मेरा पक्षी-जगत
सरोजिनी पाण्डेयमुझे ऐसा अनुभव होता है कि भारतवर्ष में मेरी पीढ़ी के लोगों ने बाल्यकाल में जब भाषा सीखने शुरू की होगी तो माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, दीदी-भैया आदि पारिवारिक संबंधों के बाद या शायद साथ-साथ ही पक्षियों का भी परिचय पाना आरंभ किया होगा, अब महानगरों में औद्योगीकरण के कारण स्थिति बदल चुकी है।
मैं इस देश के ग्रामीण और छोटे नगरीय अंचलों में पली-बढ़ी हूंँ, मेरा परिचय भी पक्षी जगत से भाषा सीखने के साथ ही अवश्य हुआ होगा। जिस पक्षी से सर्वप्रथम परिचय हुआ वह अवश्य ही काक रहा होगा क्योंकि मेरी नानी बड़े तड़के ही भजन गाया करती थीं “उठो श्याम सुन्दर बोलन लागे कागा, साँवली सुरतिया पर जिया मोरा लागा।” सुबह-सवेरे जब वह मेरी आँखें धुलवातीं तो कहती, “कीचर-काचर (आँखों का मैल) कौआ खाय, दोना चाटै नउआ जाय, चाँदी कै कमोरिया में दूध-भात नतिनी खाय।” इस पद से यह मालूम हो जाता है कि कौआ सफ़ाई करने वाला पक्षी है जो गंदगी में से भी अपना भोजन खोज लेता है। “मोरी अटरिया पे कागा बोले, मेरा जिया डोले, कोई आ रहा है,” यह गाना सुनकर स्पष्ट है कि कौवा शुभ समाचार लाने वाला दूत भी है। कुछ और बड़े होने पर तो यह भी मालूम हुआ कि कवि को तो काग के भाग्य से ईर्ष्या है “काग के भाग कहा कहिए, हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी”!
मुर्गा-मुर्गी, कबूतर, पंडुक आदि तो आसपास नित्य प्रति ही दिखलाई पड़ते थे। इनके नायकत्व की कहानियाँ भी अक़्सर सुनते-पढ़ते रहते थे। जिन क्षेत्रों में मैं पल बढ़ रही थी वहाँ कुक्कुट-पालन का विशेष प्रचलन न था, अतः उन दिनों मुर्गा केवल कहानियों का पक्षी समझ में आता था। हाँ पंडुक/पंडुकी का स्वर अक़्सर सुनाई देता क्योंकि आसपास जलाशयों की बहुतायत थी, दोपहरी की शान्त-नीरवता में पंडुक के स्वर पर ध्यान लगाने से नींद बहुत सुखकर आती थी।
जैसे-जैसे आयु बढ़ती रही मेरे परिचित पक्षियों का दायरा भी बढ़ता रहा। दिन भर आँगन में फुदकने वाली, रोशनदान में घोंसला बना लेने वाली, मेरे हाथ से बिखेरे दाने चुग लेनेवाली छोटी सी गौरैया भी मेरी बचपन की साथिन ही तो है।
हमारा सारा परिवार सदा से शाकाहारी रहा है, पर नानी की लोरी में “आउ रे चिरैया झोंझे (घोंसले) से तोहके भूँजूँ तेले से” भी शामिल थी, क्यों? आज तक नहीं मालूम हो पाया, सम्भवतः इसकी सहज प्राप्यता इस लोरी का कारण हो या फिर चिरैया से तात्पर्य किसी अन्य पक्षी से हो! परन्तु आज तक 'चिरैया' संज्ञा के साथ गौरैया की ही छवि अंकित है जो अब मिट पाना असम्भव है। चक्की में फँसे दाल के दाने को खोजती गौरैया, झूली-कुल्ही (कुर्ती-टोपी) पहनकर राजा को निर्धन बताने वाली गौरेया की कहानियाँ सुने बिना रात को नींद नहीं आती थी। कहानियों में तो ख़ैर कई बार कौवा भी हीरो रहता था, पर उसका अंत कुछ निराशाजनक ही रहता, जैसे चिड़िया के बच्चे खाने के लालच में लोहार के गर्म लोहे से जल जाना या फिर लोमड़ी के झाँसे में आकर अपनी रोटी का टुकड़ा गँवा देना। घड़े में कंकड़ डालकर पानी ऊपर उठा लेने का बुद्धिमानी भरा काम भी तो कौवे का ही था!
पड़ोसियों के घर लोहे के पिंजरे में टँगा हरियल तोता हरी मिर्च खाता और, मिट्ठू मिट्ठू सीताराम बोलता बहुत प्यारा लगता था। उसका पंजों में पकड़ी हरी मिर्च को सुंदरता से मुड़ी लाल चोंच से खोलकर खाना बहुत रोचक लगता। किशोरी होने पर नायिका की प्रेम कथा का साक्षी भी हरियल तोता ही मिला, परन्तु जब मेरे किचन गार्डन के भुट्टों को यह हरा मोहक पक्षी हम से पहले चख कर बर्बाद करने लगा तो यह मेरे क्रोध का भाजन भी बना और इसे उड़ाने के लिए ख़ाली कनस्तर पर लकड़ी की डंडी से आवाज़ करने वाला कॉन्ट्रैप्शन भी बनाना पड़ा! परन्तु बालपन में तोते की चोंच लगे आम की मिठास के क्या कहने!! पिंजरे में बैठे-बैठे तोते में जादूगर की जान की कथा तो हर किसी ने सुनी ही होगी।
काले-भूरे रंग और पीली आँखों वाली चिड़िया से मेरा प्रथम परिचय 'किलहंँटी' के नाम से हुआ। ज्ञान का क्षेत्र बढ़ने पर उसका नाम 'गुड़सल' जाना और विद्यालय में जाने पर सहपाठियों को इसे 'मैना' नाम से संबोधित होते भी सुना, जिसे देखकर “वन फ़ॉर सॉरो, टू फ़ॉर ज्वॉय, तीन-फ़ॉर लेटर, फ़ोर फॉर बॉय” पद्यांश भी गाया जाता था। परन्तु इस मैना नाम के बारे में मैं आज तक निश्चयपूर्वक नहीं जानती कि 'तोता-मैना की कहानी तो पुरानी हो गई' कि नायिका क्या यही मेरी किलहंँटी है या कोई और पक्षी?
जब मौसम और ऋतुओं का ज्ञान होने लगा तो कोयल, मोर, पपीहा से भी परिचय हुआ। कौवे की धूर्तता और कोयल की नासमझी की कहानियाँ पढ़कर बेचारी कोयल के लिए मन में करुणा उपजती थी क्योंकि मेरे सर्वाधिक प्रिय फल आम के मौसम की उद्घोषणा और अगुवाई करने वाली बेचारी कोयल को कौवा के अंडे सेने पड़ते हैं!!!!
वर्षा ऋतु के पक्षी मोर और पपीहा माने जाते है। बादलों को देखकर मोर नर्तन करता है और पपीहा
“पी कहाँ-पी कहाँ” की टेर लगाता है। मोर तो भारत का राष्ट्रीय पक्षी है ही परन्तु पपीहे की आकृति मैं आज तक नहीं पहचानती, अभी तक 'गूगल गुरु' से भी नहीं पूछा है कि नायिका की विरहाग्नि को भड़काने वाले इस पक्षी का रूप-रंग कैसा है? परिचय है, तो मात्र नाम से।
मोर का पंख जो कृष्ण कन्हैया के माथे पर सुशोभित होता था, वह हमारी पुस्तकों में स्थान पाता था, जो पाठ सबसे कठिन लगे उसी में पंख रखा जाता कि वह सरलता से समझ में आ जाए। विद्या देने वाला एक और पक्षी भी माना जाता था, नीलकंठ। नीलकंठ यदि बिजली के तारों पर बैठा दीख जाए तो “नीलकंठ पटवारी पहली विद्या हमारी” का शोर हम बच्चे ज़रूर मचाते थे। जीवन में सफलता की कुंजी एक और पक्षी के साथ जुड़ी मानी जाती थी, वह है काले चमकीले रंग और दो भागों में बँटी हुई काली लंबी पूँछ वाली 'श्यामा'! कहानियों में यदि नायक श्यामा पक्षी को अपनी दायीं ओर रखकर सारे कार्य करे तो उसे अवश्य सफलता मिल जाती थी, चाहे वह राजकुमारी का हृदय जितना हो या फिर राजा के कठिन प्रश्नों का उत्तर देना।
बचपन में ही एक और कहानी पढ़ी, मालूम नहीं सच्ची या झूठी, कि एक बादशाह ने दुनिया का सबसे मीठा गोश्त खाने के लिए एक साथ सैकड़ों-हज़ारों बुलबुलों को मरवा कर उनकी केवल ज़ुबान का शोरबा, एक रकाबी भर बनवाया था। यह कथा चाहे कोरी गल्प ही हो पर आपको भी अंदर तक झिंझोड़ सकती है! आज तक भी जब गर्दन पर सुंदर लाल बिंदी लगाए, मीठे स्वर में बोलने वाली 'बुलबुल' देखती हूंँ तो अनचाहे ही यह दर्दनाक कहानी याद आ जाती है।
बगुला, टिटिहरी, हंँस, हारिल इत्यादि पक्षियों का पहला परिचय कहानियों और सुक्तियों के माध्यम से हुआ था, आकार और स्वभाव तो बाद में जाना या नहीं भी जाना। ”काक चेष्टा वको ध्यानम्“ की सूक्ति तो पूरे विद्यार्थी जीवन में पिताजी से सप्ताह में कम से कम एक बार तो अवश्य ही सुनने को मिल जाती थी।
हंँस सरस्वती का वाहन है शायद इसीलिए वह नीर-क्षीर विवेकी है, उसकी स्वामिनी विद्या की देवी जो है, और विद्या के बिना क्या भले बुरे की पहचान सम्भव है?
टिटिहरी हिम्मत ना हारने की प्रेरणा देने वाली चिड़िया समझाई गई, जो अपने अंडे वापस पाने के लिए समुद्र सोखने को तत्पर है, एक पक्षी का इतना साहस? क्या यह सरल काम होता? यह कहानी भी सुनी कि टिटिहरी सदा अपने पैर ऊपर करके सोती है, यदि कभीअचानक आकाश डगमगा कर गिरे तो वह उसे अपने पैरों पर रोक ले, है न यह साहस की पराकाष्ठा!!
हारिल इतना स्वाभिमानी है कि अपने बैठने के लिए सदा एक लकड़ी का टुकड़ा पंजों में पकड़े रहता है, “हारिल को हठ है लकड़ी“।
आँगन में आकर शोर करने वाली चिड़िया की एक और प्रजाति थी, 'सतबहनी'। यह गंदले-भूरे रंग की, गुड़सल से थोड़ी बड़ी, चिड़िया कभी अकेली नहीं आती थी, सदा झुंड में आकर आपस में लड़ते-झगड़ते शोर मचाती रहती थीं। नाम तो है सत +बहनी, पर इनमें सदा तकरार ही दिखी, कभी 'बहनापा'नाम को भी देखने को नहीं मिला!
कभी-कभार, धोखे से, सलेटी रंग का खंजन भी इधर-उधर तेज़ी से फुदकता दिखलाई पड़ जाता, जिससे नायिका के चंचल नयनों की उपमा दी जाती है।
स्कूल से आते-जाते, कभी पेड़ के तने से चिपका, काली-पीली कलगी और शरीर पर ऐसी ही धारियों वाला कठफोड़वा भी दिखाई देता जो एक निश्चित अंतराल पर ठक-ठक की आवाज़ करता हुआ, पेड़ के तने पर ऊर्ध्वाकार बैठा, पेड़ की छाल को विदीर्ण करता रहता था। उसकी यह क्रिया ख़ूब आकर्षक लगती परन्तु बाल समूह में खलबली इसलिए मच जाती कि कहीं वह नाराज़ होकर सिर पर आ बैठा तो आँख फोड़ देगा!! कठफोड़वा को देखकर हम बच्चे विचित्र द्विविधा में पड़ जाते कि इस सुंदर दृश्य को कुछ और देर तक देखें या फिर अपनी आँखों की रक्षा हेतु वहाँ से तुरंत भाग जाएँ, कैसी होती हैं बचपन की परेशानियाँ?
बरसात के दिनों में रेलगाड़ी से यात्रा करते हुए पानी से भरे खेतों में कभी-कभी बगुले से दुगनी आकार का एक सफ़ेद पक्षी गले में भूरी सी थैली
लटकाए, अपनी दो लम्बी टाँगों पर खड़ा मछलियाँ खोजता दिखलाई पड़ जाता जो चमरघेंच कहलाता है, यह नाम इसे गले से लटकती कुछ अशोभनीय-सी लगती थैली के ही कारण मिला होगा क्योंकि 'घेंचा' गर्दन को कहा जाता है भोजपुरी बोली में।
सरस्वती के वाहन हँस से तो परिचय बाल्यावस्था में ही हो गया था परन्तु लक्ष्मी जी के वाहन से परिचय होने में बहुत समय लगा। मूर्तियों, चित्रों को छोड़कर शायद अब तक एकाध बार ही साक्षात् इसे देखा है। हाँ, कभी कदा इसकी आवाज़ ज़रूर सुनी है और इससे मन में भय और आशंका का ही संचार हुआ है क्योंकि बचपन से ही सुनती आई हूँ कि उल्लू तभी बोलता है जब कुछ अशुभ होने वाला हो, आख़िर यह वीराने में रहने वाला पक्षी जो ठहरा। उल्लू के प्रति बनी भयप्रद भ्रांतियों में कमी तब आई जब पश्चिमी देशों की कथाओं के अनुवाद पढ़े। लेकिन बचपन की धारणाएँ इतनी गहराई तक अपनी जड़ें जमाती हैं कि उनसे पूरी तरह उबरना कठिन है।
अपने पक्षी-जगत के विशेष परिचित सदस्यों से आपका परिचय करवाया है। नव परिचित और दुआ-सलाम वाले और भी अनेक हैं। उनसे मुलाक़ात फिर कभी सही!
7 टिप्पणियाँ
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अति उत्तम लेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई इसी प्रकार आप की सुन्दर कवितायें वा लेख पढ़ने को मिलते रहे गे। ऐसी आशा करती हूँ अनेकों शुभ कामनाएँ ा
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शानदार जानकारी
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पंछी जगत की प्राकृतिक व्यवहार एवम मानव मन में उठने वाले भाव का मार्मिक वर्णन। सुंदर चित्रण।धन्यवाद।
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आप गागर में सागर हैं। सहजता से बचपन से प्राप्त ज्ञान पंक्ति बध कर दिया। लोरी ने माँ की याद दिला दी। अत्यंत सुंदर।
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बहुत सुंदर वर्णन सरोजिनी जी , हर राज्य के ग्रामीण क्षेत्र की भाषाओं में प्रकृति और पंछियों के बारे में लोक संदर्भ मिलते है।आपने कितने अच्छे उदाहरण देकर यह ललित लेख लिखा है।हार्दिक बधाई
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अति सुन्दर लेख!
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बहुत विस्तार और रोचक ढंग से पक्षियों की जानकारी मिली। सहज भाषा में लिखे लेख के लिये बधाईयाँ, ज्ञानवर्धन के लिए धन्यवाद
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