भोले की तक़दीर

01-08-2022

भोले की तक़दीर

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 210, अगस्त प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

मूल कहानी: ल् लिंग्वाज़ियो डेग्ली एनिमाली; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (एनिमल स्पीच); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय


प्रिय पाठक, इस अंक की लोक कथा में आपको मानव-जीवन में प्रकृति के अन्य जीवों की उपयोगिता का महत्त्व दिखाई देगा, साथ ही अपराध-बोध से शारीरिक व्याधि का सम्बन्ध भी। मानवीय चेतना की सहज सार्वभौमिकता को ध्यान में रख इस छोटी सी कथा का रसास्वादन करें:

 

एक धनाढ्य सौदागर का एक बेटा था, नाम था—भोला। नाम तो था ‘भोला’ परन्तु था वह बहुत चतुर, हाज़िर जवाब और तीव्र बुद्धि। उसकी कुशाग्र बुद्धि को पहचान कर सौदागर ने उसे एक अति विद्वान गुरु के विद्यालय में शिक्षा-दीक्षा के लिए भेज दिया, जहाँ वह संसार की कुछ भाषाएँ और दुनियादारी सीख सके। कुछ वर्षों तक शिक्षा ग्रहण करके भोला अपने घर वापस आ गया। 

एक शाम को जब पिता-पुत्र बाग़ीचे में चहलक़दमी कर रहे थे, तब अचानक गौरैयाँ इतना शोर करने लगीं कि अपनी बात ख़ुद को भी सुनाई देनी बंद हो गई। सौदागर ने अपनी उँगलियाँ कानों में डालते हुए कहा, “हर शाम को ये गौरैयाँ इसी तरह मेरे कानों के पर्दे फाड़ती हैं।” 

भोला बोला, “पिताजी क्या मैं आपको बताऊँ कि वे क्या कह रही है?” 

पिता ने बेटे को हैरानी से देखते हुए कहा, “तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि ये गौरैयाँ क्या कह रही हैं? तुम ज्योतिषी तो हो नहीं!”

“मैं ज्योतिषी तो नहीं हूँ, लेकिन मेरे गुरु जी ने मुझे पशु-पक्षियों की भाषा समझना सिखाया है।”

“ओह! तो तुम्हारी शिक्षा में लगा मेरा सारा धन पानी में बह गया?” सौदागर तड़प कर बोला, “मैंने तुम्हें मनुष्यों की भाषाएँ, उनकी चतुराइयाँ सीखने, समझने के लिए भेजा था, न कि बेज़ुबान जानवरों की बोली!”

“पशु-पक्षियों की बोली समझना बहुत कठिन है पिताजी, इसलिए गुरु जी ने मुझे सबसे पहले वही सिखाया,” भोला विनय पूर्वक बोला। 

उसी समय एक कुत्ता वहाँ आकर ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगा। भोले ने पिता से पूछा, “क्या मैं बताऊँ कि यह कुत्ता क्या कह रहा है?” 

“बिल्कुल नहीं, मैं इन गूँगे पशुओं की भाषा के बारे में एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता। हाय, हाय! अपना धन मैंने कहाँ बर्बाद कर दिया!” सौदागर ने अपना सिर पीट लिया . . . कुछ देर में टहलते हुए, वे दोनों एक खाई के पास से गुज़रे तो उन्होंने मेंढकों की टरटराहट सुनी। सौदागर फिर बड़बड़ाया, “मेंढकों की इस टर्र-टर्र से मुझे कितनी चिढ़ है, यह मैं बता नहीं सकता!” 

भोले से फिर न रहा गया, वह बोल ही तो उठा, “पिताजी मैं बताता हूँ कि ये मेंढक क्या कह . . .” अभी वाक्य पूरा भी न हुआ था कि सौदागर गरजा, “तुम और तुम्हारा गुरु, दोनों भाड़ में जाओ। यमदूत तुम्हें उठा ले जाएँ!”

अपने धन की बर्बादी और पशु-पक्षियों की भाषा को जादू-टोने से जुड़ा हुआ समझकर सौदागर विक्षिप्त हो गया था। 

घर पहुँच कर, रात में, उसने अपने दो विश्वासपात्र नौकरों को बुलाया और उन्हें अगली प्रातःकाल के लिए विशेष निर्देश देकर सोने चला गया। 

भोला को भोर में ही उठा दिया गया। एक नौकर बग्गी में उसके साथ बैठ गया और दूसरा कोचवान की जगह पर चाबुक लेकर जा बैठा। गाड़ी तेज़ी से चल पड़ी। भोले को समझ में नहीं आ रहा था कि वे कहाँ जा रहे हैं! लेकिन उसका ध्यान घर के उन पुराने नौकरों की ओर ज़रूर गया, जिनकी गोद में खेल कर वह बड़ा हुआ था। उनकी आँखें लाल और सूजी हुई थीं। 

“हम कहाँ जा रहे हैं?” भोले ने पूछा, “आपकी आँखें सूजी हुई क्यों है?” 

लेकिन सेवक ने कोई उत्तर नहीं दिया। तभी बग्गी में लगे घोड़े हिनहिनाने लगे। 

भोले ने सुना, एक घोड़ा कह रहा था, “कितने अभागे हैं हम, जो अपने छोटे मालिक को मौत के मुँह में ले जा रहे हैं।” दूसरे ने कहा, “कितना क्रूर और पागल है हमारा मालिक, इस बेचारे का बाप!”

“तो आप लोगों से मुझे दूर ले जा कर मार डालने को कहा गया है?” 

दोनों सेवक काँप उठे, “आपने कैसे जाना बाबू?”

“हमारे घोड़े यही कह रहे हैं,” भोले ने कहा, “मुझे तुरंत मार दो, मुझे मौत का इंतज़ार करने की सज़ा तो कम से कम ना दो!”

“हम में तुम्हें मार सकने की हिम्मत नहीं है बाबू, हमने तुम्हें गोदी में खिलाया है!” दोनों सेवकों ने रोते हुए कहा। 

अभी वे बात कर ही रहे थे कि गाड़ी का पीछा करते हुए आने वाला, भोले का पालतू कुत्ता भौंकने लगा। 

भोले ने ध्यान से सुना, “मैं अपने छोटे मालिक के लिए अपनी जान निछावर कर दूँगा!” कुत्ता कह रहा था। 

“मेरे पिताजी कितने भी क्रूर हों, फिर भी मुझे प्यार करने वाले दूसरे कई लोग हैं!” भोला गद्‌गद्‌ स्वर में बोला, “जैसे तुम मेरे प्यारे सेवको! और मेरा प्यारा कुत्ता, जो मेरे लिए अपनी जान देने को तैयार है!” 

सेवकों ने धीरज धरकर कहा, “तब तो हम कुत्ते को मार कर, उसका दिल निकाल कर मालिक को दिखा देंगे! छोटे मालिक, आप अपने प्राण बचाकर भाग जाइए। हम घोर पाप से बच जाएँगे।” दोनों सेवकों ने भोले को छाती से लगाकर प्यार किया और भोले ने अपने प्यारे कुत्ते को अलविदा कहा, और फिर अनजानी राहों पर चल पड़ा। 

चलते-चलते वह एक बड़े किसान के बड़े-से घर के सामने जा पहुँचा। रात हो रही थी, उसने आश्रय माँगने के लिए द्वार खटखटाया, किसान परिवार ने ख़ुशी-ख़ुशी भोला को भीतर बुला लिया। जब सब लोग खाना खाने बैठे, तभी बाहर एक कुत्ता भौंकने लगा। भोले ने खिड़की के पास जाकर ध्यान से सुना और बोल उठा, “जल्दी करो, जल्दी करो, औरतों और बच्चों को घर के अंदर छुपा दो और सभी मर्द अपने हथियार हाथों में लेकर तैयार हो जाओ। आज रात घर पर डाकुओं का हमला होगा।” 

सभी ने उससे पूछा, “तुमने कैसे जाना? क्या तुम ज्योतिषी हो?” 

“मुझे उस कुत्ते के भौंकने से मालूम हुआ। वह अपनी ओर से हमें सावधान करने के लिए भौंक रहा था। अगर मैं यहाँ न होता तो उसकी सारी मेहनत बेकार हो जाती। जैसा मैंने कहा है वैसा ही आप सब करिए। घर के सारे पुरुष बंदूक, छूरे, लाठी आदि लेकर आस-पास की झाड़ियों में छिप जायें।”

ऐसा ही किया गया। औरतों और बच्चों को घर के अंदर सुरक्षित कर दिया गया, सभी पुरुष हथियारबंद होकर झाड़ियों में छुप गए। 

आधी रात को एक सीटी बजी, फिर दूसरी बजी, फिर तीसरी और उसके बाद दौड़ते पैरों की आवाज़ें आने लगीं . . . फिर झाड़ियों से बंदूकें दगीं और लुटेरे अपनी जान बचाने, भाग खड़े हुए . . .

दो मारे भी गए, उनके हाथों में धारदार हथियार भी थे। संकट टल गया था। 

सभी किसानों ने भोले की जय-जयकार की और उससे वहीं रह जाने की प्रार्थना करने लगे। परन्तु भोले ने वहाँ के लोगों से विदा ली और आगे अपनी राह चल पड़ा। 

मीलों चलने के बाद भोला एक बार फिर एक बड़े से घर के सामने जा खड़ा हुआ। साँझ हो रही थी। वह सोचने लगा कि उसे दरवाज़ा खटखटाना चाहिए या आगे चले! तभी उसने मेंढकों के टर्राने की कुछ अलग ही आवाज़ सुनी, जो पास के जोहड़ से आ रही थी। भोला ध्यान से सुनने लगा, “लाओ चाँद अब मुझे दो, अगर तुम मुझे नहीं दोगे तो मैं नहीं खेलूँगा।”

“देखो ज़ोर से मत फेंकना, कहीं टूट न जाए। हमने इसे कई सालों से सँभाल कर रखा है।”

“यह कितना प्यारा लगता है!” 

अब भोला जोहड़ के पास चला गया तो क्या देखता है कि एक पतले, सुन्दर चमकते हुए चाँद के साथ कई मेंढक खेल रहे थे! 

“यह हमारे पास पिछले छह सालों से है,” एक मेंढक बोला, “जब से किसान की दुर्बुद्धि बेटी इसे मंदिर से शिवरात्रि के दिन चुरा लाई और फिर घर जाते हुए चुपके से यहाँ फेंक दिया!”

अब भोले ने द्वार खटखटा दिया। 

किसान ने उसे रात में रुक जाने का निमंत्रण भी दे दिया। जब सब भोजन करने लगे, तब बातों-बातों में भोले को मालूम हुआ कि किसान की एक बेटी पिछले छह सालों से बीमार है। सभी डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है। ऐसा लगता है कि वह अब बचेगी नहीं। 

भोले ने गहरी साँस लेते हुए कहा, “मुझे ऐसा लगता है कि आपकी बेटी अवसाद और ग्लानि के कारण बीमार है। उसने कई साल पहले मंदिर से शिवजी के माथे का चंद्रमा चुराया और बाद में डर गई। उसने उस पवित्र चंन्द्रमा को पास के तालाब में फेंक दिया था। आप उस की खोज करवाइए और हवन-पूजन के साथ मंदिर में उसे शिव मूर्ति के ऊपर स्थापित करने के लिए पुजारी को समर्पित कर दीजिए। भगवान चाहेंगे तो आपकी बेटी अच्छी हो जाएगी।” 

किसान विस्मय में पड़ गया, “हमें तो यह बात कभी मालूम ही नहीं हुई!! आपको यह सब किसने बताया?” 

“मेंढकों ने,” भोले का जवाब था। 

किसान को भोले की बातों पर भरोसा तो नहीं हुआ, फिर भी उसने तालाब में खोज करवाई और सचमुच चाँदी का चंद्रमा मिल गया! किसान ने हवन-पूजा का आयोजन करके चाँदी का चंद्रमा मंदिर के पुजारी के हवाले कर दिया। उसकी बेटी की सेहत में सुधार होने लगा। 

किसान ने भोले के पैर पकड़ कर वहीं रह जाने की विनती की, धन देने की भी इच्छा जताई। परन्तु भोले ने कुछ भी लेने से मना कर दिया और एक बार फिर आगे चल पड़ा। 

एक दिन चलते-चलते भोले ने देखा कि दो पथिक एक बरगद के पेड़ के नीचे लेट कर आराम कर रहे थे। गर्मी बहुत थी। भोला थका भी था, आराम कर रहे दोनों आदमियों से अनुमति लेकर वह भी उनके पास ही लेट गया। बातें होने लगी, “आप लोग कहाँ जा रहे हैं?” 

“कुँजापुर मठ को जा रहे हैं। क्या आपने नहीं सुना कि वहाँ के मठाधीश स्वर्ग सिधार गए हैं? और नए मठाधीश का चुनाव होना है!” 

तभी बरगद की डालों पर पक्षियों का एक झुंड आकर उतरा। भोले ने मुस्कुराते हुए कहा, “यह पक्षीदल भी वहीं, कुँजापुर मठ को ही जा रहा है।”

दोनों आदमियों ने अचरज से पूछा, “तुम कैसे जान गए?” 

“मैं उनकी भाषा जानता हूँ,” भोला बोला, “पक्षी एक और बड़ी विचित्र बात भी कह रहे हैं!” 

“भला कौन सी विचित्र बात?” प्रश्न किया गया 

“वे कह रहे हैं कि हम तीनों में से ही कोई एक नया मठाधीश बनेगा!” भोले ने उत्तर दिया। 

उन दिनों उस मठ की यह परंपरा थी कि नया मठाधीश चुनने के लिए एक श्वेत कपोत, जैसा एक जोड़ा अमरनाथ जी की गुफा में आज तक पाया जाता है, छोड़ा जाता था। वह कपोत जिसके सिर या कंधे पर बैठ जाए, वही मठाधीश बनाया जाता था। 

तीनों यात्री जब कुँजापुर मठ के प्रांगण में पहुँचे, तो वहाँ बड़ी भीड़ थी। वे तीनों भी उसी भीड़ में जा मिले। वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ सफ़ेद कबूतर छोड़ा गया। सभी लोग उत्साह और उत्सुकता से भरे इंतज़ार करने लगे कि आज किसका भाग्य जागता है!! 

कपोत ने आसमान में ऊँची उड़ान भरी, मंदिर के शिखरों के दो-तीन चक्कर लगाए और फिर आकर भोले के दाहिने कंधे पर बैठ गया। सारा जनसमूह उत्साह से जय-जयकार करने लगा। 

वेद मंत्रों के साथ, पवित्र नदियों और तीर्थों के जल से स्नान कराकर, नए गेरुए वस्त्र पहनाकर, जब नए मठाधीश को भक्तों को संबोधित करने और आशीर्वाद देने के लिए सिंहासन पर बैठाया गया तो पूरे पंडाल में गहरी शान्ति थी। सभी साँस रोककर नए मठाधीश के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। अकस्मात् संपूर्ण सभा की शान्ति भंग करती हुई एक चीख सुनाई दी। एक वयोवृद्ध पुरुष मूर्छित होकर गिर पड़ा। नए मठाधीश उसे देखते ही उसकी ओर दौड़ पड़े। यह उनके पिता, सौदागर थे!! वे दुख और पश्चाताप की आग में जल रहे थे। भोला की बाँहों में आते ही उनके प्राण पखेरू उड़ गए। पुत्र की आँखों से जल धारा बह निकली। भोले के हृदय में पिता के लिए कोई दुर्भावना नहीं केवल करुणा थी!!! 

आगे चलकर यह मठाधीश अत्यंत कोमल हृदय, उदार, परोपकारी संत सिद्ध हुए। 

जैसी तक़दीर का धनी भोला था, ईश्वर की वैसी ही कृपा सबको मिले। 

“जब पेट में पड़ेगा, कुछ दाना-पानी, 
 तभी तो छिड़ेगी, फिर अगली कहानी!”

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