शरद पूर्णिमा तब और अब
सरोजिनी पाण्डेय
शरद पूर्णिमा के शुभ संदेशों का प्रभात
जब आया,
मुझे अपने बचपन के शरद पूनम का दिन
याद आया,
पीतल की चमचमाती बटलोई में माँ दूध चढ़ाती थी,
चावल मिश्री मेवे डाल मधुर क्षीरान्न बनाती थी,
इलायची केसर की सुगंध हमें ख़ूब ललचाती थी,
परन्तु दिनभर उस खीर का रस,
रसना कहाँ ले पाती थी!
संध्या समय
सूर्यास्त के बाद
जब हवा कुछ ठंडी हो जाती थी,
खीर से भरी पतीली
छत पर ले जायी जाती थी,
खीर का लालच
हमें छत पर खींच ले जाता था
कीट, पतंगों से खीर की रक्षा का काम
हमसे करवाया जाता था,
हम भी इस काम में मुस्तैदी से लग जाते थे,
कभी हथ-पंखा, कभी हाथ,
और कभी अख़बार हिलाकर,
खीर को दूषित होने से बचाते थे,
इंतज़ार रहता था थाली जैसे चाँद के
आकाश में चढ़कर आने का,
अपनी किरणें को खीर पर बरसा
उसे ‘अमृतमय’ बनाने का।
सूरज के क्षितिज में ढलते ही
गोल उजला चाँद निकल आता था,
हाँ! छत पर चढ़ने में थोड़ा समय
ज़रूर लगाता था।
दूसरी तरफ़ पिताजी कुछ और भी समझाते थे,
धवल शरद-चंद्रिका में हमसे धार्मिक पुस्तक पढ़वाते थे,
बताते थे पिताश्री
“यह शरद चंन्द्रिका” वरदायिनी है,
हमारे नेत्रों की ज्योति बढ़ाने,
पृथ्वी पर आई है
जो इसमें पढ़ेगा,
सशक्त नेत्र पाएगा,
विद्या का सच्चा अर्थ
उसको ही समझ में आएगा,
योगेश्वर कृष्ण की कृपा पढ़ने वालों पर बरसेगी,
सकारात्मक ऊर्जा सदैव हृदय में सरसेगी।
खीर के लोभ में हम यह सब कर गुज़र जाते थे,
तब कहीं जाकर देर रात गए,
अमृतमय क्षीर का रसास्वादन कर पाते थे।
बचपन की याद कर
मैंने भी खीर बनाई,
शरद-चंद्रिका से बरसता,
अमृत रस मिलाने को,
छत के अभाव में,
उसे फ़्लैट की बालकनी में रख आई।
पर हाय रे विडंबना!!!
ऐसा कुछ न हो पाया
प्रदूषण के कारण उजला चाँद
निकल ही नहीं पाया,
शरद-पूर्णिमा का वह शुभ-निर्मल-
मधुर-मदिर पूर्ण चंद्र,
जिसे देखकर आनंद मग्न हो गए थे,
मोहन, श्री कृष्णचंद्र,
किया था यमुना तट पर
मोक्षदायी! महारास
उस दिन पूरी कर दी थी
हर गोपीका के मन की आस,
उस परम, अमृतमय इन्दु के दर्शन
हम कहाँ कर पाए?
धुएँ, धूल, प्रदूषण से तो बेचारे
चंदामामा भी घबराए?
मुख चन्द्र अपना वे आवरण से ढके रहे,
करने को दर्शन उनका
पृथ्वीवासी तरसते रहे।
हम अपने किये कर्मों पर ही
सिर धुन-धुन पछताए,
अमृतरस की एक बूँद भी
हम कहाँ चख पाए?
त्योहार का सच्चा अर्थ तिरोहित होगया।
अब तो व्हाट्सएप। पर केवल संदेश भेजना
और पाना ही रह गया!
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