साइड इफ़ेक्ट्स
सरोजिनी पाण्डेय
हिंदी मेरी मातृभाषा है, और इस भाषा से मुझे सहज प्रेम भी है। परन्तु आज, जब मैं अपनी यह आपबीती लिख रही हूँ, तो मुझे शीर्षक के लिए कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिल पा रहा है। बात यह है कि मैं एक कर्कट रोग उत्तरजीवी हूँ। अब यदि मैं यह जानना चाहूँ कि आप लोगों में से कितनों के पल्ले मेरी पूरी बात पड़ी तो शायद कुछ लोगों का उत्तर तो ‘ना’ में होगा ही, लेकिन यदि मैं कहूँ कि मैं ‘कैंसर सर्वाइवर’ हूँ तो सभी मेरी बात समझ लेंगे। है न! तो अब आप समझ ही गए होंगे कि मैंने अपने संस्मरण का शीर्षक अंग्रेज़ी में क्यों लिखा। एक बात और ‘साइड इफे़क्ट’ का सीधा अर्थ हिंदी में ‘दुष्प्रभाव’ कह दिया जाता है, परन्तु मेरे विचार से यह थोड़ा ‘कठोर’ शब्द है, ‘साइड इफे़क्ट्स’ में उतनी कठोरता नहीं है। ऐसी स्थिति में उसे ‘संलग्न प्रभाव’ कहना, मेरी दृष्टि से, अधिक उचित होगा। परन्तु यह शब्द इतना प्रचलन में नहीं है, इसलिए ‘साइड इफ़ेक्टस्’ का चुनाव ही मुझे उपयुक्त लगा।
तो हुआ यूँ कि इस इक्कीसवीं सदी के आरम्भिक काल में जब मेरे स्तन में एक निरापद, लगभग अदृश्य सी, हल्की झुर्रीदार, लगभग डेढ़ इंच व्यास वाली त्वचा की जाँच हुई तो उसमें कैंसर पाया गया। इसके लिए शल्य चिकित्सा, रसायन चिकित्सा और विकिरण चिकित्सा तीनों की आवश्यकता पड़ी। लगभग एक वर्ष का समय लगा। ईश्वर की कृपा, परिवार का सहयोग, चिकित्सकों का कौशल और मेरा भाग्य काम आया और इलाज पूरा हो गया। दवाइयों की क्रिया-प्रतिक्रिया से क्या-क्या कष्ट परिवार को मेरे साथ-साथ सहने पड़े उसका वर्णन मैं नहीं करूँगी। इलाज पूरा तो हो गया लेकिन उसके बाद भी, आरंभ में हर सप्ताह, फिर हर पखवाड़े, फिर हर माह और बाद में प्रत्येक छः माह के अंतराल पर, अगले पाँच वर्षों तक जाँच कराने का परामर्श दिया गया। यह जाँच इसलिए आवश्यक थी कि कई बार यह रोग दोबारा प्रकट हो जाता है। एक जाँच में यह पाया गया कि जिस प्रकार की गाँठ मेरे रोग में बन रही थी, उसके बनने में मेरे ही शरीर में बनने वाला एक हार्मोन ‘एस्ट्रोजन’ सहायता करता है, अतः अगले पाँच वर्षों तक मुझे ऐसी दवाई खानी पड़ेगी जिससे मेरे शरीर में एस्ट्रोजन का स्तर बहुत कम रहे और ट्यूमर के विकसित होने की सम्भावना कम से कमतर रहे। मरता क्या न करता! रोग का डर ही ऐसा था कि दवा खाने से इंकार नहीं किया जा सकता था। आख़िर जान है तो जहान है!
कहने को तो लोग चिकित्सकों को ईश्वर का रूप मानते हैं परन्तु वास्तव में होते तो चिकित्सक भी मनुष्य ही हैं और अपने कष्ट निवारण के लिए उनके पास जाने वाले रोगी भी मनुष्य ही हैं, तो जिस डॉक्टर को भगवान मानकर उनके पास कष्ट निवारण के लिए जाया जाता है, उन्हीं से यदि कोई ग़लती हो जाए या कभी-कभी तो अपना भाग्य ख़राब होने से ही ऐसी स्थिति आती है कि बेचारे डॉक्टरों की जान तक ले लेने को पीड़ित पक्ष तत्पर हो जाता है। ऐसी स्थिति के कारण आजकल गंभीर रोग से पीड़ितों का इलाज करने से पूर्व संभावित ख़तरों, दवाओं के साइड इफ़ेक्ट्स् आदि पीड़ित और उसके परिजनों को विस्तार से बता दिए जाते हैं, कम से कम मुझे तो समझा ही दिए गए थे। सब कुछ जानना इसलिए भी आवश्यक था कि अगले पाँच वर्षों तक यह सब होना था और शरीर तो आख़िर मेरा ही था न! रोग को दूर रखने के लिए जो दवा दी जानी थी, उसके साइड इफ़ेक्ट्स थे, चिड़चिड़ापन, सर के बालों की कमी (झड़ना नहीं, क्योंकि गंजी तो मैं रसायन चिकित्सा से ही हो चुकी थी, लेकिन उम्मीद यही थी कि बाल आ जाएँगे) अब इस बचाव की दवा का यह असर हो सकता था कि बाल बहुत कम वापस आएँ, मेरे शरीर में कैल्शियम की मात्रा बहुत कम हो जाए और हड्डियाँ नरम हो जाएँ, बुढ़ापा बहुत शीघ्र जाए आदि आदि आदि। मज़े की बात यह है कि डॉक्टर क़ानूनी मज़बूती के लिए साइड इफ़ेक्ट्स की बात तो समझाते हैं, साथ ही यह भी कहते जाते हैं कि अगर आप सारे साइड इफ़ेक्ट्स जान लें तो इलाज ही नहीं करवा पाएँगे। अब बताइए, बेचारा मरीज़ करे भी तो क्या करे! हर हाल में इलाज तो जारी रखना ही था। यदि केवल अपने मन की बात हो तो शायद मैं इस रोगरोधी कार्यक्रम के लिए ‘हाँ’ न करती। परन्तु मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और निकटतम समाज अपना परिवार! तो परिवार की तो बात माननी ही पड़ती है! तो मेरा बचाव का कार्यक्रम आरंभ हुआ। ‘अरीमिडेक्स’ नाम की दवा जिसका दाम लगभग ₹10,000 प्रति माह का था, मुझे दी जाने लगी। इस दवा को लेना आरंभ करने के एक-महीने के बाद ही मेरी उँगलियों के जोड़ों में दर्द रहने लगा, तो मुझे कैल्शियम की, ढेरों-ढेर गोलियाँ खाने को दी जाने लगीं ख़ैर भोजन कम गोलियाँ अधिक का सिलसिला चल निकला।
एक दिन छत पर लगे मकड़ी के जाले साफ़ कर रही थी, हाथ में लंबे डंडे वाला झाड़ू था। अचानक लगा कि आँख में कोई कण-सा आ पड़ा है। सिर झटक कर आँखें मलने लगी तो एक ही हाथ में पकड़ने से झाड़ू के साथ मेरा भी संतुलन बिगड़ा और कलाई, पास रखी एक प्लास्टिक की कुर्सी से टकरा गई। आँख साफ़ कर लेने के बाद जब फिर जाले हटाने को तत्पर हुई तो लगा, बायाँ हाथ तो झाड़ू का हत्था पकड़ ही नहीं सकता था। धीरे-धीरे दर्द भी बढ़ने लगा था। जब दर्द की तीव्रता बढ़ती ही गई तो, डॉक्टर को दिखाना ज़रूरी हो गया। वहाँ पता लगा कि बाएँ हाथ की कलाई की हड्डी टूट गई है। अब तक प्रतिरोधी दवा को लेते हुए 6 मास हो गए थे। जब मासिक परीक्षण के लिए कैंसर अस्पताल गई तो डॉक्टर ने बताया कि दवा के साइड इफ़ेक्ट से हड्डियाँ कमज़ोर हो रही हैं, अतः मुझे नसों के द्वारा कैल्शियम और आयरन दिया जाना चाहिए। उसके लिए एक दिन अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा। चलिए साहब वह भी करवा लेंगे क्योंकि यदि ऐसा नहीं करवाया तो टूटी हड्डी जुड़ने में भी समय लग सकता था या फिर हड्डी के ना जुड़ने की भी सम्भावना थी। नसों से दवाएँ शरीर में प्रविष्टि कराई गई कलाई की हड्डी भी थोड़ी टेढ़ी ही सही पर जुड़ गई अभी एक प्लास्टर कटे छह सात माह हुए होंगे कि फिर एक कांड हो गया।
हम अपने पैतृक शहर बनारस गए थे, संबंधियों से मिलने। हमने साइकिल रिक्शा की सवारी की। ई-रिक्शा के आने से पहले बनारस या वाराणसी की सबसे लोकप्रिय सवारी यही साइकिल रिक्शा ही थी। हम पति-पत्नी अपने शहर की रंगीनियां देखते हुए, बीते दिनों की मधुर यादों में खोए हुए, बातें करते रिक्शे पर जारहे थे। अचानक हमारे रिक्शे से आगे चल रहे रिक्शाचालक ने अपने रिक्शे में ब्रेक लगाया। हमारा युवा रिक्शावाला भी अपनी उम्र के जोश में, तेज़ी से रिक्शा ले जा रहा था, सो थोड़ी टकराहट स्वाभाविक थी। रिक्शा झटके से रुका, मैं छिटक कर रिक्शे से नीचे गिरी और गिरते-गिरते ऐसा लगा कि दाहिने हाथ को कहीं झटका-सा लगा है। उठकर खड़ी हुई तो सारा शरीर एकदम स्वस्थ लगा, परन्तु दाहिने हाथ में थोड़ा सा दर्द था। कुछ ही दूरी पर ‘मारवाड़ी अस्पताल‘ था, वहाँ जाकर कुछ दवा ले लेना हम लोगों को ज़रूरी लगा। जो डॉक्टर इमरजेंसी ड्यूटी पर था, उसने हाथ को हिला-डुला कर देखा। फिर लकड़ी का एक फुट रूलर ख़रीद कर मँगवाया और उसका सहारा देकर हथेली, कलाई से लेकर लेकर छ:सात इंच की चौड़ाई में हाथ पर कसकर पट्टी बाँध दी। दर्द निवारक दवा की चार गोलियाँ देकर जल्द ही अस्थि-विशेषज्ञ को दिखाने की सलाह देकर विदा कर दिया। जब विशेषज्ञ को दिखाया तो पता चला कि कलाई की हड्डी इस हाथ की भी टूट गई है।
मैं जो अपने बचपन में अपनी कूद-फाँद, दौड़-भाग के लिए 'खिलंदड़ी' कहलाती थी, घर की छत से आँगन में शर्त लगाकर कूद जाती थी, अमरूद के पेड़ से कई-कई बार गिरी थी, उसे तो कभी खरोंच भी नहीं आई थी। जवानी में जिसको दुस्साहसी कारनामों के कारण 'झांसी की रानी' की उपाधि मिली थी, उसकी हड्डियाँ ऐसी हो गई कि ज़रा, ज़रा से झटकों से वर्ष भर में दो बार टूट गईं!! दवा के साइड इफ़ेक्ट्स ने मुझे तेज़ी से हावी होते बुढ़ापे और जीवन की क्षण भंगुरता पर अटल विश्वास करने को विवश कर दिया था!
बात यहीं तक नहीं रुकी जब दाहिनी कलाई ठीक से जुड़ गई। सैकड़ों कैल्शियम की गोलियाँ खा चुकी; दो बार नसों से कैल्शियम और आयरन शरीर में डलवा चुकी। तब फिर एक बार दाहिने पैर की हड्डी रिक्शा के लड़खड़़ने के कारण टूट गई। इस बार तो गंगा स्नान करने के लिए जाते समय गिरी और दुर्घटना हो गई। कहते हैं ना हवन करते हाथ जले और इस बार तो विशेषज्ञ ने यहाँ तक कह दिया कि ऑपरेशन करके अंदर प्लेट लगानी होगी। लेकिन दूसरी राय लेने और नया एक्सरे करवाने पर स्थिति इतनी जाती नहीं पाई गई और दो-तीन माह में पैर ठीक हो गया। इधर जाँच नियमित होती रहती थी।
टाँग की हड्डी के ठीक होने के बाद। जब अस्पताल जाँच के लिए गई तो एक नया डॉक्टर मिला उसने जब पिछला इतिहास देखा तो थोड़ा निराश हुआ और मेरे साथ उसे कुछ सहानुभूति भी हुई। अब उसने मेरे पूरे शरीर की हड्डियों की सघनता और घनत्व की जाँच कराई। रिपोर्ट आने पर पाया गया कि जो कैंसर प्रतिरोधी दवा मुझे दी जा रही है, उसके साइड इफ़ेक्ट के कारण हड्डियाँ पतली और हल्की होती जा रही हैं। अब उसने एरिमिडेक्स दवा एकदम बंद कर देने की सलाह दी . . . साथ ही एक रहस्य भी मुझसे साझा किया। उसने कहा, “आप तो बहुत बहादुर हैं जो दो वर्ष तक इस दवा को झेल गईं। कई लोग तो छह महीने बाद ही इतने दुर्बल हो जाते हैं कि दवा आगे देना असंभव हो जाता है।”
स्वाभाविक रूप से मेरा प्रश्न था कि फिर आप लोग ऐसी दवा देते ही क्यों है? उसका उत्तर था कि जैसे मैं दो वर्ष तक इसे झेल गई, कुछ लोग इससे भी अधिक वर्षों तक इस दवा का सेवन कर कैंसर के भय से मुक्ति पा सकते हैं। यदि एक जीवन भी यह दवा बचा सकी तो चिकित्सा जगत के लिए यह उपलब्धि मानी जाएगी। उस दिन यह तथ्य भी समझ में आया कि समष्टि के लिए के लिए व्यष्टि का बलिदान तर्क संगत है, हम सामाजिक प्राणी जो हैं। वह दवा तो बंद हो गई लेकिन कुछ और दवाई चलती ही रहीं। धीरे-धीरे मेरे शरीर के जोड़ों में रहने वाला दर्द ख़त्म हो गया। हालाँकि कुछ समय बाद हाथ की एक उँगली की हड्डी फिर टूटी लेकिन कुल मिलाकर मैं अपने को पहले से अधिक स्फूर्तिवान और सहज लगने लगी।
5 वर्षों के बाद मुझे कैंसर प्रतिरोधी सभी दावों से मुक्ति मिल गई और चिकित्सकों ने मुझे कैंसर मुक्त घोषित किया साथ ही यह भी सलाह दी कि हर वर्ष एक सामान्य व्यक्ति की तरह मुझे अपने स्वास्थ्य की जाँच नियमित करानी चाहिए।
तबसे अब तक कई वर्ष बीत गए हैं, मैं अपने को पूर्ण स्वस्थ और प्रसन्न पाती हूँ, और साथ ही मन ही मन यह निश्चय करके बैठी हूँ कि गंभीर साइड इफ़ेक्ट्स् वाली दवाएँ कभी नहीं खाऊँगी! परन्तु क्या मेरा प्राण सदैव स्थिर रह पाएगा?
जब ‘जीवन’ और ‘साइड इफ़ेक्ट्स्’ के बीच चुनाव की घड़ी आएगी तब, क्या जीवन के मोह का पलड़ा सदैव भारी नहीं हो जाएगा? और साइड इफ़ेक्ट्स का ज्ञान ‘एसाइड’ ही धरा नहीं रह जाएगा???
1 टिप्पणियाँ
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बहादुर सरोजिनी जी, आप ने जिस सहजता से इस निष्ठुर रोग का सामना कर उस पर विजय पाई, आप तो वास्तव में अभी भी 'झांसी की रानी' ही हैं। प्रभु आपको लम्बी आयु प्रदान करे और मेरी मनोकामना है कि आपके परिवार सहित हम भी आपको इसी प्रकार सदैव स्वस्थ व हँसता-मुस्कुराता पायें।
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