ज़मींदार की दाढ़ी 

15-01-2022

ज़मींदार की दाढ़ी 

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 197, जनवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

मूल कहानी: ला बार्बा डेल कोन्टे; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द काउंट'स् बियर्ड); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

प्रिय पाठक, आपको सुनाने के लिए जो कहानी मैंने इस बार चुनी है उसके बारे में मूल संकलनकर्ता इतालो काल्विनो को संदेह है कि यह लोककथा है भी या नहीं? परंतु इटली के कई प्रदेशों में, थोड़े बहुत अंतर से, यह कथा लोकप्रिय है और सबसे बड़ी बात लेखक ने अपने लोककथा के संग्रह में इसे स्थान दिया है, इसलिए मैं आपको भी इस कथा का आनंद दिलाना चाहती हूँ! 

 

गाँव टोलापगलिया पर्वत की चोटी पर बसा था। वहाँ ढलान इतनी तेज़ थी कि लोगों को अपनी मुर्गियों की दुम के पीछे वाले पंखों पर थैलियाँ बाँधनी पड़ती थीं। अगर वे ऐसा ना करते तो मुर्गियों के ताज़े अंडे ढलान पर लुढ़कते हुए सीधे पहाड़ की तलहटी के जंगल में गुम हो जाते। 

उनकी इस चतुराई से हम समझ सकते हैं कि टोलापगलिया के लोग इतने बेवकूफ़ नहीं थे, जितना कि उन्हें आसपास के गाँवों-क़स्बों के लोग समझते थे। शायद ईर्ष्या और जलन के कारण ही लोगों ने यह कहावत मशहूर कर दी थी कि:

टोलापगलिया का देखो अचंभा, 
रेंके यहाँ मालिक, सीटी मारे गदहा!

लेकिन टोलापगलिया के लोग इतने सीधे और शांतिप्रिय थे कि ऐसी कहानियों का असर उनके ऊपर बिल्कुल नहीं पड़ता था। ”हाँ, हाँ,” वे जवाब में कहते, “आने दो सुजान को फिर देखना कि तुम रेंकते हो या हम।” 

टोलापगलिया के सभी लोग सुजान को बहुत प्यार करते थे। वह पूरे गाँव-जवार का सबसे चतुर, होशियार लड़का जो था! ऐसा नहीं था कि वह सबसे अधिक बलवान हो। सच तो था कि वह क़द-काठी से औरों जैसा ही था, शायद कुछ दुबला-पतला ही, पर था वह बहुत चतुर और चालाक। 

उसके जन्म के समय जब उसकी माता की दाई ने उसके दुबले-पतले शरीर को देखा, तो उसे नहलाने के लिए घोड़े की नाल से छौंके गए गुनगुने दूध की माँग की, जिससे वह थोड़ा तगड़ा बने। माता-पिता ने उसके पालने में घोड़े की नाल और शेर का नाखून बाँध दिया, जिससे कि वह घोड़े जैसा फ़ुर्तीला और शेर जैसा बहादुर हो। नित्य उसे घी और शहद चटाया जाता कि वह गाय जैसा बुद्धिमान और मधुमक्खी जैसा परिश्रमी हो। 

बड़ा होने पर सुजान चला गया सात समुंदर पार, बनने को सिपाही देखने को दुनिया! इधर टोलापगलिया में होने लगी कुछ अजब-ग़ज़ब बातें, साँझ को गोधूलि में जब तलहटी के चरागाह से गाँव के मवेशी लौटते तो ’मलिच्छिन डायन’ उनके कुछ पशुओं को हाँक ले जाती। 

यह डायन तलहटी के जंगलों में छुपी रहती और ना जाने कैसे बस एक फूँक मारकर तगड़े से तगड़े बैल तक को ग़ायब कर देती। 

जब गाँव के किसान शाम के धुँधलके में उसे पशु हाँक कर ले जाते देखते तो डर से काँपने लगते और चक्कर खाकर गिर पड़ते। जब ऐसा बहुत समय तक होता रहा तो लोग कहने लगे:

बुढ़िया मलिच्छिन से रहना ख़ूब बचकर
ले जाएगी वह सारे मवेशी भगाकर
डालेगी जब भेंगी आँख वह तुम पर
देखना तुम भी तब गिरोगे वहीं मरकर। 

रात को किसान बड़े-बड़े अलाव जलाते कि मलिच्छिन जंगल से बाहर न आने पाए। लेकिन वह जब भी किसी किसान को अकेले पशुओं की निगरानी करता पाती तो एक फूँक से उसे बेहोश कर अपना काम कर जाती थी। रखवाला बेचारा जब सुबह होश में आता तो पशुओं को नदारद पाता। वह सिर पीट-पीटकर रोता कलपता। गाँव वाले पशुओं की खोज में जब जंगल में जाते तो उन्हें मलिच्छिन डायन के बालों के गुच्छे, बालों के काँटे और पैरों के निशान के सिवा कुछ भी ना मिलता! 

दिनोंदिन हालत बद से बदतर होती जा रही थी। हर समय बाड़े में बंद रहने की वजह से गायें सूखती, कमज़ोर होती जा रही थीं। खाल के ऊपर से उनकी पसलियाँ गिनी जा सकती थीं। पशुओं को चरागाह भेजने की हिम्मत किसी की न होती थी। कोई जंगल की ओर रुख़ भी न करता था, इसलिए जंगल में सारे कंद-मूल, फल यूँ ही पड़े-पड़े सड़ने लगे। मलिच्छिन डायन जानती थी कि भोले-भाले शांतिप्रिय लोग केवल टोलापगलिया में ही बसते हैं। इसलिए किसी और क़स्बे में जाकर वह मुसीबत में नहीं फँसना चाहती थी। 

पुरुष रात को चौराहों पर बड़े-बड़े अलाव जलाकर उसके इर्द-गिर्द बैठ जाते और स्त्रियाँ और बच्चे घरों में बंद हो जाते थे। 

सभी लोग मिलकर दिन भर विचार करते रहते कि क्या किया जाए? संध्या समय चौपाल में भी यही चर्चा रहती है। आख़िर यह तय किया गया कि ज़मींदार के पास चलकर मदद माँगी जाए, शायद वह कुछ सहायता करें। 

ज़मींदार साहब का मकान सबसे ऊँचाई पर था। हवेली के चारों ओर मोटी, ऊँची, गोलाकार चहारदीवारी थी। दीवाल के ऊपरी भाग में काँच के धारदार टुकड़े लगे थे। रविवार को सुबह-सुबह गाँव के सारे लोग ज़मींदार की हवेली के द्वार पर आ पहुँचे और फाटक खटखटाया। फाटक खुला। सभी लोग ज़मींदार की गोलाकार हवेली, जिसकी खिड़कियों पर सलाखें थी, के आँगन में पंक्ति बंद हो खड़े हो गए। आँगन में हवेली के किनारे-किनारे ज़मींदार के पहरेदार मूछों पर ताव देते खड़े थे। बरामदे में मख़मली सिंहासन जैसी दिखने वाली कुर्सी पर ज़मींदार साहब बैठे थे। उनकी काली, घनी, चमकीली दाढ़ी घुटनों तक लटक रही थी। दो सेवक उसको कंघी से सुलझा रहे थे। सबसे बुज़ुर्ग किसान हिम्मत करके आगे बढ़ा, “हुज़ूर हम अभागे लोग बड़ी आशा लेकर आपके पास आए हैं। जब हमारे मवेशी चरागाह में चरने जाते हैं तब मलिच्छिन डायन उन्हें उठा ले जाती है।” रोते, सिसकते दूसरे सभी किसानों ने हाँ में हाँ मिलाई और अपनी दुख भरी कहानी ज़मींदार को कह सुनाई। 

ज़मींदार चुप रहा। 

“हुज़ूर, हम आपसे बड़ी उम्मीद लगाए हुए हैं। इस बला का कोई उपाय बताइए,” बुज़ुर्ग किसान ने फिर हिम्मत करके कहा। ज़मींदार फिर चुप! 

बुज़ुर्ग आगे बोला, “मालिक हम यह सीनाज़ोरी इसलिए कर रहे हैं कि आप हमारी मदद करेंगे। आप अगर कुछ चौकीदार हमें दे दें, तो हमारे पशु फिर से चारागाह में जा सकेंगे।” 

ज़मींदार ने सिर हिलाया, “अगर मैं तुम्हें चौकीदार दे दूँ तो उनके साथ मुझे उनका कप्तान भी भेजना पड़ेगा।” 

आस लगाए किसान बडे़ ध्यान से सुन रहे थे। 

“लेकिन अगर मैं कप्तान को भेज दूँ तो शाम को मैं चौसर किसके साथ खेलूँगा?” 

सारे किसान घुटनों पर झुक कर निवेदन करने लगे, “रहम करिए हुज़ूर! हम सब बर्बाद हो जाएँगे।” 

ज़मींदार ने से फिर अपना सिर हिलाया और बोला: 

“ज़मींदार हूँ मैं, मालिक तुम सबका, 
देखी नहीं डायन मैंने
 कैसे यक़ीन करूँ मैं उसका“

ज़मींदार की ऐसी बात सुनकर ऊँघते हुए चौकीदारों ने अपनी बंदूकें उठाईं और नली किसानों की ओर तानकर धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। रुँआसे किसान चुपचाप धीरे-धीरे ज़मींदार के अहाते से बाहर निकल गए। सारे हताश, निराश किसान जब नगर चौक में पहुँचे, तब उसी बुज़ुर्ग, समझदार किसान ने कहा, "अब हमारे पास सुजान को बुलाने के सिवाय कोई और चारा नहीं है!”

तो किसानों ने मिलकर चिट्ठी लिखी, सुजान को भेजने को, सात समंदर पार के देश!! और तब एक शाम, जब रोज की तरह सारे किसान अलाव जलाकर बैठे थे, सुजान लौट आया!! ज़रा सोचो, गाँव वालों ने उसका स्वागत कैसे किया होगा? दूध, दही,  घी, शहद के मटके, यहाँ तक कि शराब की बोतलें तक उसे उपहार में दी गईं। 

लोगों के गले लगते-लगते बेचारा थक गया। 

“तुम आख़िर चले कहाँ गए थे? तुमने क्या-क्या देखा? काश! कि तुम जानते कि हम यहाँ कितने दुख उठा रहे हैं।” 

सुजान धैर्य से सब की बातें सुनता रहा, सब को ढाढ़स देता रहा। आख़िर में जब सब अपनी सुना चुके, तब सुजान ने आपबीती सुनाई। “सात समुंदर पार के देशों में मैंने देखी नरभक्षी टिड्डियाँ, रेगिस्तान में ऐसे लोग देखे जो अपने नाखून गज-गज भर लंबे रखते हैं और उनसे ज़मीन खोदकर पानी निकालते हैं। समुद्र में ऐसी मछलियाँ देखीं जो जूते-चप्पल पहन सब की मलिका बनना चाहती हैं। असल में मैंने देखी सत्तर बेटों की माँ, जिसके पास केवल एक पतीली खिचड़ी थी बस! चींटी जैसे छोटे और हाथी जैसे लोग मोटे लोग, दुबले-पतले लोग, लोग हँसते लोग, रोते लोग, पर कहीं भी मैंने नहीं देखे टोलापगलिया जैसे डरे हुए लोग।” 

ऐसा सुनकर सब लोगों ने लज्जा से अपने सिर झुका लिए। सुजान ने ऐसा कहकर मानो उनको कायर क़रार दे दिया था। उनकी दुखती रग पर मानो हाथ धर दिया था। लेकिन सुजान अपने लोगों से नाराज़ तो क़तई न था! उसने मलिच्छिन डायन की करतूतों का पूरा-पूरा ब्यौरा पूछा। सब सुनकर बोला "अब मैं तुम लोगों से तीन सवाल पूछूँगा और फिर आधी रात को बाहर निकल डायन को पकड़ लाऊँगा।” 

“चलो सुजान, पूछो हमसे पहला सवाल!” 
 
“ मेरा पहला सवाल नाई से है, इस महीने में तुम्हारे पास कितने लोग आए?” 

नाई बोला:

लंबी दाढ़ी छोटी दाढ़ी
खरखरी और नरम दाढ़ी, 
सीधी लट और घुँघरवाली
झटपट मैंने सब काट डाली

“मोची, अगली बारी तुम्हारी है, तुम्हारे पास कितने लोग जूते मरम्मत के लिए लाए?” 

“हाय-हाय” मोची बोला, 
“लकड़ी के जूते चमड़े के जूते
कीलें लगाकर मैंने गोंठे 
पर अब तो सब हो गए कँगले 
मरम्मत को भी मिले न जूते”

“अब तीसरा सवाल रस्सीवाले के लिए है, इस महीने तुमने कितनी रस्सी बेची?” 

 रस्सीवाला बोला:

जूट का रास्सा, मूँज की रस्सी
सूत की सुतली मैंने बेची
बाँह-सी मोटी, बाल सी पतली
मलाई सी नरम औ लोहे से तगड़ी
सब तरह की रस्सियाँ मैंने बेचीं। 

“ठीक है!” सुजान ने अलाव के पास अँगड़ाई लेते हुए कहा, “मैं कुछ घंटों के लिए सोने जा रहा हूँ, बहुत थका हूँ। आधी रात को मुझे जगा देना। तब मैं डायन की खोज में जाऊँगा!” ऐसा कह कर उसने अपनी टोपी अपनी आँखों पर रखी और खर्राटे भरने लगा। आधी रात तक सभी साँस रोके बैठे रहे कि कहीं सुजान की नींद न टूट जाए। आधी रात को सुजान ने करवट बदली, उठकर अँगड़ाई ली, शराब के तीन घूँट लेकर अलाव में थूके और बिना किसी की ओर देखे जंगल की तरफ़ चल दिया। 

सारे लोग अलाव के पास बैठे शोलों का धधकना, लपटों का लपकना और आख़िर में सबका बुझ कर राख हो जाना देखते रहे। और तब, सभी ने क्या देखा? सुजान तो किसी को घसीटता हुए लेकर चला रहा है! अरे यह भला है कौन? बाप रे!! यह तो रोता-छटपटाता, बार-बार दया की भीख माँगता, ज़मींदार है!! सभी हक्का-बक्का थे! 

”यह है डायन,” सुजान बोला, “और बाक़ी शराब कहाँ रखी है?” 

सभी किसानों की फैली आँखों के सामने ज़मींदार ज़मीन पर पड़ा ऐसे सिकुड़ता जा रहा था मानो जाल से बाहर लटकी हुई मकड़ी! 

”तुम में से कोई चोर नहीं हो सकता था क्योंकि तुम सब ने नाई से बाल कटाए थे। किसी के बाल झाड़ी में फँसने लायक़ नहीं थे। फिर तुमने बताया कि पैरों के निशान मिलते हैं, परंतु तुम सब तो ग़रीबी में नंगे पैर रहते हो!! चोर भूत भी नहीं हो सकता था क्योंकि भूत को मवेशी बाँधने के लिए रस्सियों की ज़रूरत क्यों पड़ती? अब तो बताओ शराब कहाँ रखी है?” 

काँपता हुआ बेचारा ज़मींदार अपनी उस लंबी दाढ़ी में छुपने की नाकाम कोशिश कर रहा था, जिसे सुजान ने, उसे झाड़ियों से खींचकर निकालते समय नोच डाला था। 

एक किसान ने धीरे से पूछा, “यह हमें घूर कर देखते हुए बेहोश कैसे कर देता था?” 

”वह तुम्हारे सिर पर गुदगुदी गदा से चोट करता था और तुम सुन पाते थे केवल सरसराहट, जागने पर होता था सिर में दर्द!” 

”और जूड़े में लगाने वाले काँटे जो मिलते थे?” दूसरे किसान ने पूछा। 

”यह उनसे अपनी दाढ़ी को अपने सिर पर ऐसे टिकाता था जैसे कि औरत के बाल होते हैं।” 

अब तक सारे लोग सुजान की बातें बड़े ध्यान से चुपचाप सुन रहे थे। जैसे ही सुजान बोला, “अब हम इसके साथ क्या करें?” 

लोग एक साथ चिल्ला उठे, “जला दो”, “इसे मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दो”, “इसको फाँसी पर लटका दो”, “खेत में बिजूका बना दो”, ”इस पर कुत्ते छोड़ दो”आदि-आदि। जितने मुँह उतनी बातें! 

”दया करो, मुझ पर दया करो,” ज़मींदार ने गिड़गिड़ाते हुए कहा। 

”इसे छोड़ दो,” सुजान ने कहा, “ यह तुम्हारे मवेशी वापस लाएगा, तुम्हारी गौशालाएँ साफ़ करेगा। इसे रात में जंगल में जाने की आदत हो गई है, तो यह सब के लिए ईंधन बीन कर लाया करेगा। बच्चों को समझा दो कि ज़मीन पर पड़े बालों के काँटे कभी न उठाएँ, क्योंकि वह तो मलिच्छिन डायन के हैं न! इसके बाल हमेशा उलझे ही रहेंगे।” सभी ने सुजान की बात मान ली। 

और फिर सुजान जल्दी ही निकल गया अनदेखी दुनिया की सैर को। कभी एक लड़ाई लड़ता, तो कभी दूसरी। ये लड़ाइयाँ तब तक चलती रहीं जब तक यह कहावत न बन गई:

”योद्धा सिपाही बड़ा कठिन जीवन जीते हैं 
भूसे जैसा भोजन करते, ज़मीन पर सोते हैं, 
तुम बातों की तोप चलाओ, मस्ती में झूम 
तोप दगेगी ज़ोर से, बम-बम-बम-बूम॥” 

यह कहानी यहीं तक। फिर मिलेंगे तो सुनेंगे एक और कहानी, मेरी क़लम की ज़ुबानी!! 

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