जो पहले ग़ुस्साया उसने अपना दाँव गँवाया
सरोजिनी पाण्डेय
मूल कहानी: ला स्कोमेस्सा अ ची प्राइमो स्'अराबिया; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (लूज़ योर टेंपर एण्ड यू लूज़ योर बेट); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
एक बार की बात है, एक आदमी के तीन बेटे थे-रमेश, सुरेश और महेश। जब वह बूढ़ा हुआ तो उसे बीमारियों ने घेर लिया, होते-होते ऐसा समय आया कि बूढ़े पिता ने अपने तीनों बेटों को अपने पास बुलाया और कहा, “बच्चों अब ऐसा लगता है कि मेरा अंतिम समय आ गया है। मैंने अपनी गाढ़ी कमाई की सारी जमापूँजी के तीन बराबर हिस्से कर दिए हैं। तुम तीनों अपना-अपना हिस्सा ले लेना और अपना काम आगे बढ़ना।” ऐसा कहने के बाद वृद्ध अधिक समय तक जीवित नहीं रहा और उसने अंतिम साँस लेली। तीनों बेटे बहुत रोए लेकिन आख़िर रोते भी कितना, माता-पिता तो सदैव किसी के नहीं रहते।
तीनों ने अपना-अपना हिस्सा ले लिया। रमेश, जो सबसे बड़ा था एक दिन बोला, “भाइयो, पिता का दिया धन ज़िन्दगी भर नहीं चलेगा। हम लोगों को कुछ काम करना पड़ेगा। अगर हमने ऐसा नहीं किया तो एक दिन भुखमरी आ जाएगी। हम में से एक को ज़रूर काम ढूँढ़ने जाना चाहिए।”
मँझला भाई, जिसका नाम सुरेश था, वह बोला, “भैया तुम ठीक रहते हो। मैं काम ढूँढ़ने परदेस जाऊँगा, तुम दोनों घर सँभालना।”
अगले दिन वह सुबह सबेरे उठा, नहा धोकर भगँवान को हाथ जोड़े। साफ़-सुथरे कपड़े पहन कर, अपने चमकाए जूते पहने, अपने हिस्से का धन लेकर थैला कंधे पर लटकाया, भाइयों से गले मिला और चल पड़ा काम ढूँढ़ने के लिए!
दिन भर वह काम की तलाश में भटकता रहा। साँझ होते-होते वह एक बड़ी हवेली के सामने रुका जहाँ घर का मालिक बाहर टहलता हुआ हवाख़ोरी कर रहा था। सुरेश ने उसे झुक कर नमस्कार किया, “मेरी पैलगी मालिक!”
यह और कोई नहीं उस गाँव का चतुर प्रधान था। उसने ख़ुश होकर सुरेश से कहा, “ख़ुश रहो जवान, कहाँ जा रहे हो?”
“मैं कुछ धन कमाने की इच्छा से काम ढूँढ़ने जा रहा हूँ।”
“तुम्हारे थैली में क्या है?”
मेरे पिता की जमा पूँजी का मेरा हिस्सा, जो मुझे मिला है, वह मेरे थैली में है।”
“क्या तुम मेरे घर में काम करोगे?”
“जी हाँ, बिल्कुल करूँगा!”
“तो सुनो मेरे पास भी कुछ जमा पूँजी है, अगर तुम मेरी नौकरी करोगे तो एक शर्त रहेगी।“
“क्या शर्त?”
“हम में से जो पहले नाराज़ होगा वह अपनी पूँजी जीतने वाले को दे देगा।”
सुरेश ने कुछ क्षण विचार किया और फिर शर्त को स्वीकार कर लिया।
अगले दिन प्रधान सुरेश को अपने उस खेत पर ले गया जिसकी गुड़ाई करनी थी। सुरेश को काम बता कर उससे कहा, “तुम्हें इस खेत की गुड़ाई करनी है। खाना खाने के लिए या पानी पीने के लिए घर आने की ज़रूरत नहीं है। उसमें समय बर्बाद होता है। तुम्हारे लिए खाना, पानी, चबेना हर चीज़ कोई न कोई यहीं लेकर आएगा। तुम बस काम करते रहना।”
सुरेश ने सारी बातें मान लीं और काम करने में जुट गया। काम करते-करते जब दिन काफ़ी ऊपर चढ़ा आया तब उसे भूख लगी और वह कलेवे की प्रतीक्षा करने लगा। बहुत देर हो गई और उसकी आँतें भूख से कुलबुलाने लगीं। कुछ देर रुकने के बाद उसने फिर फावड़ा उठाया और गुड़ाई में लग गया। वह सोच रहा था कि कलेवा नहीं आया तो कम से कम दोपहर का खाना तो आएगा ही, और वह भूखे पेट काम करता रहा। वह बार-बार सिर उठा कर पगडंडी की ओर देखता कि शायद कोई खाना लेकर आ रहा हो परन्तु ऐसा नहीं हुआ। जब भी कोई आहट सुनाई देती, सुरेश को लगता कि खाना आ गया है, परन्तु हर बार उसे निराशा ही हाथ लगती। आख़िरकार जब साँझ ढलने लगी तब एक बूढ़ी औरत हाँफती हुई आई और बोली, “माफ़ करना, मुझे बहुत देर हो गई, क्या करूँ काम ही इतना ज़्यादा था, कपड़े धोने थे, बरतन मांजने थे . . .” और न जाने कितने बहाने वह बनाती रही। सुरेश किसी तरह अपने ग़ुस्से पर क़ाबू पाता हुआ मुँह बंद किए रहा क्योंकि उसे डर था कि यदि ग़ुस्से में एक भी शब्द उसके मुँह से निकला तो शर्त के अनुसार उसकी जमा पूँजी ज़ब्त हो जाएगी। उसने झपटकर नौकरानी के हाथ से खाने का डब्बा लिया और उसे खोलने लगा परन्तु वह इतना कसकर बंद था कि खुल ही नहीं रहा था, भूखे, प्यासे सुरेश की झुँझलाहट और ग़ुस्सा बढ़ता ही जा रहा था, इस पर नौकरानी ने सिर झुका कर कहा, “भोजन पर मक्खियों ना लगें इसलिए थोडा़ कसकर बंद कर दिया है मैंने।”
जब खाने का डिब्बा नहीं खुला तब हार कर सुरेश ने पानी की बोतल खोलने चाही, वह तो मानो सील बंद ही कर दी गई थी। अब तो सुरेश का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था, वह इतनी ज़ोर से चिल्लाया जिसे सुनकर मुर्दा भी खड़ा हो जाए, “भाड़ में जाओ तुम! चलो मैं भी घर चलता हूँ, अब लूँगा मैं प्रधान जी की ख़बर! क्या इस तरह से एक आदमी को भूखा-प्यासा मारा जाता है? यह तो सीधे-सीधे हत्या है!”
नौकरानी भागती हुई सीधे प्रधान जी के पास गई जो दरवाज़े पर ही खड़े उसका इंतज़ार कर रहे थे। उसे देखकर पूछा, “बताओ तो कैसा रहा? कैसा रहा बताओ न?”
“बहुत सही, मालिक! बहुत सही, वह ग़ुस्से से बिलबिलता इधर ही आ रहा है,” नौकरानी बोली।
नौकरानी के पीछे-पीछे ही सुरेश भी आ रहा था। प्रधान जी को देखते ही वह उन पर झपट पड़ा और अनाप-शनाप बकने लगा, दिन भर का भूखा-प्यासा, थका-हारा जो था बेचारा।
प्रधान जी बड़ी शान्ति से बोले, “क्या तुम हमारी शर्त भूल गए हो? जो पहले झुँझलाएगा वह अपना धन गँवाएगा।”
“भाड़ में जाओ तुम, तुम्हारा धन और तुम्हारी नौकरी!” यह कहते हुए सुरेश दनदनाता हुआ प्रधान के घर से निकल गया। सुरेश के घर से निकलते ही प्रधान जी और उनकी उँगलियों पर नाचने वाली, उसकी मुँहलगी दो नौकरानियाँ अपनी चालाकी पर पेट पकड़-पकड़ कर हँसने लगीं।
इधर भूख से अधमरा, थकाहारा बेचारा सुरेश देर रात गए जब घर पहुँचा तो उसके दोनों भाई भौचक्के रह गए। उसकी दर्दशा देखकर उसके दुर्भाग्य को समझना कुछ कठिन ना था। जब कुछ खा पी कर वह स्थिर हुआ तो उसने अपने साथ घटी पूरी कहानी भाइयों को कह सुनाई। बड़ा भाई रमेश मँझले की कहानी सुनकर तिलमिला उठा, “अगर मैं बाहर कमाने गया तो तुम्हारे धन के साथ-साथ उस प्रधान का धन भी लेकर आऊँगा। तुम उसका पता ठिकाना सही-सही बताओ।”
प्रधान का ठिकाना समझ में आ जाने के बाद रमेश अगले दिन ही घर से उस ओर निकल पड़ा। लेकिन हुआ वही जो होना था। वह भी भूख प्यास और थकान से चूर होकर ग़ुस्से में अपना-सा मुँह लेकर घर लौट आया। सबसे छोटे भाई महेश ने जब अपने बड़े भाइयों की दुर्गति और और पिता की ख़ून पसीने की कमाई को लुटते हुए सुना तो उसका मन भी ठिकाने न रह सका, वह था भी अपने तीनों भाइयों में सबसे चतुर और चालक। अब उसने भाइयों का बदला लेने और पिता द्वारा दी गई धनराशि को वापस लाने का बीड़ा उठा लिया। रमेश और सुरेश दोनों उसे जाने नहीं देना चाहते थे, लेकिन उसकी ज़िद और उसकी अनुनय-विनय के आगे दोनों ने घुटने टेक दिए और उसको जाने देने पर राज़ी हो गए।
महेश भी प्रधान जी के घर जा पहुँचा और नौकरी माँगी। वह भी प्रधान की शर्त पर ही नौकरी के लिए तैयार हो गया, ‘जो पहले ग़ुस्साए वह अपना दाँव गँवाए’, इस बार प्रधान जी ने कहा, “मेरे पास धन की तीन थैलियाँ हैं, जो मैं तुम्हारी एक थैली के बदले में दाँव पर लगा रहा हूँ।” प्रधान का लालच और आत्मविश्वास दोनों ही बढ़ जो गए थे!!
सब कुछ तय हो जाने के बाद, रात को प्रधान के साथ महेश भी खाना खाने बैठा, अगले दिन सुबह से ही उसे काम पर लग जाना था। खाना खाते-खाते वह कुछ रोटियाँ धीरे-धीरे अपनी जेब में भी डालता जा रहा था। रोटी के साथ कुछ फल-अचार, तरकारी भी अपनी जेब में इधर-उधर छुपा लिए।
अगली सुबह मुर्गे की बाँग के साथ ही उसे खेतों में काम पर लगा दिया गया।
खेत पर काम करते हुए उसके लिए भी सुबह का कलेवा नहीं आया और न दोपहर का खाना ही। जब बहुत भूख लगी, तब उसने अपनी जेब से रोटियाँ, फल और अचार निकले और खा गया। अब उसे प्यास लगी। वह खेत के आसपास बने किसानों के मकानों में से एक मकान में गया और अपने को प्रधान जी का कामगार बता कर पीने को पानी माँगा। किसान तो ख़ुश हो गया कि प्रधान जी का सेवक उनके पास आया है। उसके पीने के लिए पानी तो क्या-ख़ुशी शरबत भी ले आया। महेश से बात करते हुए वह प्रधान जी का कुशल क्षेम भी पूछता रहा।
मीठा शरबत और पानी पीकर महेश शाम तक के लिए ताज़ादम हो गया। किसान और उसके परिवार का उपकार मानते हुए, फिर कभी आने की बात करते हुए उसने उनसे विदा ली और खेत पर आकर फिर काम में जुट गया।
जब रात झुकने लगी तब प्रधान जी की विश्वस्त बूढ़ी नौकरानी खाना और पानी लेकर आती दिखाई दी। उसे देखकर महेश गुनगुनाने लगा। पहले की तरह ही नौकरानी आते ही बोली, “मुझे बहुत देर हो गई है न, क्या करूँ काम ही कितना ज़्यादा था . . .”
“कोई बात नहीं, देर-सबेर तो होती ही रहती है। लाओ खाना दे दो,” महेश ने कहा।
यह सुनकर बुड्ढी नौकरानी तो सन्नाटा खा गई, फिर धीरे से खाने का डिब्बा उसकी और बढ़ा दिया। डिब्बा हाथ में लेकर महेश बोला, “सचमुच तुम बड़ी समझदार हो, खाने पर मक्खियाँ ना आएँ और दाल छलक ना जाए इसलिए ढक्कन ख़ूब कसकर बंद कर दिया है।” और उसने अपनी कुदाल के फल से एक झटके में डब्बे का ढक्कन खोला और खाना खाने लगा। यही उसने पानी की बोतल के साथ भी किया। जब खाना खा चुका तो नौकरानी से कहा, “तुम बरतन लेकर चलो। मैं काम ख़त्म करके आता हूँ। मालिक से कहना कि खेत पर खाना भेजना बहुत समझ का काम है।”
घर पर नौकरानी की राह देखते हुए प्रधान जी द्वार पर ही खड़े थे, लपक कर पूछा, “कहो तो कैसा रहा?”
“ख़बर तो बुरी है, नया नौकर तो चिड़ियों की तरह चहक रहा था।”
“तुम बस देखती जाओ मैं कैसे उसकी चहचहाट निकलता हूँ।”
महेश खेत से काम करके लौट आया। खाना खाते हुए वह दोनों नौकरानियों के साथ चुहलबाज़ी भी करता रहा। प्रधान मन ही मन कुढ़ रहा था।
खाना ख़त्म होने पर महेश ने प्रधान जी से पूछा, “कल मुझे क्या काम करना है, मालिक?”
“कल तुमको मंडी जाना है। मेरे पास पचास सूअर हैं। उन्हेंं हाँक कर ले जाओ और बाज़ार में बेच आओ।”
अगले दिन सुबह महेश सूअरों को लेकर मंडी की ओर चल पड़ा। उसने, जो सौदागर सबसे पहले मिला उसे ही, सूअरों को बेच दिया। उन्चास सूअर तो उसने बेच दिए लेकिन एक सूअरी, जो सबसे मोटी थी, उसे बचा लिया। बेचने से पहले उसने उन सभी उन्चास सूअरों की पूँछें काटकर अपने पास रख लीं।
अब वह एक सूअरी और उन्चास पूँछें लेकर घर की ओर चल पड़ा। घर के पास के एक खुले खेत में उसने अपनी जेब में छुपा कर रखी कन्नी से ज़मीन में बहुत से छेद कर दिए। फिर एक बड़ा गड्ढा भी खोदा। छोटे छेदों में उसने सूअरों की काटी गई दुमें इस तरह गाड़ दीं कि उनकी सिर्फ़ घुँघराली नोक ही दिखाई दे। गड्ढे में मोटी सूअरी को इस तरह दबा दिया कि उसकी भी बस पूँछ ही ऊपर दिखाई दे। इतना करने के बाद वह ज़ोर-ज़ोर से गला फाड़ कर गाने लगा:
“ओ प्रधान जी, सुनो ज़रा
सूअरों का जत्था पाताल चला,
सारे ज़मीन में जाते हैं,
बस दुम ही दुम नज़र आते हैं”
महेश का कानफाड़ू गाना प्रधान जी के कानों तक भी पहुँचा। उन्होंने खिड़की से बाहर झाँका तो महेश उन्हेंं दोनों हाथ हिला कर जल्दी आने का संकेत करता दिखाई दिया। वह दौड़ते हुए बाहर निकल आए।
“मुझे बड़ा अभागा भला और कौन होगा! मैंने अपनी इन्हीं आँखों एकाएक सूअरों को ज़मीन में घुसते देखा, वे मेरे देखते ही देखते धरती में समा गए और बस दुम बाक़ी रह गई। ऐसा लगता था जैसे कोई उन्हें खींचे जा रहा हो। चलिए हम उन्हेंं धरती से बाहर खींचने की कोशिश करें, शायद कुछ सूअर बच जाएँ। मुझे तो लगता है वे सब नागलोक में चले गये।”
प्रधान जी ने लपक कर कुछ पूँछें खींचीं लेकिन दुम के सिवाय उनके हाथ कुछ ना लगा। महेश ने गड्ढे में दबी मोटी सुअरी की दुम खींचनी शुरू की और दम लगाकर खींचते-खींचते, उसने उसे बाहर भी निकाल लिया। सुअरी दर्द और ग़ुस्से से ऐसे छटपटा रही थी मानो उस पर शैतान का साया हो।
प्रधान जी का ग़ुस्से से बुरा हाल था, पर वह अपने को ज़ब्त किए हुए थे। दाँव पर लगी थैलियाँ उनकी आँखों के आगे तैर जो रही थीं। ग़ुस्सा पीकर धीरे से बोले, “होनी को कौन टाल सकता है। चलो, जो हुआ सो हुआ।” और हाथ मसलते हुए वह घर की ओर लौट पड़े।
रोज़ की तरह रात के खाने के बाद महेश ने प्रधान से पूछा, “मालिक कल मुझे क्या काम करना है।”
“मुझे कल पचास भेड़ें बाज़ार में बिकने के लिए भेजनी है। लेकिन मैं नहीं चाहता कि आज के जैसी अनहोनी कल फिर हो जाए बताओ तो क्या किया जाए?”
“राम-राम मालिक! शुभ-शुभ बोलिए।” महेश घबराता हुआ बोला, “क्या हमारा दुर्भाग्य हमारा पीछा कभी नहीं छोड़ेगा?”
अगले दिन महेश भेड़ें लेकर मंडी गया और भेड़ों के सौदागर को उन्चास भेड़ें बेच दीं, बस रेवड़ की एक लंगड़ी भेड़ को अपने पास बचा लिया। मिला हुआ पैसा जेब के हवाले किया और घर की ओर चल पड़ा। घर के पास वाले खेत के बीचों-बीच एक पीपल का पेड़ था। वह कहीं से एक ऊँची सीढ़ी ले आया। सीढ़ी पीपल के तने से लगाकर लंगड़ी भेड़ को गोद में लेकर वह पेड़ पर चढ़ गया और उसे वहीं डालों के बीच रखकर नीचे उतर आया। सीढ़ी ले जाकर दूर रख दी और फिर वह गला फाड़ कर चिल्लाने लगा:
“दौड़ो भोला, दौड़ो सहतू, दौड़ो राम प्रकाश
सारी भेड़ें पेड़ पे चढ़कर चली गईं आकाश
पीपल पर बस एक बची है जो है बिचारी लँगड़ी
वह भी अभी निकल जाएगी, अगर गई न पकड़ी!”
बेचारे प्रधान जी दौड़ते-भागते वहाँ आनन-फ़ानन में आ पहुँचे। महेश रुआँसा होकर बोला, “मैं भेड़ें हाँकते हुए, आराम से, उन्हें मंडी ले जा रहा था, तभी देखा क्या हूँ कि सारी भेड़ें उछलने लगीं और ऐसा लगा मानो सारी स्वर्ग लोक की ओर खिंची जा रही हैं। और देखते-देखते सारी आकाश में उड़ गईं, बस एक वही पेड़ पर अटकी लँगड़ी भेड़ बची है, शायद पेड़ में फँस गई है बेचारी!”
इतना कह कर वह रोने लगा।
प्रधान क्रोध से आग बबूला हो गया, लेकिन बेचारा करता क्या! ग़ुस्सा दिखलाने पर तीन थैली धन जो गँवा बैठता! वह ख़ून के घूँट पीकर रह गया। बोला, “जो टाला ना जा सके उसे चुपचाप सह लेना ही बेहतर है, जो भाग्य में बदा है वह तो होगा ही हम चाहे जितना हाथ-पैर पटकें।”
रात हुई, भोजन हुआ, सोने जाने से पहले महेश हाथ जोड़कर बोला, “कल के लिए मुझे क्या हुक्म है? सरकार!”
प्रधान बोला, “कल के लिए कोई अधिक काम नहीं है। मुझे पास के गाँव में किसानों की एक सभा में जाना है। तुम मेरे साथ ही चलना।”
अगली सुबह महेश तड़के उठ गया। प्रधान के साफ़-सुथरे कपड़े निकाल कर बाहर रखे, जूते को रगड़-रगड़ कर चमकाया, फिर ख़ुद भी नहा-धोकर तैयार हो गया और जाकर प्रधान जी को जगा दिया।
कलेवा कर, तैयार हो, चमचमाते जूते पहन प्रधान जी सभा करने के लिए घर से निकले, पीछे-पीछे महेश।
अभी वे कुछ ही दूर गए थे कि पानी झमाझम बरसने लगा। महेश ने अपनी बग़ल में दबाया छाता प्रधान जी के सिर पर तान दिया। दो-चार क़दम चलने के बाद प्रधान जी ने महेश से कहा, “तुम भाग कर घर जाओ और मेरी चप्पल ले आओ। मैं इन चमचमाते जूतों को ख़राब नहीं करना चाहता। इन्हें मैं सभा के समय पहनूँगा। यहाँ पीपल के नीचे खड़ा होकर मैं तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ।”
महेश भागता हुए घर पहुँचा और नौकरानियों को ज़ोर से पुकारा, “अरे कहाँ हो तुम दोनों? जल्दी इधर आओ। मुझे तुम दोनों को गले लगा कर चूमना है।”
“हमें चूमना है? क्या तुम पागल हो गए हो? हम ऐसा तब तक हरगिज़ नहीं करेंगी, जब तक सीधे मालिक के मुँह से ही न सुन लें।”
“भगवान क़सम, मालिक ने ही कहा है। ना मानो तो उन्हीं के मुँह से सुन लो!”
और महेश खिड़की के पास जाकर प्रधान जी को सुनाते हुए ज़ोर से बोला, “एक या दोनों?”
“क्यों? एक ही क्यों? दोनों,” प्रधान बोला, “दोनों, जल्दी करो!”
“लो सुन लिया न!” और महेश ने दोनों नौकरानी को बाँहों में कसकर चूमा और मालिक की चप्पल उठाकर सरपट बाहर की ओर भागा।
वहाँ प्रधान बोला, “एक चप्पल से भला क्या होता?”
सभा समाप्त कर जब शाम को प्रधान जी घर आए तो देखा कि दोनों मुँहलगी नौकरानियाँ मुँह फुलाए इधर-उधर डोल रही हैं।
उसने पूछा, “क्या बात है? तुम दोनों का चेहरा क्यों उतरा हुआ है?”
दोनों नौकरानियाँ एक स्वर में बोलीं, “बात क्या है, यह आप हमसे पूछ रहे हैं? आपकी भला हिम्मत कैसे हुई ऐसा कहने की? अगर हमने अपने कानों से ना सुना होता तो हमें भरोसा ही नहीं होता कि आप हमारी इतनी बेइज़्ज़ती कर सकते हैं!” और ऐसा कहते हुए उन्होंने चुंबन की बात प्रधान को बता दी।
“अब मैं इसे और नहीं झेल पाऊँगा,” प्रधान बोला, “मैं अभी उसे नौकरी से निकाल दूँगा।”
“लेकिन उसे आप भोर में मुर्गे की बाँग से पहले नहीं निकाल सकते हैं न!”
नौकरानियों ने उसे समझाया।
“ठीक है, तो अभी कुछ ऐसा करो कि मुर्गे की बाँग सुनाई दे।”
ऐसा कहकर प्रधान जी ने महेश को बुलाया और कहा, “देखो महेश, अब मेरे पास तुम्हारे लिए कोई काम नहीं है। तुम अभी इसी वक़्त मेरे घर से निकल जाओ। मैं तुम्हारा हिसाब कर देता हूँ।” इस पर महेश बोला, “ठीक है प्रधान जी, लेकिन रात में तो आप मुझे घर से जाने को नहीं कह सकते। सुबह मुर्गे की बाँग के पहले मुझे घर से नहीं निकाला जा सकता!”
“ठीक है, हम मुर्गे की बाँग तक रुक जाते हैं।”
इस बीच विश्वस्त बुड्ढी नौकरानी मुर्गियों के दड़बे में गई, कुछ मुर्गियों के पंख नोचे, अपने कपड़ों पर पंख चिपकाए और छत पर जा चढ़ी। फिर पानी की टंकी से सटकर मुर्गे की तरह ‘कुकड़ूँ कु-कुकड़ूँ कूँ . . .’ बोलने लगी।
यह बाँग सुनकर खाना खाता हुआ प्रधान उछल पड़ा, “लो सुनो, मैंने तो मुर्गे की बाँग सुन ली। अब तुम निकलो मेरे घर से!”
“नहीं-नहीं प्रधान जी, अभी तो हम खाना खाने बैठे हैं। अभी तो पूरी रात बाक़ी है,” महेश ने कहा।
“मुझे तो मुर्गे की बाँग साफ़ सुनाई दे रही है, क्या तुम नहीं सुन रहे हो?”
“यह कोई ख़तरे की बात ना हो,” कहते हुए महेश ने पास की दीवार पर लटकी हुई बंदूक उठा ली, खिड़की खोली और सामने की छत से आ रही आवाज़ की ओर बंदूक तान दी।
जब तक, “मत चलाओ, मत चलाओ” कहता प्रधान उसकी ओर लपका, तब तक महेश ने बंदूक चला दी थी। गोली से बिंधा, मुर्गी के पंखों से ढका, बूढ़ी नौकरानी का शरीर ज़मीन पर लुढ़क आया था।
अब तो प्रधान जी का क्रोध क़ाबू से बाहर था, गरज कर बोले, “महेश तुम अभी मेरे घर से बाहर निकल जाओ! अब बस! मैं तुम्हारा चेहरा दोबारा कभी ना देखूँ, वरना . . .”
महेश शान्ति से बोला, “क्यों? क्या आप मुझसे नाराज़ हैं मालिक?”
प्रधान जी, “हाँ, मैं बहुत-बहुत नाराज़ हूँ! यह सब मेरी बरदाश्त से बाहर है।”
“ठीक है, आप मुझे दाँव पर लगाई गई, पैसों की तीनों थैलियाँ दे दीजिए, मैं अभी रात में ही चला जाता हूँ।”
तो अब इस बार महेश पैसों से भरी चार थैलियाँ लेकर घर वापस आया, साथ में सूअरों और भेड़ों को बेचने से मिला धन भी था। उसने सारे धन के तीन हिस्से कर, अपने दोनों भाइयों को उनके हिस्से की थैलियाँ दे दीं।
अपने हिस्से के पैसों से उसने एक बिसाती की दुकान खोली, शादी की और चैन से रहने लगा. . .
अब समझ में आया कि कैसे:
‘जो पहले ग़ुस्साया, उसने अपना दाँव गँवाया’
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