जैतून

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 245, जनवरी द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

मूल कहानी: ऑलिवा; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (ऑलिव); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स

प्रिय पाठक, 

इन दिनों जिन इतालवी लोक कथाओं का अनुवाद करके मैं आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूँ, उनका अनुवाद करते हुए मेरा प्रयत्न रहता है कि मैं उन्हें ऐसे परिवेश में प्रस्तुत करूँ कि वे हमें अपनी धरती से जुड़ी प्रतीत हों। अधिकांशतः कथावस्तु अपरिवर्तित रखते हुए कथाओं के शीर्षक बदल देती हूँ कि नामों से भी भारतीयता प्रकट हो। आज की प्रस्तुति में नाम और धर्म सभी मूल कथा के ही हैं, कारण यह है कि कथा में ‘धर्माँधता’ पर बल है, जो किसी भी धर्मानुयायी के लिए कलंक के समान है। आशा है कथा अपने उद्देश्य में सफल रहेगी, धर्म का नाम चाहे जो हो:

 

किसी समय की बात है, एक धनवान यहूदी व्यापारी की पत्नी शिशु-जन्म के समय परलोक सिधार गई और कन्या-शिशु को बिन-माँ के छोड़ गई। व्यापारी यहूदी कन्या का पालन पोषण स्वयं कर पाने में असमर्थ था अतः उसने अपने एक विश्वासपात्र, दयालु ईसाई किसान के परिवार को यह पुत्री सौंप दी कि वे उसका पालन-पोषण करें, बदले में उन्हें धन दिया जाएगा। पहले तो ईसाई ने इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी लेने में बड़ी ना-नुकर की, “मेरे अपने बच्चे हैं,” उसने कहा, “मैं आपकी बेटी को आपके धर्म के अनुसार पाल भी नहीं पाऊँगा। जब वह हमारे बच्चों के साथ रहेगी तब वह भी वैसा ही करना चाहेगी।”

“इससे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,” यहूदी व्यापारी बोला, “मेरे पर एहसान करो और बच्ची को रख लो। मैं तुम्हें इस काम के लिए अच्छी रक़म भी दूँगा। अगर मैं बच्ची के दस साल का होने तक भी ना लौटूँ, तो फिर तुम उसके साथ जो चाहे कर सकते हो। क्योंकि दस साल में न लौट पाने का मतलब है कि मैं कभी नहीं लौट पाऊँगा और बच्ची हमेशा के लिए तुम्हारी हो जाएगी। शायद उसी में सबका भला हो।” 

यहूदी और उसके मित्र में समझौता हो गया और व्यापारी नन्ही बेटी को ईसाई किसान को सौंप अपने व्यापार को सँभालने दूसरी जगहों के लिए चल पड़ा। बच्चों का पालन-पोषण किसान की पत्नी करने लगी। बिटिया इतनी शांत, सुंदर और प्यारी थी कि वह जल्दी ही उसकी लाड़ली बन गई। वह इस बच्ची को भी अपनी संतान ही समझने लगी, माँ जो ठहरी . . .

बच्ची धीरे-धीरे चलने, बोलने और परिवार के बच्चों के साथ खेलने-कूदने लगीं, सारे काम वह घर के अन्य बच्चों की ही तरह करती थी, लेकिन उस बच्ची से कभी कोई बात धर्म या धार्मिक उपदेशों के बारे में नहीं कही जाती थी। वह अन्य सभी बच्चों को प्रार्थना करते देखी थी लेकिन धर्म क्या है इस बात से वह दस वर्ष होने तक अनजान ही बनी रही। जब लड़की दस साल की हो गई, तब किसान और उसकी पत्नी व्यग्रता से व्यापारी की प्रतीक्षा करने लगे कि वह आकर बेटी को ले जाए। लेकिन दसवाँ साल बिता, ग्यारहवाँ भी बीत गया, बारह, तेरह और चौदह भी बीत गए लेकिन व्यापारी का अभी तक कोई अता-पता न था। अब इन दोनों पति-पत्नी को लगा कि शायद व्यापारी कहीं मर-खप गया। 

“हमने बहुत लंबा इंतज़ार कर लिया, अब इस बेटी का भी बपतिस्मा कर देना चाहिए।” फिर उन्होंने उसका धर्म-प्रवेश कराया और नामकरण तो इतनी धूमधाम से किया कि उसकी चर्चा सारे शहर में बहुत दिनों तक होती रही। नाम रखा गया ‘जैतून’। वह गृह कार्यों में निपुण होने और साक्षर होने के लिए स्कूल जाने लगी। अट्ठारह साल की होते-होते वह चतुर और कुशल, नम्र, सुंदर और सब की चहेती नवयुवती बन गई। अब ईसाई किसान और उसका परिवार चिंता मुक्त और प्रसन्न था। 

अचानक एक दिन उनके दरवाज़े पर दस्तक हुई और किसान का पुराना मित्र यहूदी व्यापारी द्वार पर आ खड़ा हुआ, बोला, “अपनी बेटी लेने आया हूँ।”

“अरे! तुम?” किसान की पत्नी हैरान-परेशान होकर बोली, “तुमने तो कहा था कि अगर तुम दस बरस तक ना लौटो तो हम उसे अपनी बेटी मान लें और उसे जैसा चाहे रखें। अब तो वह अट्ठारह बरस की है। तुम्हारा अब उस पर कोई अधिकार नहीं है हमने उसको ईसाई बना लिया है, अब जैतून एक ईसाई लड़की है।”

“मुझे इसकी कोई परवाह नहीं,” यहूदी बोला, “मैं इसके पहले न आ सका तो न आ सका लेकिन वह मेरी बेटी है और मैं उसे लेकर ही जाऊँगा।”

“हम उसे नहीं ले जाने देंगे,” किसान का पूरा परिवार एक साथ बोला। बड़ा ज़बरदस्त झगड़ा हुआ अंतत: यहूदी अदालत तक कब पहुँच गया और वहाँ फ़ैसला उसके पक्ष में हुआ क्योंकि वह उसकी औरस पुत्री जो थी! 

अब किसान और उसे परिवार के सामने जैतून को पिता के हवाले कर देने के सिवाय कोई और चारा न था। वह सब फूट-फूट कर रोए और सबसे ज़्यादा तो जैतून ही रोई क्योंकि उसका पिता उसके लिए तो ही अजनबी था! आँसुओं की धार के साथ उसने किसान परिवार से विदा ली जो अब तक उसके लिए अपना परिवार था। विदाई के समय किसान की पत्नी ने जैतून की अन्य प्रिय वस्तुओं के साथ एक बाइबिल भी उसे दी और धीरे से कहा कि वह कभी ना भूले कि वह ईसाई है। 

अपने घर पहुँच कर व्यापारी ने सबसे पहली बात जो अपनी बेटी से कही वह थी, “हम यहूदी हैं और तुम्हें भी यहूदियों की भाँति अपने विचार और विश्वास रखना चाहिए। भगवान ना करें कि मैं कभी तुमको वह किताब पढ़ते हुए देखूँ जो उस किसान की पत्नी ने तुम्हें दी है। देख लूँगा तो क्या करूँगा यह मैं भी नहीं जानता, शायद पहली बार तो उसे आग में झोंक दूँ और तुम्हें पीटूँ और दूसरी बार अगर पकड़ी गईं तो तुम्हारे हाथ काट कर घर से बाहर निकाल दूँगा। याद रखना मैं अपने इरादों का पक्का हूँ।”

पिता की धमकियों के कारण जैतून ऐसा दिखावा करने लगी मानो वह यहूदी ही हो लेकिन वह अपने कमरे में बंद होकर, अपनी विश्वासपात्र सेविका को बाहर बैठा कर, बाइबिल पढ़ती और प्रार्थना करती थी। यह सभी सावधानियाँ बरतती गई लेकिन एक दिन उसके पिता ने उसे घुटनों पर बैठकर पुस्तक पढ़ते देख लिया और ग़ुस्से में भरकर किताब आग में फेंक दी और जैतून की ख़ूब पिटाई की। 

जैतून इस बात से नहीं घबराई और चुपके से नौकरानी से दूसरी किताब मँगवा ली और उसका नियमित पाठ भी करती रही। उधर इसका पिता भी सावधान हो गया था और चुपके-चुपके उस पर निगरानी रखने लगा। दैवयोग से एक दिन उसने फिर जैतून को रंगे हाथों पकड़ लिया। बिना कुछ कहे वह उसे रसोई में ले गया हाथ फैलाने को कहा और एक तेज़ धारदार चाकू से उसके दोनों हाथ काट दिए और फिर उसे ले जाकर जंगल में छोड़ आया। 

जैतून अधमरी होकर जंगल में पता नहीं कितनी देर पड़ी रही। होश सँभालने पर धीरे-धीरे उठकर एक और चल पड़ी। चलते-चलते वह एक बड़े महल के सामने पहुँची। उसने सोचा कि भीतर जाकर भीख माँगे। वह दरवाज़ा खोजने लगी लेकिन महल हर ओर से ऊँची दीवार से घिरा था, द्वार कहीं न था। चार दिवारी के अंदर एक बग़ीचा था। नाशपाती के कुछ पेड़ों की डालियाँ दीवार के ऊपर से बाहर झुकी हुई थीं, जिनमें पकी हुई, पीली नाशपातियाँ लगी थीं। 

“काश, मैं इनमें से बस एक नाशपाती खा पाती! पर मेरे तो हाथ भी नहीं है।” 

जैतून के मुख से यह शब्द अभी निकले ही थे कि दीवार एक जगह से खुल गई और नाशपाती की डालें इतनी झुक गईं कि बिना हाथों वाली जैतून उन्हें सीधे मुँह से ही खाने लगी। जब वह भरपेट खा चुकी तो डालें फिर ऊपर चली गईं और दीवार भी जुड़ गई। जैतून फिर से जंगल में चली गई। उसका यह नियम बन गया कि दिन में दोपहरी के समय वह बग़ीचे तक आती, पेट भर फल खाती और फिर जंगल में रात बिताती। 

नाशपातियाँ बहुत बढ़िया थीं। एक दिन महल के स्वामी राजा जब बाग़ में घूम रहे थे, तब उन्होंने उनका स्वाद लेना चाहा। एक सेवक नाशपाती तोड़कर लाने के लिए भेजा गया। सेवक परेशान सा होकर आया और राजा को बताया, “मालिक, ऐसा लगता है कि कोई जानवर वहाँ आता है और पेड़ पर लगे फलों को कुतर जाता है।”

“हम उसे ज़रूर पकड़ेंगे जो हमारे फल ख़राब कर रहा है,” राजा ने कहा। 

उसने पेड़ की डालियों के बीच में एक झोपड़ी बनवाई और रात में उसी में बैठकर पहरा देता, दिन में अपना राजकाज देखता। रात भर पहरा दे देकर राजा अपनी नींद खोता रहा लेकिन फलों को तो तब भी कोई कुतरता ही रहा। 

अब राजा ने दिन में निगरानी करने का तय किया। जब सूरज चमचम चमकने लगा तब दोपहर में उसने देखा कि दीवार खुल गई, डालें झुक गईं और एक लड़की एक के बाद दूसरी नाशपाती कुतर-कुतर कर खाने लगी। राजा जो बंदूक का निशाना लगाने बैठा था, हैरान रह गया। उसके हाथ से हथियार छूट गया, बस वह फलों को कुतरने वाली सुंदरी को निहारता ही रहा और अचानक ही वह ग़ायब हो गई। दीवार फिर से जुड़ गई। 

उसने अपने सेवकों को बुलाया और जंगल से उस सुंदर लड़की को ढूँढ़ लाने को कहा। उन्हें वह एक पेड़ के नीचे सोती हुई मिल भी गई।

“तुम कौन हो?” राजा ने कड़क कर पूछा, “मेरे बग़ीचे में चोरी करने की हिम्मत भी तुमने कैसे की? मैं तो तुम पर बंदूक चलाने वाला था।”

उत्तर में जैतून ने राजा को अपने ठूँठे हाथ दिखा दिए। 

“हाय, हाय,” राजा के मुँह से निकला, “किस दुष्ट, निर्दयी ने तुम्हारे साथ ऐसा किया है?” उसकी दुखद कहानी सुनकर राजा का मन दया और करुणा से भर गया, “नाशपाती की बात तो अब जाने दो। तुम हमारे महल में रहो। मेरी माँ ज़रूर तुम्हें अपना लेगी।”

जैतून को राजमाता के पास ले जाया गया लेकिन उन्हें दीवार खुलने, डालियों के झुकने की बात एकदम नहीं बताई गई, डर इस बात का था कि वह सब सुनकर राजमाता उसे चुड़ैल ना समझ लें। राजमाता ने उसे रखने से इंकार तो नहीं किया लेकिन उनके हृदय में जैतून के लिए कोई ममता भी न जागी। वह जानती थीं कि उसका बेटा इस अपंग लड़की की सुंदरता में फँस गया है। 

कुछ दिन बाद राजमाता ने अपने बेटे के मन से जैतून का मोह मिटाने की मंशा से कहा, “बेटा अब तुम्हारी उम्र निकली जा रही है, शादी कर लो! घोड़े, नौकर, पैसा सब साथ ले लो और अपने लिए एक दुलहन खोज लाओ।”

माँ की इच्छा को आज्ञा समझ कर राजा साज-बाज़ के साथ अपने लिए जीवन संगिनी ढूँढ़ने निकल गया। 

छ्ह महीने तक अनेक शहरों, राज्यों, दरबारों में गया और लौटकर आ गया। 

माता को बताया, “माँ मुझसे नाराज़ न होना, संसार में अच्छी राजकुमारियों और सुन्दरियों की कमी नहीं है। लेकिन मैं अपने मन का क्या करूँ, जिसे जैतून से बढ़कर सुंदर दयालु, शीलवती कोई नहीं मिली। मैं उसी से शादी करूँगा।”

“तुम्हारा दिमाग़ ख़राब तो नहीं हो गया है? जंगल में मिली एक अपाहिज लूली को अपनी पत्नी बनाकर क्या अपनी इज़्ज़त मिट्टी में मिला लोगे? हमें उसके जन्म-परिवार, कुल-ख़ानदान के बारे में कुछ भी तो मालूम नहीं,” माता बिफर कर बोली, लेकिन उसकी सारी बातों की ओर से तो उसका बेटा मानो बहरा ही हो गया था। बिना समय गँवाए उसने जैतून से शादी कर ली। बहू के रूप में एक अनजान कुल-गोत्र-परिवार की, बिना हाथों वाली लड़की को सहज स्वीकार करना राजमाता की सहन-सीमा के बाहर की बात थी। ‌ ‌उन्होंने बेटे की पीठ पीछे उसे सताना और उससे दुर्व्यवहार करना शुरू कर दिया। लेकिन जैतून दृढ़ चरित्र वाली लड़की थी, सब सहती रही, कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। 

कुछ समय में जब जैतून गर्भवती हुई तो राजा की ख़ुशियों का ठिकाना ना रहा। लेकिन उसकी ख़ुशी अधिक समय तक न रह सकी, पड़ोसी राजाओं ने उसके ऊपर आक्रमण कर दिया और उसे सेना लेकर उनका मुक़ाबला करने के लिए जाने पर विवश होना पड़ा। 

युद्ध में जाने से पहले राजा अपनी माता के पास गए और उनसे जैतून का विशेष ध्यान रखने की प्रार्थना की। परन्तु राजमाता ने साफ़ इनकार कर दिया और बताया कि इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी वह नहीं ले सकती वह तो स्वयं संन्यास लेने के लिए आश्रम जाने वाली है। अब जैतून को महल में अपने भरोसे ही रहना था। राजा ने जाते-जाते उससे रोज़ अपना समाचार भेजने रहने की विनती की और राज्य की रक्षा के लिए चल पड़ा। रानी माँ आश्रम की ओर चलीं। 

महल में रह गए जैतून, सेवक-सेविकाएँ और दरबारी-कर्मचारी। रोज़ एक दूत समाचार लेकर राजा के पास भेजा जाता। 

इस बीच राजमाता की एक बुड्ढी मौसी अक़्सर महल और आश्रम के बीच आती-जाती रहती और राजमाता को महल के समाचार देती रहती थी ‌। 

समय आने पर जैतून ने दो सुंदर जुड़वा बच्चों को जन्म दिया। बुड्ढी मौसी से यह समाचार पाकर राजमाता आश्रम से महल इसलिए लौट आईं कि वह बहू और बच्चों का ध्यान रखेंगी। कुछ ही दिन बाद उन्होंने पहरेदारों को बुलाकर जैतून को बिस्तर से नीचे पटकवा दिया, दोनों बच्चे उसकी दोनों काँखों में दबवाकर बेचारी को जंगल में भिजवा दिया, जहाँ से वह लाई गई थी। 

“इसे जंगल में डाल आओ और भूख प्यास से मरने दो,” राजमाता ने सेवकों को धमकाया, “अगर किसी ने इस बारे में कभी ज़ुबान खोली तो उसका सर ज़मीन पर लुढ़का दिया जाएगा!” इसके बाद राजमाता ने अपने बेटे को पत्र लिखा कि उसकी पत्नी जैतून, शिशु-जन्म में मर गई और दो नवजात भी न बच सके। 

पुत्र को विश्वास हो जाए इसलिए मोम के तीन पुतले बनवाकर राजकीय कब्रगाह में उनको दफ़नाने और अंतिम संस्कार करवाने का स्वाँग भी कर लिया गया। राज्य में शोक की घोषणा कर दी गई। 

इधर युद्ध भूमि में लड़ता राजा तो इस शोक सभा में भी न पहुँच पाया और न ही उसे अपनी माता पर कोई संदेह हुआ। 

अब हम जैतून की तरफ़ चलें, भूखी-प्यासी, कमज़ोर जैतून, बिना हाथों वाली जैतून, अपने नवजात शिशुओं को अपनी दोनों बग़लों में दबाये भटकते-भटकते एक तालाब तक आ पहुँची। वह चलते-चलते पानी तक भी पहुँच गई। वहाँ एक नाटी-सी धोबिन स्त्री कपड़े धो रही थी

“प्यारी बहन,” जैतून बोली, “मैं प्यास से मर रही हूँ! इन कपड़ों से थोड़ा पानी मेरे मुँह में निचोड़ दो, तुम्हारा उपकार होगा।”

उस स्त्री ने कहा, “ना, तुम ख़ुद घुटनों के बल बैठकर सीधे तालाब से पानी पी लो!”

“मैं ऐसा कर नहीं सकती, मेरे दोनों बच्चे मेरी दोनों काँखों में दबे हैं,” जैतून ने प्रार्थना की। 

“कोई बात नहीं, झुको और ख़ुद पानी पियो,” धोबिन दृढ़ स्वर में बोली। 

मरता क्या न करता, प्यासी जैतून झुक कर अभी पानी तक पहुँची ही थी कि एक के बाद एक उसके शिशु उसकी काँख से सरक कर ताल के पानी में गिर गए। 

“हाय मेरे बच्चे,! हाय हाय, मेरे बच्चे, बहन वे डूब रहे हैं, उन्हें बचा लो!” जैतून बिलख उठी। 

लेकिन कपड़े धोती स्त्री टस से मस न हुई, “घबराओ मत, वे डूबेंगे नहीं, तुम उन्हें बाहर खींच लो।” स्त्री शांत स्वर में बोली। 

“क्या तुम देख नहीं रही हो! मेरे हाथ नहीं है, मैं इन ठूँठों से क्या कर सकती हूँ?” सिसकते हुए जैतून बोली। 

“अपने ठूँठों को ही पानी में डालो तो सही!”

जैतून ने अपने हाथों को पानी में डाल दिया। उसे लगा कि हाथ में कुछ विचित्र सी हलचल हो रही है। उसने पानी में बच्चों को छुआ और अपने ही हाथों बच्चों को एक-एक कर सुरक्षित वापस खींच लिया, उसके पंजे उग जो आए थे। 

“लो, अब तुम किसी की मोहताज नहीं, अपनी राह जाओ,” ऐसा कहते हुए वह दयालु धोबिन जैतून के कुछ कहने से पहले ही वहाँ से ग़ायब हो गई। 

जंगल में सिर छुपाने की जगह खोजते-खोजते जैतून एक नई बनी कोठी के सामने आ पहुँची! कोठी के दरवाज़े पटापट खुले थे। वह आसरा माँगने के लिए डरते-डरते भीतर घुसी। घर में कोई दिखाई नहीं दिया, लेकिन रसोई में भोजन पक रहा था और खाना बनाने की बहुत-सी सामग्री भी आसपास रखी थी। उसने भरपेट खाना खाया, बच्चों को दूध पिलाया और घर को घूम कर देखने लगी। उसे कोई दिखाई नहीं पड़ा, हाँ एक कमरे में एक पलंग और दो पालने ज़रूर थे। जैतून वहीं रहने लगी। समय को तो बीतना ही था, बीत रहा था। 

अब हम राजा की तरफ़़ रुख़ करते हैं—युद्ध विराम के बाद राजा अपनी राजधानी लौटे, जहाँ शोक मनाया जा चुका था। राजा भी अपनी पत्नी और बच्चों के शोक में डूब गया। माँ ने उसे धीरज बँधाने और बहलाने की बड़ी कोशिशें कीं, लेकिन सब बेकार, उसकी उदासी और गहराती चली गई। काफ़ी समय बीत गया। 

समय के साथ राजा ने अपने को सँभालने की सोची। एक दिन राजा मन बहलाने की नीयत से जंगल में शिकार खेलने चला गया। कुछ समय बाद ही तूफ़ान आया, तेज़ आँधी चलने लगी बरसात होने लगी, ऐसा लगता था मानो दुनिया नष्ट हो जाएगी। ऐसे में राजा सोचने लगा ‘कितना अच्छा हो कि मैं यहीं मर जाऊँ, जैतून और बच्चों के बिना ज़िन्दगी जीना बेकार है’। 

लेकिन जब तक जीवन है उसकी रक्षा करनी ही पड़ती है। राजा ने पेड़ों के बीच से आती एक पतली सी रोशनी की झलक देखी तो उसी ओर सहारा पाने के लिए चल पड़ा। द्वार खटकाया, जैतून ने द्वार खोला, लेकिन राजा ने जैतून को पहचाना नहीं जैतून ने कोई शब्द कहा नहीं! बस! 

प्रेम के साथ राजा को भीतर आने का इशारा किया और आग से हाथ पैर सेंक कर गर्माहट पाने को कहा। दोनों बच्चे भी राजा के पास ही आकर खेलने लगे। राजा ने स्वागत में लगी स्त्री को देखते हुए सोचा कि वह जैतून से कितनी मिलती-जुलती है लेकिन उसके हाथों के कारण उसे यह अपना भ्रम ही लगा। एक आह भरकर वह जैतून से बोला, “मेरे भी ऐसे ही बच्चे होते लेकिन मेरी बदक़िस्मती, बच्चे और उनकी माँ भगवान को प्यारे हो गए और मैं अभागा लड़ाई से भी जीवित वापस आ गया, दुख सहने के लिए।”

मेहमान के लिए सोने का प्रबंध करने के लिए जब जैतून दूसरे कमरे में गई तो बच्चे भी उसके पीछे-पीछे चले आए। बिस्तर लगाते हुए जैतून ने बच्चों को समझाया, “अब जब हम मेहमान के पास चलकर बैठेंगे तो तुम कहानी सुनाने की ज़िद करना। मैं चाहे जितना भी मना करूँ तुम ज़िद मत छोड़ना।” 

जब सब आग के पास आकर बैठे तो बच्चे कहानी माँ से कहानी सुनाने की ज़िद करने लगे। जैतून ने कई बार मना किया, पर बच्चे माँ के कहे अनुसार ज़िद पर अड़े ही रहे। उसने मेहमान को नींद आने की बात कही, एक बार तो यहाँ तक कह दिया, “अगर तुम दोनों चुप न हुए तो मैं तमाचे जड़ दूँगी।” 

इस पर राजा बोल उठे, “बेचारे बच्चे! आप इनका दिल न तोड़ें। मुझे अभी नींद नहीं आ रही है। आप कहानी सुनाइए मैं भी कहानी सुन लूँगा।” राजा के ऐसा कहने के बाद जैतून आराम से निश्चिंत हो बैठ गई और कहानी अपनी ही कहने लगी। राजा भी सावधान होकर कहानी सुनने लगे, बीच-बीच में उत्सुकता से वह कहते, “फिर क्या हुआ? फिर क्या हुआ?” क्योंकि यह कहानी उन्हें अपनी पत्नी जैतून की कहानी ही लग रही थी। बस, जैतून के कटे हाथों का रहस्य समझ में नहीं आ रहा था। कहानी का अंत आते-आते राजा रो पड़ा और बोला, “उस रानी के हाथों का क्या हुआ? उस बेचारी के तो हाथ कटे हुए थे उनका क्या रहा?” 

इस प्रश्न के उत्तर में जैतून ने धोबिन के साथ घटी घटना सुना दी, “तो तुम ही जैतून हो!” अब राजा ख़ुशी से उछल पड़ा और जैतून को गले लगा लिया। 

जब कुछ देर दोनों ख़ुशी की नदी में तैर लिए तो राजा उदास हो गया और बोला, “मुझे महल वापस जाना है और अपनी माँ को उचित दंड देना है!”

“नहीं-नहीं, बिल्कुल नहीं,” जैतून बोली, “अगर आप मुझे सचमुच प्यार करते हैं तो अपनी माँ को कोई सज़ा नहीं देंगे। वह तो अपने आप ही बहुत दुखी होगी। वे बेचारी तो सब कुछ राज्य के भले के लिए सोच कर ही कर रही थीं। मेरे मन में कोई मलाल नहीं है उनके लिए।” 

जैतून की बातें सुनकर राजा महल वापस चला गया और अपनी माता से कुछ नहीं कहा। 

बेटे को सही सलामत आया देखकर माँ बोली, “ मुझे तुम्हारी बड़ी फ़िक्र हो रही थी। जंगल में वह तूफ़ानी रात कैसे बीती बेटा?” 

“रात बड़ी अच्छी बीती माँ,” बेटा बोला। 

“क्या?” माँ हैरानी से पूछा, उसको कुछ शुबहा हो रहा था। 

“हाँ, एक दयालु परिवार ने अपने घर में रख लिया था। जैतून के चले जाने के बाद कल मैं पहली बार इतना ख़ुश हुआ हूँ,” फिर कुछ रुकते हुए राजा बोला, “माँ क्या सचमुच जैतून मर गई थी?” 

“तुम क्या बात कर रहे हो!” राजमाता बोली, “पूरा राज्य उसके अंतिम संस्कार में शामिल था!”

“मैं उसकी क़ब्र पर फूल चढ़ाना चाहता हूँ! क़ब्र अपनी आँखों से देखना चाहता हूँ,”राजा ने कहा। 

“तुम्हें भला शक क्यों हो रहा है?” राजमाता ग़ुस्से से भरी बोली, “क्या बेटे को अपनी माता से ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए?” 

“झूठ पर झूठ बोलती जाओगी क्या? माँ बहुत हो गया! जैतून, भीतर आ जाओ!” राजा कड़क कर बोला। 

दोनों बच्चों का हाथ थामे जैतून कमरे में आ गई। राजमाता जो अब तक ग़ुस्से से लाल थी, डर से पीली पड़ गई। 

उसे देखकर जैतून बोली, “आप डरिए मत माँ, आपके साथ कुछ बुरा नहीं होगा। हमारा परिवार फिर से मिल गया, यह सबसे बड़ी ख़ुशी है। इस ख़ुशी से बढ़कर यहाँ सज़ा और बदले की जगह नहीं है।”

राजा और जैतून अपनी संतानों के साथ सुख-शान्ति से जीवन बिताने लगे, राज्य में ख़ुशियाँ ‌छा गईं। 

राजमाता संन्यास लेने आश्रम चली गईं। 

बस कहानी ख़त्म, पैसा हज़म!! 

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