस्तौल तौलिए के नीचे छुपाकर लौटी। तौलिया डाकू को थमाते हुए उसने पिस्तौल दाग दी। गोली डाकू के सीने में उतर गई।
गोली की आवाज़ सुनकर महल के सारे लोग जाग गए और आवाज़ की तरफ़, रानी के कमरे की और दौड़ पड़े। वहाँ लोगों ने मुर्दा पड़े हुए लूले डाकू को देखा। बहादुर रानी सीधी-सतर खड़ी थी आख़िरकार वह अपने भय से आज़ाद हो गई थी!!!
सच ही कहा गया है:
“अपने ही मरे स्वर्ग देखने को मिलता है”
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- अनूदित लोक कथा
-
- तेरह लुटेरे
- अधड़ा
- अनोखा हरा पाखी
- अभागी रानी का बदला
- अमरबेल के फूल
- अमरलोक
- ओछा राजा
- कप्तान और सेनाध्यक्ष
- काठ की कुसुम कुमारी
- कुबड़ा मोची टेबैगनीनो
- कुबड़ी टेढ़ी लंगड़ी
- केकड़ा राजकुमार
- क्वां क्वां को! पीठ से चिपको
- गंध-बूटी
- गिरिकोकोला
- गीता और सूरज-चंदा
- गुनी गिटकू और चंट-चुड़ैल
- गुमशुदा ताज
- गोपाल गड़रिया
- ग्यारह बैल एक मेमना
- ग्वालिन-राजकुमारी
- चतुर और चालाक
- चतुर चंपाकली
- चतुर फुरगुद्दी
- चतुर राजकुमारी
- चलनी में पानी
- छुटकी का भाग्य
- जग में सबसे बड़ा रुपैया
- ज़िद के आगे भगवान भी हारे
- जादू की अँगूठी
- जूँ की खाल
- जैतून
- जो पहले ग़ुस्साया उसने अपना दाँव गँवाया
- तीन कुँवारियाँ
- तीन छतों वाला जहाज़
- तीन महल
- दर्दीली बाँसुरी
- दूध सी चिट्टी-लहू सी लाल
- दैत्य का बाल
- दो कुबड़े
- नाशपाती वाली लड़की
- निडर ननकू
- नेक दिल
- पंडुक सुन्दरी
- परम सुंदरी—रूपिता
- पाँसों का खिलाड़ी
- पिद्दी की करामात
- प्यारा हरियल
- प्रेत का पायजामा
- फनगन की ज्योतिष विद्या
- बहिश्त के अंगूर
- भाग्य चक्र
- भोले की तक़दीर
- महाबली बलवंत
- मूर्ख मैकू
- मूस और घूस
- मेंढकी दुलहनिया
- मोरों का राजा
- मौन व्रत
- राजकुमार-नीलकंठ
- राजा और गौरैया
- रुपहली नाक
- लम्बी दुम वाला चूहा
- लालच अंजीर का
- लालच बतरस का
- लालची लल्ली
- लूला डाकू
- वराह कुमार
- विधवा का बेटा
- विनीता और दैत्य
- शाप मुक्ति
- शापित
- संत की सलाह
- सात सिर वाला राक्षस
- सुनहरी गेंद
- सुप्त सम्राज्ञी
- सूर्य कुमारी
- सेवक सत्यदेव
- सेवार का सेहरा
- स्वर्ग की सैर
- स्वर्णनगरी
- ज़मींदार की दाढ़ी
- ज़िद्दी घरवाली और जानवरों की बोली
- ललित निबन्ध
- कविता
-
- अँजुरी का सूरज
- अटल आकाश
- अमर प्यास –मर्त्य-मानव
- एक जादुई शै
- एक मरणासन्न पादप की पीर
- एक सँकरा पुल
- करोना काल का साइड इफ़ेक्ट
- कहानी और मैं
- काव्य धारा
- क्या होता?
- गुज़रते पल-छिन
- जीवन की बाधाएँ
- झीलें—दो बिम्ब
- तट और तरंगें
- तुम्हारे साथ
- दरवाज़े पर लगी फूल की बेल
- दशहरे का मेला
- दीपावली की सफ़ाई
- पंचवटी के वन में हेमंत
- पशुता और मनुष्यता
- पारिजात की प्रतीक्षा
- पुराना दोस्त
- पुरुष से प्रश्न
- बेला के फूल
- भाषा और भाव
- भोर . . .
- भोर का चाँद
- भ्रमर और गुलाब का पौधा
- मंद का आनन्द
- माँ की इतरदानी
- मेरी दृष्टि—सिलिकॉन घाटी
- मेरी माँ
- मेरी माँ की होली
- मेरी रचनात्मकता
- मेरे शब्द और मैं
- मैं धरा दारुका वन की
- मैं नारी हूँ
- ये तिरंगे मधुमालती के फूल
- ये मेरी चूड़ियाँ
- ये वन
- राधा की प्रार्थना
- वन में वास करत रघुराई
- वर्षा ऋतु में विरहिणी राधा
- विदाई की बेला
- व्हाट्सएप?
- शरद पूर्णिमा तब और अब
- श्री राम का गंगा दर्शन
- सदाबहार के फूल
- सागर के तट पर
- सावधान-एक मिलन
- सावन में शिव भक्तों को समर्पित
- सूरज का नेह
- सूरज की चिंता
- सूरज—तब और अब
- सांस्कृतिक कथा
- आप-बीती
- सांस्कृतिक आलेख
- यात्रा-संस्मरण
- काम की बात
- यात्रा वृत्तांत
- स्मृति लेख
- लोक कथा
- लघुकथा
- कविता-ताँका
- सामाजिक आलेख
- ऐतिहासिक
- विडियो
-
- ऑडियो
-