ताम्बूलम् मुख भूषणम्

01-10-2022

ताम्बूलम् मुख भूषणम्

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

भारत ऊष्णकटिबंधीय प्रदेश का एक देश है। यहाँ की शीत और ग्रीष्म ऋतुएँ तीव्र होती हैं, परन्तु छह ऋतु वाले हमारे देश में बसंत और शरद ऋतु के चार माह सुखद और आनंदमय माने जाते हैं। इन दोनों ऋतुओं में त्यौहारों और पर्वों की प्रधानता रहती है। इन दोनों में ही नौ दिनों का नवरात्रि पर्व होता है, जो देवी-देवताओं के प्रति अनुग्रह व्यक्त करने का समय होता है। शारदीय नवरात्रि के पूर्व सोलह दिन 'पितृपक्ष' के रूप में निश्चित हैं, जिसमें पूर्वजों का श्राद्ध और तर्पण किया जाता है। इस बार जब मेरी सास जी की पुण्यतिथि आई तो उनको याद करते हुए मुझे अपने विवाह का दिन याद आ गया। सास जी का मेरे जीवन से जुड़ाव तो विवाह के बाद ही हुआ था न, शायद इसीलिए! 

अब मन की उड़ान को भला रोका भी कैसे जा सकता था? 

मेरे विवाह की सारी विधियाँ (रिचुअल्स) मेरी ननिहाल के विद्वान पंडित जी, जो उन दिनों, अयोध्या के प्रसिद्ध हनुमानगढ़ी मंदिर में पुजारी थे, ने संपन्न कराईं थीं। नवग्रहों का पूजन कराते समय जब पान के पत्ते पर पुंगीफल (सुपारी) रखकर, उन्हें समर्पित करवाने लगे तो, उन्होंने मुझसे पूछ लिया, “बिटिया पान खाती हो न?” मेरे मना करने पर कहने लगे, “क्यों नहीं खातीं?” मेरा उत्तर था कि अभी तो मैं विद्यार्थी जीवन में हूंँ (तब मैंने बी.एससी. की परीक्षा ही दी थी) इसलिए कोई व्यसन करना मेरे उचित नहीं है। इस पर उन्होंने तर्क दिया, “पान खाना व्यसन नहीं है। अब तुम गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने जा रही हो, पान खा सकती हो। देवी-देवताओं को भी पान प्रिय है। तांम्बूलम् मुख भूषण्!” 

उस दिन मेरी समझ में आया कि मेरी माँ ने पन्द्रह वर्ष की आयु में, विवाह के साथ ही तांबूल को अपने मुख का आभूषण क्यों बना लिया था! ब्याह कर जब ससुराल आई तो सासु माँ को भी यह शौक़ भरपूर देखा। 

सासू माँ तो मेरे साथ बहुत समय रहती नहीं थी क्योंकि वे एक स्थान पर अध्यापिका थीं और मेरे पति का काम दूसरे शहर में। परन्तु माँ को तो अपने बचपन से ही पान की दीवानी देखा था! जब मैंने होश सँभाला तबसे माँ का पीतल का चमचमता पानदान उनके बिस्तर के बग़ल के स्टूल पर विराजमान देखा। इस पानदान की तो शान ही निराली थी। लगभग नौ इंच लम्बे, छह इंच चौड़े, चार इंच ऊँचे, षटकोणीय संदूक जैसे डिब्बे पर ढक्कन उठाने के लिए एक कड़ी लगी थी। कड़ी उठाने पर सबसे पहले गीले कपड़े में लपेटे हुए पान के पत्ते, एक पीतल की प्लेट पर रखे रहते। उस प्लेट को उठाते तो चार कोनों में चार कटोरियाँ और बीच में पान के आकार की एक डिब्बी दिखती। कटोरियों में क्रमशः चूना, कत्था, लौंग और इलायची रहती थी। बीच की बड़ी पान के आकार की डिब्बी में आधी कटी सुपारी के फल रखे रहते थे। सुपारी कतरने के लिए सरौता भी था, जो स्टूल पर अलग रखा रहता था। तंबाकू की डिबिया भी बाहर ही रहती थी। चूना और कत्था पान के पत्ते पर लगाने के लिए चप्पू के आकार की दो सलाइयाँ भी उनकी कटोरियों के साथ ही रखी रहतीं। जब कभी चूना ख़त्म होता तो बाज़ार से ‘कच्चा-चूना’ मँगवाया जाता, किसी बड़े कटोरे में चूना रखकर जब उसको पानी से भिगोया जाता तो तेज़ भाप उठती और पानी के साथ मिला चूना खौलने लगता। माँ हमसे एक पहेली पूछतीं:

“बिना आग की खीर पकाई, मीठी ना नमकीन, 
 रत्ती-रत्ती खा गए, बड़े-बड़े शौक़ीन“

उत्तर जा़हिर है, चूना ही था। विज्ञान की कक्षा में एंडोथर्मिक और एक्सोथर्मिक रिएक्शन तो बहुत बाद में पढ़ा, परन्तु यह एक्सोथर्मिक क्रिया हम बचपन से ही देखते आए थे। 

माँ जिस मनोयोग से पान लगातीं, वह भी दर्शनीय होता। सबसे पहले गीले कपड़े में से पान का पत्ता निकाला जाता। पान का पत्ता भी भिन्न-भिन्न जाति का होता था, कभी बड़े पत्ते आते तो वह कलकतिया कहलाते, मध्यम आकार के तनिक सुगंधित पत्तों को कपूरी कहा जाता और छोटे आकार के लहरदार किनारे वाले देसावरी पत्ते कहलाते। पान का पत्ता जितना पुराना हो उतना सुस्वादु और लाभकारी माना जाता है, नये, कोमल पत्ते बढ़िया नहीं होते, इसके साथ की कहावत भी तैयार रहती, ‘पान पुराना, नाई नया, वैद पुराना धोबी नया’। हमारी माता को देसावरी पत्ते विशेष प्रिय थे। लखनऊ में तो ‘पान दरीबा’ एक बाज़ार का ही नाम हुआ करता था, जहाँ थोक में पान के पत्तों का व्यापार होता था। मालूम नहीं वह बाज़ार अभी है या नहीं! पान अक़्सर ‘ढोली’ के माप से बिकता है। एक ढोली में दो सौ पान के पत्ते मिलते हैं। माँ आधी ढोली पान मँगवातीं थीं जो लगभग एक सप्ताह का ख़र्चा होता था। जिस कपड़े में पान लपेटा जाता वह दिन में कई बार भिगोया जाता, गर्मियों में अधिक और सर्दियों में अपेक्षाकृत कम बार। अमीर खुसरो की पहेली:

“पान सड़ा क्यों? घोड़ा अड़ा क्यों?”

 माँ अक़्सर दोहरातीं जिसका उत्तर है: 

“फेरा न था!”

तो पान के पत्ते को सुरक्षित रखने के लिए उसे उलट-पुलट कर भी रखा जाता है, जिसे कहते हैं ‘पान को फेरना’, यदि पान का पत्ता एक ही स्थिति में देर तक रखा रह जाये तो सड़ने लगता है। किसी क़ीमती वस्तु को सँभाल कर रखने के लिए भी ‘पान की तरह फेरना’ मुहावरा जन भाषा में प्रयोग होता है। 

तो पान का पत्ता हथेली पर रखकर, उस पर पहले चूना लगाया जाता फिर कत्था। कत्थे का परिमाण चूने से तीन गुना होना चाहिए नहीं तो मुँह कट जाएगा। फिर सरौते से सुपारी के बारीक़ कतरे बनाए जाते। वैसे तो सुपारी के बने-बनाए कतरे भी बाज़ार में उपलब्ध होते हैं, परन्तु माँ वे कभी नहीं मँगवातीं थीं क्योंकि उनमें व्यापारिक लाभ के लिए सड़ी और बेस्वाद सुपारी के कतरे भी मिले हो सकते हैं। सुपारी के बाद, बने हुए पान पर एक इलायची रखी जाती और सबसे अंत में, तितली छाप जाफरानी पीली पत्ती, तंबाकू की एक चुटकी। इसके बाद पत्ते को मोड़कर तिकोने आकार का बीड़ा बनता। पानदान में सब कुछ पूर्ववत् रखने के बाद जब वे पान का बीड़ा मुख में रखतीं तो उनके चेहरे का संतोष और आनंद देखने वाले को भी मुग्ध कर देता। हमारे घर में जब कोई मिलने आता तो मिठाई के साथ पानी पिलाने के बाद एक कलई वाली तश्तरी में पान ज़रूर दिया जाता। उस समय पान के तिकोने बीड़े को लौंग लगा कर बन्द कर दिया जाता था, खाने वाला शौक़ीन रुचि के अनुसार लौग खाता या फिर निकाल कर उसी तश्तरी में रख देता। थोड़ी देर पान के पत्ते को मुख में घुलाकर पहली पीक थूकने की बारी आती थी। इसके लिए भी पूरा प्रबंध था। उन दिनों हर घर में आज कल की तरह वाश-बेसिन नहीं हुआ करते थे। इस के लिए एक डमरू के आकार की, मुरादाबादी कलई की पीकदानी पान की पीक थूकने के लिए थी हमारे घर में, जिसकी सफ़ाई स्नान से पूर्व नित्य, नियम से मेरी माँ स्वयं अपने ही हाथों से करतीं। पंद्रह वर्ष की किशोर आयु से पचासी वर्ष की वृद्धा होने तक मेरी माँ ने प्रतिदिन कम से कम छह पान के बीड़े रोज़ खाएँ होंगे, परन्तु मजा़ल है कि हमारे घर या आसपास कहीं हमने उन्हें पीक थूक कर गंदगी फैलाते देखा हो! 

कभी-कभी वह हमको लाल पीक की पहेली भी बुझातीं:

“प्यारा तोता हरा हरा, पिंजरे में हो गया लाल। 
 मेरी पहेली बूझो जल्दी, वरना काटूँ तेरे गाल!” 

इस पहेली को सुनकर हम बच्चे खिलखिला उठते और कहते, “आपका तो मुँह लाल है, आप हमारे गाल लाल कर देंगी, लेकिन चपत से नहीं पान से।” 

पान के खाने से मुँह लाल होने के बारे में एक कथा बचपन में पढ़ी थी, जो मन से कभी नहीं उतरी— “एक चरवाहा एक दिन अपने पशु लेकर जंगल में चरा रहा था। सहसा उसकी दृष्टि एक वृक्ष के नीचे खड़ी एक अनुपम सुंदरी पर पड़ी। जिसको देखते ही वह उसके रूप पर मोहित हो गया। परन्तु जैसे ही दोनों की नज़रें मिलीं वह रूपसी अंतर्धान हो गई। युवक ने सारा जंगल छान मारा, पर उस मोहिनी का अता-पता भी ना पा सका। वह सुंदरीबाला और कोई नहीं साक्षात्‌ वनदेवी थी, जो वसंत ऋतु में अपने साम्राज्य का निरीक्षण, मनुष्य के रूप में कर रही थी। चरवाहा युवक मनुष्य रूपी वनदेवी का वियोग न सह सका। उसने घास काटने वाली दरांती से अपना सीना चीरा और अपना हृदय निकाल कर उसी वृक्ष के नीचे मिट्टी में दबा दिया। कालांतर में उस वृक्ष के नीचे एक बेल उगी, जिसके पत्ते हृदय के आकार के थे। वह पान की लता थी, जो उस वृक्ष पर ही लिपट गई। यदि कोई उन पत्तों को चबा लेता था, तो उस बलिदानी, पागल, प्रेम दीवाने चरवाहे के हृदय के प्रेम का लाल रंग उसका मुख लाल कर देता था।” भारतीय संस्कृति में लाल रंग प्रेम का प्रतीक जो है!! 

मेहँदी का लाल रंग भी प्रेम का चिह्न माना जाता है परन्तु कहावत तो आज भी यही कही जाती है:

“प्यारी को पान, कुप्यारी को मेहँदी, गोरी को काजल, सांवरी को बिंदी बहुत शोभा देती है।” 

कवि शैलेंद्र ने ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म में “पान खाए सैयां हमार, साँवरी सुरतिया होंठ लाल-लाल” लिखकर 'तांम्बूलम् मुख भूषणम्' को और भी अधिक चरितार्थ कर दिया। अमिताभ बच्चन ने तो बनारसी पान खाकर जो अपनी बंद अक़्ल के ताले को खोलने की घोषणा की, तो उससे केवल देश ही नहीं विदेशों में भी बनारस और बनारसी पान की चर्चा होने लगी। लेकिन यही पान का बीड़ा, लौंग-इलायची के साथ ‘गोरी का यार’ जब चबाए तो बलम के लिए वह ज़हर का घूँट बन जाता होगा, न कि भूषणम्!! 

अब जब मेरा मन मतवाला पान के चर्चे से में ही डूबा है तो एक प्रसंग आपको और सुना दूंँ—मेरी बिटिया उन दिनों अपने पति के साथ जर्मनी के म्यूनिख शहर में रहती थी। उसके शिशु जन्म के बाद कुछ समय उसकी सहायता करने और नई-नई नानी बनने का सुख भोगने, मैं उसके पास गई थी। नवजात का नामकरण भारतीय विधि-विधान से होना आवश्यक लगा। दक्षिण भारत से आया एक विद्यार्थी वहाँ कोई पढ़ाई कर रहा था और वह पुरोहित का काम भी जानता था। गिने-चुने भारतीय परिवारों में उसकी प्रसिद्धि भी ख़ूब थी। पूजन के लिए उसे ही आमंत्रित कर लिया गया। पूजन-सामग्री की सूची उन्होंने लिखवा दी। एक छोटे से ‘इंडियन स्टोर’ से सामान लेने हम पहुँच गए। धूप, दीप, मेवा, मिठाई तो सहजता से उपलब्ध थे, जब पान-सुपारी की बात आई तो थोड़ी मुश्किल हो गई। विक्रेता ने इस कठिनाई का एक सहज उपाय बताया, “पान मसाले का पैकेट ले लीजिए, उस से काम हो जाएगा!” तुरंत पंडित जी को इस समस्या के बारे में फोन किया गया कि क्या विक्रेता के सुझाए गए समाधान का अनुसरण किया जाए? पंडित जी ने कहा, “बिल्कुल नहीं। पान के पत्ते पर सुपारी रखकर नवग्रह को मुख शुद्धि देने का काम तो लौंग-इलायची या फिर पान मसाले के पैकेट से चलाया जा सकता है, परन्तु श्री गणपति की स्थापना के लिए तो पुंगी फल के स्थान पर पान मसाले का पैकेट नहीं रखा जा सकता!” इस समस्या का समाधान कैसे हुआ? यह बात मुझे पूरी तरह से याद नहीं रह गई है, लेकिन भारती जनमानस की जुगाड़ू प्रवृत्ति याद है। 

भारतीय जीवन में पान और उससे संबंधित सुपारी की कितनी महत्ता है यह तो स्पष्ट हो गया। एक ओर जहाँ वीरता और साहस का महान कार्य करने का ‘बीड़ा’ उठाया जाता है, वहीं छोटी-मोटी रिश्वत के लिए ‘पान-सुपारी का ख़र्चा’ भी प्रचलित है। 

तंबाकू के उत्पादों पर वैधानिक चेतावनी के डरावने चित्र, रेलवे स्टेशन पर पान सिगरेट के स्टालों पर प्रतिबंधों के कारण पान-तंबाकू के व्यापार को कुछ हानि अवश्य हुई होगी क्योंकि अधिकांश पान-प्रेमी तंबाकू वाला पान ही खाते हैं। इधर पान के बीड़े का स्थान धीरे-धीरे गुटका लेता जा रहा है, जिसमें चूना, कत्था-सुपारी-इलायची और तंबाकू तो होते हैं केवल पान का 'पत्ता' ग़ायब रहता है। असली और धुरंधर पान के शौक़ीन इस बात से दुखी होते हैं कि गुटखा खाने वाले कत्था-सुपारी-तंबाकू जैसी हानिकारक चीज़ों से का तो सेवन कर लेते हैं, परन्तु पान के पत्ते के औषधीय गुणों से वंचित रह जाते हैं! 

वैज्ञानिक प्रयोगों से वास्तव में यह सिद्ध हो चुका है कि पान के पत्तों में ऐसे एंटीऑक्सीडेंट्स होते हैं जो शरीर की रोग निरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं और कैंसर जैसी बीमारी से भी लड़ने में सक्षम हैं। बचपन में माँ के पानदान से ही छोटी-मोटी तकलीफ़ों के इलाज निकल आते थे, जैसे—चोट लगने से यदि ख़ून बह रहा हो तो उस पर चूना लगाने से, कुछ पल की पीड़ा तो अवश्य होती थी, परन्तु रक्तस्राव तुरंत रुक जाता था। यदि मुँह में छाले हो जाएँ तो कत्थे (खैर) का लेप लगाने से आराम मिलता था। कान में दर्द होने पर पान के पत्ते का रस निकालकर उसको खौला कर ठंडा किया जाता और दिन भर में दो-तीन बार कान में डालने पर दर्द ठीक हो जाता था। टोंसिल में दर्द होने पर, पान के पत्तों पर घी लगाकर, उसे कान के नीचे गर्दन पर रखकर, ऊपर से कपड़ा गर्म करके सिंकाई होती थी, तो दो दिन में गले का दर्द भी रफ़ू-चक्कर हो जाता था। दाँत में दर्द होने पर उसी दाँत पर लौंग दबाने को माँ कहती थी। बचपन की इन छिटपुट तकलीफ़ों में माँ का पानदान फ़र्स्ट एड बॉक्स जैसा काम करता था। 

अब इतनी सब बातचीत हो जाने के बाद तांबूल को मुख का आभूषण मानकर उसका सेवन करना या न करना आपकी रुचि पर है। हम मान लेते हैं तांबूल मुख को विभूषित करता है, ठीक उसी तरह भित्तिचित्र भी दीवारों को विभूषित करते हैं। अब मुख के भूषण से दीवारों को विभूषित करना कहाँ की बुद्धिमत्ता है? पान खाकर उसकी पीक से दीवारों, सीढ़ियों के कोनों पर चित्रकारी करना मुझे अति निंदनीय कर्म लगता है, यह मेरी दृष्टि से सामाजिक अपराध है। अभी तक इस कुकर्म के लिए न्यायिक दंड सुनिश्चित नहीं किए गए हैं परन्तु मेरा शासन से अनुरोध है कि रँगे हाथों पकड़े जाने पर इस अपराध के लिए दंड व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए। 

2 टिप्पणियाँ

  • 30 Sep, 2022 02:47 PM

    सरोजिंजी जी तांबूल मुख भूषण लेख रोचक लगा।आप अपने रचनाओं को मुवहरो , पहेली और सजीव उदाहरण देकर इतना मजेदार बना देती है की मुझे पढ़ने में बड़ा मजा आता है।कुछ उधारण वृक्ष के नीचे खड़ी सुंदर सच्ची बन देवी,****ने पान की उत्पत्ति चरवाहा द्धारा हुई। ताम्बुल मुख भूषण मैं तीसरी कसम फिल्म का गाना पान खाय सईया हम।र क्या खूब *** चुने का भिगोना endo thermic and exothermic reaction. Paan की उपयोगिता सब कुछ तो आ गया। तांबूल की आत्म कहानी ऐसी लिखी जागी पान ने भी नही सोचा होगा। मुझे ये प्रतिक्रिया काम लेख लगने लगा।धन्यवाद सरोजिनजी।

  • 23 Sep, 2022 04:07 PM

    बहुत आनंदवर्धन, ज्ञानवर्धक लेख...

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