बिंदु और रेखा

15-03-2023

बिंदु और रेखा

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 225, मार्च द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

इस लेख का शीर्षक पढ़कर कहीं आपको यह तो नहीं लग रहा है कि मैं भारतीय चलचित्र जगत की अपने समय की प्रख्यात एक खलनायिका और एक नायिका की बात करने जा रही हूँ? 

जी, ऐसा बिल्कुल नहीं है। मैं तो आज इन दो गणितीय चिह्नों के बारे में बात करूँगी जिन की परिभाषा हम रेखागणित की पहली कक्षा में पढ़ते हैं, ‘बिंदु किसी समतल पर स्थित वह गणितीय, सांकेतिक चिह्न है जिसकी लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई नहीं नापी जा सकती’, याद है न यह बिन्दु की परिभाषा आपको? बिंदु की लंबाई, चौड़ाई तो नहीं नापी जा सकती परन्तु यही बिंदु यदि दशमलव के रूप में हो तो संख्याओं में लगा हो तो उनके मान को दस गुना बढ़ाता या घटाता चलता है। 

बिंदु के बाद हमें ‘रेखा’ की परिभाषा भी पढ़ाई जाती है, ‘दो बिंदुओं के बीच की न्यूनतम दूरी को ऋजु या सरल रेखा कहते हैं। रेखा में केवल लंबाई होती है। साथ ही यह भी कि रेखा अनंत होती है’। रेखाएँ कई प्रकार की होती हैं तिर्यक रेखा, समांतर रेखा, सरल रेखा वक्र रेखा आदि आदि। रेखा की एक और परिभाषा है, ‘बिंदु की गति से रेखा बनती है’। 

अब जब यह कहा गया कि ‘बिंदु की गति ही रेखा है’ तब तो विचार करने पर यह लगा कि “बिंदु ही रेखा है और रेखा भी बिंदु ही हैं।” इस परिभाषा को पढ़ते ही मेरे विचारों को गति मिली और मैं इस प्रवाह में बहती चली गई। मुझे समझ में आया कि वर्ण और अक्षर भी रेखाएँ ही हैं! जब किसी तल पर लेखनी ने एक बिंदु का सांकेतिक गणितीय चिह्न बनाया और वह गति करने लगा, तब ऋजु, वक्र, तिर्यक रेखाओं से वर्णों के चिह्न बने, और इन्हीं वर्णों के माध्यम से हम मानवता का इतिहास, साहित्य, विज्ञान सहस्राब्दिओं से सँजोते चले आ रहे हैं, है न यह रेखाओं का ही चमत्कार! यदि वर्णों की रेखाएँ परिचित हों तो हमें साहित्य, इतिहास, भूगोल, गणित आदि सब की कथा सुनाती हैं परन्तु अपरिचित रेखाओं को देख हम मूढ़ ही रह जाते हैं, कुछ लिपियों की रेखाएँ शताब्दी से चुपचाप हमसे परिचय पाने के लिए व्याकुल हैं परन्तु मानव का ज्ञान उनकी आवाज़ सुन पाने में असमर्थ है। 

ज्यामिति की कक्षा में ये रेखाएँ त्रिभुज चतुर्भुज, कोण, पैराबोला और भी न जाने क्या-क्या आकृतियाँ बनाकर मानव को पृथ्वी और अन्य ग्रहों की दूरी, उनकी स्थिति आदि का ज्ञान कराती है। नन्ही रेखाओं से बने धन, ऋण, गुणन, भाजन के चिह्न अंकों के बीच में सम्बन्ध जोड़ने या तोड़ने का काम करते हैं। यदि बिंदु ने चलकर रेखा का रूप न लिया होता तो क्या मानव चन्द्रमा पर जा सकता था? अपनी भूमि के गोल के बारे में हम ग्लोब का सहारा लेते हैं और इस ग्लोब पर तो रेखाओं की ऐसी भरमार है कि आप चकित रह जाएँ! पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव को मिलाने वाली देशांतर रेखाएँ ग्लोब पर ऐसी खींची हैं कि वे उसे एक खरबूजे का आकार दे देती हैं। माना कि ये रेखाएँ काल्पनिक हैं परन्तु बचपन में तो यह वास्तविक लगती थीं, कई बार मैंने इन्हें अपनी पृथ्वी पर ढूँढ़ने की कोशिश भी की है। यदि इन अक्षांश और देशांतर रेखाओं की कल्पना ना की गई होती तो क्या मानव की इतनी लंबी यात्राएँ बिना किसी कष्ट के सम्भव हो पातीं? पृथ्वी पर कहाँ कैसा मौसम है कहाँ दिन और कहाँ रात है सबका ज्ञान के रेखाएँ ही तो कराती हैं। मानचित्र ऊपर तो यह रेखाएँ न जाने कितने रूप धारण करती हैं, जल और स्थल का विभाजन, देशों की सीमाएँ, प्रदेशों की सीमाएँ नदियाँ सड़कें इन्हीं रेखाओं से तो प्रदर्शित की जाती हैं। 

भूगोल की कक्षा से निकलकर यदि हम कला की कक्षा में जाएँ तो यहाँ भी ये रेखाएँ कमाल करती हुई दिखलाई पड़ती हैं। एक चित्रकार से बढ़कर इन रेखाओं का मोल भला और कौन जान सकता है, जो रेखाओं के उतार-चढ़ाव से शरीर की आकृति और भावों को काग़ज़ के पन्नों पर उतार देता है। किसी कुशल चित्रकार की तूलिका से बनी रेखाएँ एक ही चित्र को कभी युवती और कभी प्रौढ़ा बना सकती हैं। हम रेखाओं की बात कर रहे हों और हथेली की रेखाओं की बात रह जाए तब तो अनर्थ ही हो जाएगा। कवि ने तो हाथों की रेखाओं को मनुष्य का जीवन और भाग्य ही बना दिया है—रेखाओं का खेल है मुक़द्दर, रेखाओं से मात खा रहे हो! 

हथेली में खींची रेखाएँ हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा, जीवन रेखा आदि नामों से जानी जाती हैं और ये मनुष्य के शरीर के साथ-साथ उसकी मानसिक दशा का भी परिचायक समझी जाती हैं। यदि ऐसा न होता तो बड़े-बड़े हस्तरेखा तज्ञ अपनी आजीविका कैसे पाते? हाथों की रेखाओं से भाग्य कितना पढ़ा जा सकता है यह तो मुझे मालूम नहीं मगर रेखाओं से भरा हाथ यह ज़रूर स्पष्ट करता है कि मनुष्य श्रमजीवी है। हथेली की रेखाओं का भेद जानने के लिए तो आपको किसी ज्योतिषी के पास जाना पड़ेगा परन्तु चेहरे की रेखाएँ तो अपनी कहानी स्वयं कहती हैं। माथे पर रेखाओं से बल पड़े हों तो आप सहज ही जान लेते हैं कि व्यक्ति ग़ुस्से में है, आँखों के किनारे की रेखाएँ, आपने कितने बसंत देखे हैं, इसकी सूचना देती हैं। होंठों के किनारे की रेखाएँ जिन्हें अंग्रेज़ी में ‘लाफ़ लाइन’ कहते हैं मनुष्य के विनोद प्रिय स्वभाव का संकेत देती हैं। समय के हाथों मानव के चेहरे पर खींची इन रेखाओं को मिटाने के लिए कितने प्रयत्न किए जाते हैं, वह किसी से छुपा नहीं है। न जाने कितने सौन्दर्य, प्रसाधन, न जाने कितने प्लास्टिक सर्जन इन रेखाओं को मिटाकर, काल के ऊपर विजय पाने का प्रयत्न करते हुए दिखलाई देते हैं। जब हम मनुष्य के शरीर की रेखाओं के बारे में बात कर रहे हैं, तो भला बिंदुओं की उपेक्षा कैसे की जा सकती है? बच्चों को बुरी नज़र से बचाने के लिए काजल का बिंदु यदि रक्षा कवच बनता है तो वहीं गोरे गालों का काला तिल रूपी बिंदु लोगों के दिल भी चुराने की क्षमता रखता है! साथ ही यह भी सोचिए कि यदि गोरे चेहरों पर यह काले बिंदु अधिक उगाएँ तो इन्हें मिटाने के लिए भी सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली कम्पनियाँ तत्पर रहती हैं, जो ऐसी क्रीम और लोशन बनाती हैं जो त्वचा को हर दाग धब्बे से मुक्त करते हैं। गोर के माथे का लाल बिंदु तो इतना चतुर है कि बड़े-बड़ों की आँखों की नींद भी चुरा लेता है, “तेरी बिंदाया रे, हाय हाय . . . । 

बिंदु की गति से उत्पन्न हुई ये रेखाएँ जो ऋजु, वक्र, तिर्यक, समान्तर, कोण, वर्ग, आयत और भी न जाने कितने रूप लेती हैं, एक जाल रच हमें जीवन भर उलझाए रखती हैं। एक रेखा जो पौराणिक काल से अभी भारत वासियों के मानस पर अंकित है वह है ‘लक्ष्मण रेखा’ जिसे पार करने पर सीता को दुस्सह दुख झेलना पड़ा और जिसे, सीता को विवश कर, पार करवाने की धृष्टता करने के कारण रावण जैसे महाबली को काल कवलित होना पड़ा! त्रेता युग में जो रेखा लक्ष्मण के बाण की नोक से धरती पर खींची गई थी, वैसी ही “लक्ष्मण रेखा” हम इस कलियुग में काग़ज़ की पुड़िया में बंद सफ़ेद रसायन से धरती पर खींचते हैं और तिलचट्टों से अपनी रक्षा करते है। 

आँगन के बीच में खींची रेखा यदि परिवारों में दरार बनाती है, तो सन्‌ उन्नीस सौ सैंतालीस में नक़्शे पर खींची गई एक रेखा ‘रेडक्लिफ़ लाइन’ असंख्य जीवन लील गई और आज तक भी ख़ून की प्यासी है। ‘मैक मोहन रेखा’ कितने वीर जवान खा चुकी है, हम सब जानते हैं! 

रेखाओं का बखान कहाँ तक करें, गायक ने चाहे जिस रेखा के बारे में गाया हो, “रेखा ओ रेखा, जब से तुझे देखा,” परन्तु मेरे लिए तो यह उक्ति सही बैठेगी, ”रेखा ओ रेखा जब से तुम्हें सोचा, रेखाओं के जाल में उलझ उलझ कर मैं रह गई।” और यह सोचती रह जाती हूँ कि यदि लेखनी की नोक से बिंदु और बिंदु की गति से रेखा ना बनी होती तो हमारी मानव सभ्यता कहाँ होती?  

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