यह बिंदिया मेरी
सरोजिनी पाण्डेय
भारतीय जीवन पद्धति के अनुसार प्रत्येक मानव की औसत आयु सौ वर्षों की मानी जाती है, जिसे चार आश्रमों में विभाजित किया गया है। आरंभ के पचीस वर्ष ब्रह्मचर्य के माने जाते हैं, जिसमें जीवन यापन के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की विद्या सीखना और श्रम करके उनमें कुशलता प्राप्त करना हमारा धर्म होता है। अगले पचीस वर्ष हम अब तक की सीखी गई विद्या और कुशलता का उपयोग कर धनोपाजर्न करते हैं, वंश संवर्धन करते हैं और अगली पीढ़ी को संसार चलने योग्य बनाते हैं। पचास वर्ष की आयु हो जाने के बाद, वानप्रस्थ आश्रम में समाज के लिए और अपने स्वयं को जानने पहचानने के। लिए समय मिलता है। अब हमें तीर्थाटन, देशाटन और आध्यात्मिकता की ओर ध्यान देना चाहिए, ऐसा। हमारी ‘आश्रम व्यवस्था’ निर्धारित करती है। सामान्यतः हम अपने आसपास देखते भी यही हैं कि गृहस्थी की ज़िम्मेदारियाँ कम हो जाने पर लोग सामाजिक आयोजनों में अधिक साझेदारी करते हैं। ईश्वर की भक्ति और अपनी परंपराओं की ओर अधिक झुकाव होने लगता है। हम अपनी जड़ों की ओर लौटने लगते हैं, पहले का खाना-पीना, पहनावा, रीति-रिवाज़ अधिक प्रिय और लाभकारी लगते हैं। उम्र भर ऐन्टीबायोटिक और पेन किलर्स में विश्वास करने वाले लोग पंचारिष्ट, अश्वगंधा, च्यवनप्राश का सेवन करते हुए पाए जाते हैं। सोते समय भी पैंट पहनने वाले लोग कुर्ता-पाजामा पहनकर आयोजनों में भाग लेते हुए दिखलाई पड़ते हैं।
गृहस्थ जीवन में जब हमने भी अपनी अगली पीढ़ी को अपना घर-संसार चलाने योग्य बनने की आयु तक पहुँचते और समर्थ होते देख लिया, तब गृहस्थ आश्रम के अपने सपनों को पूरा करने की और क़दम बढ़ाया, सपना था संसार देखने का, देश-विदेश की सैर का।
मैं स्वभाव से बहुत कुछ परंपरावादी ही हूँ, परन्तु कुछ ऐसा हुआ कि जब हमने दुनिया के पश्चिमी देशों को देखने की तैयारी शुरू की, तब मैंने उसी ढंग की कुछ पोशाकें ले लीं। आजकल सामान्य मध्यम वर्ग के पुरुष वर्ग में दैनिक जीवन की पोशाक पैंट-कमीज़, जींस-टी-शर्ट आदि वैश्विक पोशाक है। परन्तु महिलाओं की पोशाक में हमें देश के अनुसार विविधता अभी भी कुछ अंशों में दिखलाई पड़ती है। मैंने यह निश्चय किया कि अपनी भूमि पर तो मैं भारतीय परिधान ही पहनूँगी परन्तु ‘व्हेन यू आर इन रोम, डू ऐज़ रोमनस् डू’ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए विदेश में, विदेशी कपड़े पहनूँगी। अब जब विदेशी कपड़े हों, तो क्या उनके साथ माथे पर लगी बिंदी ‘आधा तीतर आधा बटेर’ नहीं लगेगी? सो बिंदी को भी छुट्टी दे दूँगी। पिछले कुछ वर्षों में जब ऐसी यात्राओं पर जाना हुआ तो मैं अपनी योजना को मूर्त रूप देती रही। परन्तु उम्र का असर भला टाला जा सकता है? अभी पिछले महीने एक और विदेश यात्रा, का अवसर मिला। यह कार्यक्रम हमारे पुत्र-पुत्री ने अपने परिवारों के साथ हम दोनों को लेकर, तुर्किए जाने की बनाई थी। अब तक मेरी मानसिकता पूरी तरह वानप्रस्थी हो चुकी है। मैंने निश्चय किया कि देश में रहूँ या विदेश में, भारतीय परिधान पहनूँ या विदेशी, भारतीय स्त्री की पहचान, चूड़ी और बिंदी, मैं सदैव धारण करूँगी। अब चूड़ियाँ तो कलाई में होती हैं और स्त्री-पुरुष, देसी; विदेशी सभी में ‘ब्रेसलेट’ पहनने वाले मिल जाते हैं, फिर माथे की अपेक्षा हाथ पर ध्यान भी कम ही जाता है, और चेहरा तो हमारी पहचान ही ठहरी। इसलिये मुझे ऐसा लगता है कि माथे पर लगी बिन्दी शायद शुद्ध भारतीय स्त्री होने की पहचान है। ऐसा मैं इसलिए कह पा रही हूँ क्योंकि इसका साक्षात् अनुभव मुझे हाल की इस तुर्किए-यात्रा के समय हुआ।
तुर्की में शाकाहारी भारतीय भोजन हर जगह मिलना आसान नहीं है। इस देश के स्थानीय व्यंजनों में शुद्ध शाकाहार मिल पाएगा, इसमें हमें संदेह था और हम इस्तांबुल के ‘आकेडोकी’ मॉल में भोजन की तलाश में घूम रहे थे। रमजा़न का महीना, तुर्की में मुस्लिम समुदाय की बहुलता और सूर्यास्त का समय, कुल मिलाकर मॉल में रौनक़ और गहमागहमी का माहौल, सारे रेस्तरां भरे-भरे, ऐसे में क्या किसी रेस्टोरेंट के कर्मचारी के पास समय होगा कि हमें शान्ति से बता सके कि शाकाहारी भोजन में क्या-क्या उपलब्ध है? इसी समस्या से हम जूझ रहे थे कि सामने एक इतालवी रेस्टोरेंट ‘इटालियानो’ दिखाई पड़ा। पिज़्ज़ा एक इतालवी व्यंजन है और इसके बारे में हमारी जानकारी के अनुसार इसे पूर्ण शाकाहारी भी बनाया जा सकता है। इससे पहले कि हम कुछ निश्चय करते एक गोरा आदमी, रेस्टोरेंट का गणवेश जिस पर ‘इटालियानो’ नाम उकेरा गया था, पहने हुए हमारे पास आया और मेरी बिंदी की ओर इशारा करता हुआ बोला, “इंडियन? वेजिटेरियन?” हमारे हामी भरने पर रहस्यमयी मुस्कान बिखेरता, वह हमें बताने लगा कि पिछले दस वर्षों से वह इटली से आने के बाद यहाँ इस्तांबुल में रेस्तरां खोल कर रह रहा है। दुनिया के बहुत सारे देशों के भोजनों की जानकारी उसे है और वह हमारे देश भारत को देखने और जानने की तीव्र इच्छा रखता है। मैं तो मानो यह सुनकर गद्गद् ही हो गई, मेरी बिंदिया केवल मेरे देश का नहीं, हमारे भोजन की प्राथमिकता का भी परिचय दे रही थी! यहाँ हमने भरपेट शाकाहारी पीज़्ज़ा का आनंद लिया, बिना किसी संशय और अपराध बोध के।
इसी यात्रा में मेरी बिंदिया से संबंधित एक और घटना हुई—हम इस्तांबुल के ग्रैंड बाज़ार (कापाली कार्सी/छत से ढका बाज़ार) में घूम रहे थे। चार हज़ार से अधिक दुकानों वाला यह बाज़ार दुनिया के सबसे पुराने, छत से ढके बाज़ारों में एक है, और प्रतिदिन ढाई लाख से पाँच लाख लोगों को आकर्षित करता है। इस बाज़ार से सटा हुआ ही मिसिर बाज़ार है, या यूँ भी कह सकते हैं कि ग्रैंड बाज़ार की ही एक गली मिसिर बाज़ार कहलाती है, जो शायद दुनिया का मसालों का सबसे बड़ा बाज़ार हो। इतनी तरह के साबुत, कुटे, ताज़े, हरे मसाले और मेवे यहाँ मिल रहे थे कि देख-देकर आप बौरा जाएँ!
यूँ तो हम समझते हैं कि लेखनी में हर ज्ञानेन्द्रिय से प्राप्त अनुभूति को व्यक्त कर पाने की क्षमता है, परन्तु ईश्वर की दी हुई हर ज्ञानेंद्रिय इतनी विशिष्टता लिए हुए है कि उसके अनुभव को शत-प्रतिशत व्यक्त कर पाना वाणी अथवा लेखनी के वश में नहीं है। किसी शायर ने कहा भी है “न ज़ुबाँ को दिखाई देता है, न निगाहों से बात होती है“ मिसिर बाज़ार में रंगों, गंधों-सुगंधों की विविधता भी उन्हीं अवर्ण्य अनुभवों में से एक है। तो इस रंगो-बू के बाज़ार में हम घूम रहे थे, सहसा एक प्रौढ़ आयु, गेहुँए रंग और सामान्य क़द-काठी का पुरुष हमारे पास आया और हमारे कानों को प्रिय लगने वाला शब्द ‘इंडियन’ बोला और उसका इशारा मेरे माथे की ओर था! अब इस शब्द को सुनकर भला हमारा पूरा परिवार कैसे न खिल उठता? वह हमें अपनी दुकान में ले गया जो कई तरह के मेवों की दुकान थी। हमारे सुपुत्र, जिन्होंने इस तुर्की यात्रा की योजना बनाई थी, अपने साथ अमेरिका ले जाने के लिए केसर ख़रीदना चाहते थे सो हम इन अब्दुल साहब की दुकान में चले गए। उनके परदादा जी किसी ज़माने में बांग्लादेश (उस समय का हिंदुस्तान) से यहाँ आए थे। वह आज भी भारत की कश्मीरी केसर का व्यापार करते हैं। उनके अनुसार यह दुनिया की सबसे अच्छी केसर होती है, इटली स्पेन और अफगा़निस्तान की केसर का भी वे व्यापार करते हैं, लेकिन कश्मीरी केसर जैसी कोई और नहीं!! अब यह बात हमारी बिंदी के कारण थी या फिर वास्तविकता, यह तो मैं दावे के साथ नहीं कह सकती, मैं केसर की व्यापारी जो नहीं हूँ!
अब्दुल ने अपनी मीठी बातों और व्यवहार से हमें चालीस ग्राम केसर बेच दी और साथ ही दो किलो बहुत मीठे, ख़ूब बड़े-बड़े, सूखे अंजीर भी। हम जब आज भी अंजीर खाते हैं तो अब्दुल की शक्ल आँखों में और उसकी आवाज़ कानों में आती है। यह मेरी बिंदिया की ही तो करामात है ना!
आप इस्तांबुल की सैर को गए हों और बॉस्फोरस जल डमरू मध्य में नौका विहार ना करें तो यात्रा अधूरी ही रहेगी। यह जल डमरू मध्य शहर को दो भागों में विभक्त करता है। एक ओर ईसाई संस्कृति और दूसरी और इस्लामी संस्कृति की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। बोस्फोरस ज.ड.म. काला सागर और मरमरा सागर को जोड़ता है और एशिया और यूरोप महाद्वीपों को अलग करता है। तुर्की यात्रा के दौरान हम भी शाहज़ादे का द्वीप (प्रिंसेज़ आइलैंड) गए जहाँ हमने कुछ घंटे पैदल चहल क़दमी करने और बाज़ार में घूमने की योजना बनायी गयी थी।
मुझे इत्र-सुगंध आदि बहुत प्रिय लगते हैं। घूमते-घूमते सड़क की दूसरी ओर एक इत्र फ़रोश की दुकान दिखाई पड़ी। मैं और मेरी बिटिया उस ओर चले। दुकानदार ने हाथ जोड़कर ‘नमस्ते’ कह कर हमारा स्वागत-अभिवादन किया और फिर एक खुली मुस्कान के साथ ‘इंडियन’ कहकर मेरी बिंदी की ओर इशारा किया। यह सज्जन सीरिया के मूल निवासी निकले, जिन्हें हमारे देश के बारे में इसलिए कुछ जानकारी है क्योंकि सुगंधि का निर्यात करने वाला भारत एक प्रमुख देश है। सुगंधियों का उत्पादन तो भारत में हो जाता है लेकिन उनका भिन्न-भिन्न अनुपातों में सम्मिश्रण, उनका ‘एअरोसोल’ बनाना, पैकिंग इत्यादि का काम आयातक देश अपनी इच्छानुसार स्वयं करता है। ‘हुरर्म सुल्तान’ नामक एक ख़ुश्बू मुझे बहुत पसंद भी आई, परन्तु तुर्किए की मुद्रा लीरा हमारे पास इतनी नहीं थी कि हम उसका मूल्य चुका पाते और डॉलर लेने को वह सज्जन तैयार न थे। सो सौदा पटा नहीं, बस ‘मेरी बिंदिया’ के कारण थोड़ी बातचीत, थोड़ा ख़ुश्बू-कॉफ़ी का सूँघना-सुँघाना आवश्यक हो गया। कुछ देर के लिए तन-मन दोनों महक गए।
अभी तक मैंने अपनी बिंदी से जुड़ी जितनी घटनाएँ बताईं, वे सभी व्यापारियों और इस्तांबुल शहर से जुड़ी थीं हमने, तुर्किए आने वाले सैलानियों में सर्वाधिक लोकप्रिय, दो शहरों को देखने की योजना बनाई थी—इस्तांबुल और कैपाडोकिया।
इस्तांबुल किसी समय में समुद्री व्यापार का संसार का सबसे बड़ा और प्रमुख केन्द्र था और संयोग देखिए कि मेरी बिंदी के बारे में मुझसे बात करने वाले सभी व्यापारी ही थे!
इस बार हम कैपाडोसिया या कैपाडोकिया में थे, जो भूमिगत शहरों और ज्वालामुखी के लावा से बनी चट्टानों के विभिन्न, और विचित्र आकारों, और उनमें बनी गुफ़ाओं-गह्वरों के लिए जगत प्रसिद्ध है। इतिहास गवाह है कि मुसलमानों के आक्रमण और उनके धर्म-युद्ध (जिहाद) से बचने के लिए ईसाइयों ने इन भूमिगत शहरों और चट्टानों में बने प्राकृतिक कक्षों में वर्षों शरण ली थी। हम इसी घाटी की सैर कर रहे थे। यहाँ ‘ऊँचासारी’ नामक स्थान पर ‘एल नज़र चर्च’ या कलासी है जो चट्टान के अंदर बना हुआ बहुत बड़ा हॉल है। कभी ईसाइयों ने इसे गिरजाघर-चैपल की तरह प्रयोग किया था। यहाँ देश-विदेश के सैलानियों का हुजूम हर समय ही दिखाई पड़ता है। ऊँचे-नीचे रास्तों और चट्टानों में चढ़ते-उतरते थकने के बाद मैं एक जगह बैठकर सुस्ता रही थी, परिवार के और लोग आसपास की जगहों की सैर कर रहे थे। तभी मेरे सामने से चार-पाँच किशोरियों का एक दल गुज़रा, इस दल की एक किशोरी ने मेरी ओर कई बार मुड़–मुड़कर देखा। उसके इस तरह देखने से मैं थोड़ी असहज हो उठी। जब वह दल आगे चला गया तो मैं भी प्रकृतस्थ हुई। तभी अचानक वही किशोरी दौड़ती हुई मेरी ओर, मेरे बहुत निकट आई और एक ही साँस में, तेज़ी से बोली, “यू आर इंडियन—आई लाईक योर बिंदी, आई लव इंडिया, आई विल कम टू इंडिया,” इतना कहकर वह उतनी ही तेज़ी से दौड़ती हुई लौट भी गई। मैं जब तक कोई प्रतिक्रिया दूँ, वह दौड़ती हुई अपने दल से जा मिली और दूर से ही हाथ हिलाकर अलविदा का संकेत किया, मेरे हाथ भी स्वभावतः ‘बाय-बाय’ की मुद्रा में उठ गए।
इस एक ही यात्रा में अपनी परंपराओं का पालन करने के कारण जो सुखद अनुभव मुझे हुए उनसे मुझे विश्वास हो गया है कि अपनी परंपराओं, अपने प्राचीन गौरव के प्रति यदि हम गौरव अनुभव करते हैं तो संसार के सभी लोग उनका आदर करेंगे।
इस संसार में सभी अपनी एक पहचान बनाना चाहते हैं, सभी लोग ‘सेलिब्रिटी’ तो बन नहीं सकते, परन्तु यदि हम अपनी अस्मिता के कारण पहचाने जाते हैं तो इससे ही हमारा जन्म सफल हो जाता है। अपनी नज़र से स्वयं को देखना ही तो ‘आध्यात्मिकता’ है, और वानप्रस्थ में हमारा कर्त्तव्य यही है। मैं अपने ‘आश्रम’ का कर्त्तव्य शायद ठीक से पालन रही हूँ! आपकी क्या राय है? क्या आप मुझे बताएँगे?
1 टिप्पणियाँ
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भारतीय परंपराओं के गौरव से ओतप्रोत करता आलेख। हार्दिक आभार और बधाई
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