मेरी बाल्यावस्था की वनस्पतियाँ
सरोजिनी पाण्डेयमेरा जन्म अप्रैल माह की छह तारीख़ को हुआ था, जो पश्चिमी पंचांग के अनुसार मेष राशि के अंतर्गत आती है। मेष अर्थात् नर भेड़! भेड़ बकरियों का भोजन घास-फूस और वनस्पतियाँ हैं। मैं वनस्पति जगत से अपने प्रेम का कारण इधर कुछ समय से अपने जन्म की राशि को देने लगी हूँ। मेरे इस स्वभाव का कारण पारिवारिक भी हो सकता है और परिस्थिति जन्य भी। मेरी माता का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जहाँ उनके पिता और चाचा वैद्य थे, और आप जानते ही हैं कि वैद्यकी-शास्त्र मूल रूप से वनस्पति आधारित होता है। हालाँकि इसमें धातु की भस्मों और खनिजों का भी उपयोग होता है परंतु अधिकांश औषधियाँ वनस्पति आधारित ही होती हैं। मैं अपने माता-पिता की प्रथम संतान हूँ और मुझसे छोटे पाँच भाई बहन और हैं। तो होता यह था कि जब किसी को छोटी-मोटी तकलीफ़ होती तो माँ मेरा परिचय किसी वनस्पति से करवा कर उसे खोज और तोड़कर लाने को कहतीं। जैसे-सर्दी के मौसम में यदि खाँसी आती तो माता 'वसाका (अडूसा)' की पत्ती-फूल लाने को कहतीं और उसके रस से न जाने कैसे खाँसी की दवा बना देती थीं। यह दवा हमको शहद में मिलाकर पिलाई जाती, खाँसी जल्द ही रफ़ू-चक्कर हो जाती थी। कभी-कभी वे कच्चे अमरूद को आग में भूनकर भी खिलातीं, यह भी खाँसी का उपचार होता। किसी बच्चे को दस्त आ रहे हों तो भटकटैया के बैंजनी फूलों का पीला पराग-कोष तोड़ लाने का निर्देश देतीं। यह वनस्पति काँटों से भरी होती है। पराग-कोष तोड़ने में उँगलियों में काँटे चुभते। जब इसकी शिकायत माँ से करती तो वे साहस और प्रोत्साहन देते हुए समझातीं, “बेटी तुम्हारी उँगलियाँ तो छोटी हैं तुम सँभाल कर चुनोगी तो काँटे नहीं चुभेंगे। बड़े लोगों की बड़ी और मोटी उँगलियाँ तो लहूलुहान हो जाएँगी ना!”, बस यह चुनौती पाकर तो यह साहसी काम पूरा कर लेने का निश्चय मैं कर लेती थी।
बारिश के दिनों में जब पानी में खेलने-चलने से पैरों की उँगलियों के बीच की त्वचा लाल हो कर खुजलाती तो उसकी औषधि बनाने के लिए वे 'भंगरैया' (भृंगराज) की पत्तियाँ और फूल चुनने को कहतीं और इससे दवा बनाकर पैरों में लगाई जाती। घर में पूजा होती तो साफ़ स्थान से 'दूब' लाने होती थी। दूब गणेश जी का प्रिय भोजन जो है! कभी-कभी साग-सब्ज़ियों की क्यारियों की घास निकालते समय 'नागर मोथा' नामक घास निकलती, उसकी जड़ में बनी गाँठों की सुगंधि माँ मुझे सुँघातीं और बताती कि यह एक सिद्ध सौंदर्य प्रसाधन है जो त्वचा को कोमल और सुगंधित बनाता है। 'धतूरे' के सफ़ेद या हल्के बैंगनी रंग के तुरही के आकार के फूल और काँटों जड़ी गेंद के आकार के फूल जब आकर्षित करते और उन्हें तोड़कर खेलने को मन करता तो समझाया गया कि 'इन्हें कभी भूल से भी मुँह में ना डालना, यह विषैला होता है'। इस वनस्पति के जन्म की कथा शिव के विषपान से जुड़ी है। ऐसी न जाने कितनी वनस्पतियाँ हैं जिन्होंने मेरी पीढ़ी के लोगों के बचपन को छुआ, आनंदित किया और उसे समृद्ध बनाया होगा।
तीन पत्रकों, पीले फूल और केले के आकार की फलियों वाले वाली 'खट्टी बूटी' की पत्तियाँ ढूँढ़ कर उसे मुँह में डाल लेना तो लगभग नित्य का काम था। जंगली 'मकोय' के पौधे खोज कर उसके काले, गोल, पके फलों को खाना कितना आनंदमय होता था! आज भी जब महँगी ब्लूबेरी देखती या कभी-कभार खाती हूँ तो बचपन के वे दृश्य किसी चलचित्र की भाँति आँखों के आगे तैर जाते हैं। अभी हाल में ही किसी लेख में पढ़ा कि मकोय में हल्का सा विष भी होता है, ईश्वर की कृपा रही कि इस विष ने हमें कभी प्रभावित नहीं किया।
एक और बूटी बचपन से गहरी जुड़ी है, 'छोटी दुद्धी'! यह नन्हे, गोल पत्तोंवाली, बहुत गहरे लाल-जामुनी-से रंग की घास है, जो ज़मीन पर फैलकर बढ़ती है। इसके गोल सूत्रवत तने से सफ़ेद दूध जैसा पदार्थ निकलता है। कभी-कभी मौज में आने पर इससे हाथ और कलाई पर गोदना (टैटू) बनाने का काम अपने हमजोलियों के साथ हम किया करते थे। चूल्हे की राख में से कोयले के टुकडे़ ढूँढ़े जाते। फिर उन्हें ईंट या पत्थर की सहायता से चूर्ण बनाया जाता। दुद्धी के तनों को तोड़कर, उसके गाढ़े दूध जैसे रस को सावधानी से त्वचा पर नन्हे बिंदुओं के रूप में लगाकर, सुंदर डिज़ाइन बनाने का प्रयत्न होता। सबसे अधिक कोशिश तो अपना नाम लिखने की होती थी। जब यह हो जाता तो उस पर कोयले का चूर्ण छिड़का जाता यह चूरा कलाई पर लगे सफ़ेद रस से चिपक जाता और फिर सावधानी से राख को हटाने पर कलाई पर छोटे काले बिंदुओं से लिखा नाम सुस्पष्ट हो जाता। कुछ मिनटों के लिए यह टैटू हमारे हाथ पर रहता और उसे देख कर हम गद्गद् होते रहते थे। उस ज़माने में रेडियो टेलीविजन और वीडियो गेम न थे खिलौने भी ऐसे नहीं होते थे कि उनसे कुछ रचनात्मक किया जा सकता परंतु बचपन की ऊर्जा और उत्सुकता तो सनातन है सो उस ऊर्जा का उपयोग भी हो जाता था।
लाल कनेर की दो पत्तियों को तान कर पकड़ते और पट-पट करने वाला वाद्य यंत्र बन जाता था। 'पीले कनेर' के फूलों को उल्टाकर, उँगलियों में फँसा कर, उन्हें लंबे नाखून के रूप में कल्पना कर 'भूत' बनना भी एक रोचक खेल होता था। जब 'भूत-भूत' खेलते या उछल-कूद करने में पैर में मोच आ जाए या यूँ ही दर्द हो, तो 'अरंड' के पत्तों की खोज होती और इन पत्तों पर तेल लगा कर आग से हल्का सेंक कर टखनों पर बाँध देने से अगले दिन तक दर्द चला जाता था, तब आयोडेक्स और वोलिनी का प्रचलन कहाँ था?
'जंगल जलेबी' की टेढ़ी-मेढ़ी फलियों के गूदे का भुरभुरा स्पर्श और विचित्र-सी कसैली मिठास से बचपन में किस आनंद की अनुभूति होती थी, यह बात अब समझ में बिल्कुल नहीं आती! पर बचपन में वह स्वाद हृदय को अति आनंदित करता था, संभवतः बचपन का स्वाद वयस्क जीवन के स्वाद से पूर्णतया भिन्न होता हो।
'झरबेरी' की कँटीली झाड़ियों में से लाल-पीले, पक्के फल तोड़ना और मित्रों में अपनी वीरता और धैर्य की छाप छोड़ना कितना अच्छा लगता था!
बरसात के दिनों में एक घास उगती थी जिसका नाम हम 'पकड़ पत्ता' जानते थे। कभी-कभी उसकी पत्तियाँ इसलिए तोड़ कर इकट्ठी कर लाते कि उसकी पकौड़ियाँ बनेंगी, ख़ूब फूली-फूली, कुरकुरी और हवा भरी। पकौड़ियाँ बनाने के लिए माँ कभी-कभी गुडहल (अड़उल, चायना रोज़) के फूल भी लाने को कहतीं! वैसे तो यह जवाकुसुम का फूल देवी दुर्गा का प्रिय पुष्प है ही परन्तु इसकी पकौड़ी भी कम स्वादिष्ट नहीं लगती थी।
कुछ जंगली पौधे ऐसे भी होते थे जिन से अत्यंत सावधान रहने का आदेश रहता था, उदाहरण के लिए 'आक' (मदार) और भड़भाड़ (आरजीमोन)। इनके बारे में यह यह बताया गया था कि इनका रस यदि आँखों में पड़ गया तो आँखें ज्योतिहीन हो जाएँगी। आक के पत्तों के साथ तो महर्षि आयोद धौम्य के शिष्य उपमन्यु की कथा भी सुना दी गई थी, जिसके पत्ते खाने से वह दृष्टिहीन हो कुएँ में गिर पड़ा था और अश्विनी कुमारों ने पुआ देकर उसका उद्धार किया था। इतना जानने के बाद भी आक के प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ था। उसके कलात्मक फूल शिव को प्रिय हैं। फलों के अंदर से निकलने वाली रुई को एकत्र कर व्यापार करने का विचार तो बचपन में अक़्सर ही आता रहता था। वह इकट्ठा की हुई रूई कब कहाँ हवा के झोंके से उड़ जाती इसका पता भी न लगता, परंतु बीज के भार से हेलीकॉप्टर की तरह उड़ती हुई रुई के फुए को देखना भी कम रोचक नहीं होता था।
गोखरू के काँटेदार फलों को मित्रों के स्वेटर पर चिपका कर खिझाना, शायद मेरे हमउम्रों ने अवश्य ही खेला होगा। एक ऐसी घास भी होती थी जिसका पुष्पक्रम स्वेटर पर चिपका कर कलाकृति बनाई जाती थी। झाड़ियों में वनस्पतियों का अनुसंधान करने में सलवार-पैजामे में जो 'लटजीरा' के बीज फँस जाते थे, वे तो कपड़े की धुलाई और प्रेस के बाद भी कपड़ों में ऐसे चिपके रहते कि पैरों में चुभन और खुजली पैदा करने में सक्षम होते थे। इन लुके-छिपे बीजों को अक़्सर ही ध्यान से देखकर, नाखून से पकड़ कर निकालना पड़ता था।
'शंखपुष्पी' और 'ब्राह्मी बूटी' से भी पहचान थी। यह जानने के बाद भी कि इन को खाने से बुद्धि बढ़ती है, कभी इन्हें मुँह में डालने की हिम्मत न हुई, यदि डाला होता तो शायद अधिक रोचक ढंग से आप लोगों को अपने बचपन की पहचान वाली इन वनस्पतियों के बारे में बता पाती।
अच्छा अब बस!
विदा।
4 टिप्पणियाँ
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लगभग इन सभी वनस्पतियों का बचपन में खेल-खेल में प्रयोग किया लेकिन नाम दो-एक के ही मालूम थे। मेंहदी के पत्तों को पीस कर हाथों में लगाना, फ़्रॉक की झोली बनाकर उसमें बेर तोड़ कर देखना कि किसकी झोली में सबसे अधिक बेर हैं व कैक्टस के कांटों की परवाह किये बिन उसके स्वादिष्ट लाल गुद्दे का आनंद लेना आदि आदी। वाह, बचपन की मधुर भूली-बिसरी यादों को स्मरण कराने के साथ-साथ ढेरों वनस्पतियों के उपयोग बताने के लिए आपका आभार।
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शानदार जानकारियों के लिए आभार
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मनोरंजन और जानकारी साथ साथ, स्तुत्य लेखन
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कैथा, मीठी नीम
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