तीन कुँवारियाँ
सरोजिनी पाण्डेयमूल कहानी: द थ्री क्रोन्स; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन; पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय
प्रिय पाठको,
लोककथाएँ, चाहे वे किसी भी देश अथवा संस्कृति से जुड़ी हों, सदियों से संगृहीत जीवन के अनुभव पर आधारित होती हैं। उनमें जीवन के कटु, काषाय और तीक्ष्ण अनुभव तो होते ही हैं, साथ ही कल्पना की मधुरिता, अम्लीयता था और लवणता भी होती है। इस प्रकार वे षट्रसों का आनंद देती हैं और हर आयु के लोगों को आनंदित करती हैं। प्रस्तुत लोक कथा की प्राचीनता तो मैं नहीं जानती परंतु अवश्य ही शताब्दियों में तो होगी! इसे पढ़कर आज के युग की ऑन-लाइन ख़रीदारी, शादी, मित्रता और साथ ही साथ धोखाधड़ीऔर लोभ का साम्य लगा अतः आपके साथ इसका आनंद साझा कर रही हूँः
किसी ज़माने में, किसी देश के किसी शहर में तीन कुमारियाँ थीं और थीं वे नवयुतियाँ। एक थी साठ और सात बरस की उससे बड़ी सत्तर और पाँच, और सबसे बड़ी तो केवल नब्बे और चार की। ये बालाएँ रहती थीं एक हवेली में, जिसमें एक छज्जा था, जिसकी चहारदीवारी में नीचे झाँकने के लिए एक बढ़िया-सा झरोखा था, जिससे राह पर आते-जाते लोगों का नज़ारा किया जा सकता था। एक दिन जब सबसे बड़ी बहन ने झरोखे से नीचे झाँका तो एक सुंदर, सजीले नौजवान को जाते देखा। तुरंत उसने अपना रुमाल ऐसा उड़ाया कि वह सीधे उस युवक के सामने जाकर गिरा। जवान ने रुमाल उठा लिया। उसकी सुंदर कशीदाकारी देखी, मस्त सुगंध सूँघी और बुदबुदाया, "यह तो किसी बेहद सुंदरी युवती का ही हो सकता है!" वह दो-चार क़दम आगे बढ़ा और फिर लौट आया, जाकर हवेली का द्वार खटखटाया। एक बहन ने द्वार खोला तो युवक ने पूछा, "क्या आप यह बता पाएँगी कि इस घर में एक युवती रहती है या नहीं?"
"हाँ बिल्कुल रहती है! एक नहीं तीन-तीन।"
युवक ने रुमाल दिखाकर कहा, "कृपा कर क्या आप मुझे उनसे मिला सकती हैं, जिनका यह रुमाल खो गया है?"
"नहीं, ऐसा नहीं हो पाएगा इस हवेली की कन्याएँ विवाह से पहले किसी परपुरुष से नहीं मिल सकतीं।"
युवक तो रुमाल देखकर हीअपनी कल्पना की; उस कुमारी पर दिलो-जान से निछावर हो चुका था बोला, "यह तो कोई बड़ी बात नहीं है, मैं उन्हें बिना देखे भी उनसे से विवाह कर लूँगा। मैं अपनी माँ को बताने जा रहा हूँ कि मुझे अपने सपनों की कन्या मिल गई है और मैं शादी करने जा रहा हूँ।"
युवक ने घर जाकर अपनी माँ को सारी घटना बताई। माँ ने बेटे को समझाया, "बेटा राजा, सँभल कर रहना, कहीं किसी के जाल में न फँसने जा रहे हो! हर क़दम सोच विचार कर उठाना चाहिए, शादी ज़िंदगी भर का फ़ैसला है। ख़ाली रुमाल देखकर तुम आख़िर ब्याह कैसे करने जा रहे हो?"
राजकुमार दिल की लगी से परेशान था।
"वे लोग कोई बड़ी माँग नहीं रख रहे हैं। मैं उन्हें वचन दे आया हूँ। वैसे भी एक राजकुमार को अपना वादा तो ज़रूर निभाना चाहिए न!" युवक ने कहा जो संयोग से राजकुमार ही था!
अगले दिन फिर युवक उस हवेली में वापस आया और द्वार खटखटाया और फिर उसी कुमारी ने द्वार खोला। युवक से पूछा, "क्या आप उस सुंदरी की दादी हैं?"
"हाँ-हाँ मैं उसकी दादी ही हूँ।"
"अगर आप उसकी दादी हैं तो आप अवश्य मुझ पर दया करेंगी। मैं शादी से पहले उस रूप-सुंदरी की केवल एक उँगली देखना चाहता हूँ। क्या आप मेरी यह प्रार्थना सुन लेंगी।"
"नहीं-नहीं, आज नहीं, हाँ अगर तुम कल शाम को आ सको तो तुम्हारी इच्छा ज़रूर पूरी होगी।"
युवक ने दादी को प्रणाम किया और चला गया। युवक के जाने के बाद तीनों कुमारियों ने एक दस्ताने में रुई भरकर, बड़ी सावधानी से उस पर नकली नाखून लगाकर ख़ूबसूरत उँगलियाँ बनाई। उधर बेचारा राजकुमार सुंदरी की अंगुली देख पाने की उत्कट लालसा में डूबा उत्कंठा और उत्तेजना में सो भी न पाया। प्रातः बड़ी मुश्किल से उसे सूर्य उगता लगा। भोर में ही तैयार हो हवेली की ओर भागा।
"अम्मा," उसने कुँवारी से कहा, जिसने द्वार खोला था, "मैं अपनी होने वाली दुल्हन की उँगली देखने आ गया हूँ।"
" हाँ-हाँ, बिल्कुल! तुम उस द्वार में बने चाबी के छेद से उसकी उँगली देख पाओगे।"
भावी दुल्हन ने चाबी के छेद से दस्ताने की उँगली बाहर निकाल दी। युवक ने हौले से उसे सहलाया और कोमलता से सगाई की हीरे की अँगूठी उँगली में पिरो दी। आकंठ 'युवती' के प्रेम में डूबे युवक से दादी ने कहा, "अम्मा मैं और प्रतीक्षा नहीं कर सकता, जल्दी से जल्दी शादी करना चाहता हूँ।"
"तुम चाहो तो शादी कल ही हो सकती है।"
"आहा! बस तो मैं वचन देता हूँ कि कल ही शादी कर लूँगा।"
तीन 'बूढ़ी कुमारियाँ' धनवान तो थीं सो रातों-रात शादी की सारी तैयारी हो गई और राजकुमार को भी किसी बात की कमी न थी।
अगले दिन ही राजकुमार दूल्हा बना हवेली आ पहुँचा। सबसे बड़ी कुमारी भी अपनी दो बहनों की सहायता ले सज-सँवर, सात घूँघट डाले दुल्हन बन गई। दूल्हा वेदी पर आ बैठा, उधर दुल्हन भी अपनी दो बहनों का सहारा लिए मंडप में आई। दूल्हे को समझा दिया गया कि सुहागरात से पहले दुल्हन का मुखड़ा देखना अमंगलकारी है। और पूरे विधि-विधान से विवाह संपन्न हो गया। प्रेम की आग में जलता बेचारा राजकुमार पल-पल करके समय बिताता रात की प्रतीक्षा करने लगा। दुल्हन की बहनें उसे सुहाग कक्ष में ले गईं, बिस्तर में लिटा कर ओढ़ना उढ़ा दिया। जब दूल्हे को सुहाग-शैया की और भेजा गया तब भी दोनों बहनें कमरे को सजा ही रही थीं। जाते-जाते दोनों रोशनी गुल करती गईं, पर राजकुमार भी रूप दर्शन का प्यासा था। अपने साथ मोमबत्ती लाया था। मोमबत्ती जलाई और बिस्तर की ओर देखा, हाय राम, यह क्या! बिस्तर में एक सूखी, नीरस वृद्धा झुर्रियों से भरी सिकुड़ी लेटी थी। राजकुमार को तो मानो काठ ही मार गया। डर, अचरज, घृणा, दुख की मिली-जुली अनुभूति से वह क्षणभर को पथरा गया, परंतु अगले ही क्षण क्रोध में जलते हुए उसने अपनी दुल्हन पत्नी को उठाकर खिड़की के बाहर धकेल दिया। खिड़की के नीचे फूलों की बेल से ढकी जाली थी। वृद्धा के भार से जाली तो टूट गई पर बेचारी का लहँगा उसमें अटक गया। वह टूटी जाली और वह फूलों की बेल में अटकी झूलने लगी।
भगवान की लीला देखो, उस रात उधर से स्वर्ग की तीन देवियाँ आकाश मार्ग से जा रही थीं। जाली पर बूढ़ी-दुल्हन को लहँगे से लटकते देखकर तीनों खिलखिला कर हँस पड़ीं। वे अपनी हँसी रोक नहीं पा रही थीं, हँसते-हँसते उनके पेट भी दुखने लगे अब जाकर उनकी हँसी रुकी। जब वे जीभर हँस चुकीं, तब उनके हृदय में वृद्धा के लिए दया भाव जागा। उन्होंने सोचा कि जिसके कारण हमारा इतना मनोरंजन हुआ, हम पेट पकड़ कर हँसीं, उसे कुछ तो आशीर्वाद देना चाहिए। तीनों ही इस बात पर राज़ी हो गईं। पहली बोली, "यह संसार की सबसे सुंदरी युवती हो जाए।"
दूसरी ने कहा, "मैं इसे दुनिया का सबसे सजीला युवक प्रेमी-पति स्वरूप पाने का वर देती हूँ।"
तीसरी देवी ने उसे संपत्तिशाली और यशस्वी होने का वरदान दिया और फिर वे तीनों स्वर्ग-लोक की ओर चली गईं।
जब सुबह हुई और राजकुमार जागा तो उसे अपने किये कर ग्लानि हुई। उसने खिड़की से नीचे झाँका। बाप रे बाप! वहाँ तो एक अपूर्व सुंदरी जाली से लटकी रो रही थी। राजकुमार ने घोर लज्जा में डूबते हुए अपना सिर पीट लिया। "हाय-हाय, यह मैंने क्या किया!" जल्दी से उसने बिस्तर की चादर खिड़की से लटका दी और अपनी दुल्हन को ऊपर खींच लिया, उसके पैरों में गिर कर क्षमा माँगी और दुल्हन ने भी धीरे से उसके गलबहिंयाँ डाल दीं।
थोड़ी देर बाद ही किसी ने द्वार खटखटाया, "ज़रूर दादी जी होंगी। अंदर आइए ना दादी," दूल्हा बोला। बुढ़िया बहन भीतर आई और पलंग पर अपनी नब्बे और चार बरस की बेहद ख़ूबसूरत और जवान बहन को देखकर भौंचक्की रह गई। दुल्हन ने निस्संकोच कहा, "कामिनी, मेरे लिए कलेवा ले आओ।"
वृद्धा कुमारी ने बमुश्किल अपना मुँह दबाकर अपनी चीख़ रोकी और कलेवा लाने के लिए कमरे से बाहर आ गई। दिन में ज्यों ही राजकुमार अपने घर के लिए निकला, वृद्धा कुमारी अपनी बहन के पास पहुँची और पूछा, "दीदी यह सब आख़िर हुआ कैसे?"
"धीरे से बोलो," दुल्हन बोली, "दिल थाम कर सुनो, मैंने पिछली रात अपने को रन्दे से चिकना करवा लिया है।"
"रंदा? रंदा? किसने चलाया था रंदा तुम्हारे ऊपर? मैं भी उसी से अपने को चिकना करवा लूँगी।"
"बढ़ी ने चलाया था, और कौन चलाता!"
कुमारी बहन ने आव देखा न ताव दौड़ी-दौड़ी गई बढ़ई की दुकान तक।
"बढ़ई भैया, मुझे भी रंदे से चिकना कर दो न!"
"हे भगवान!" बढ़ई बड़बड़ाया, "तुम तो पहले से ही सूखा काठ हो, अगर रंदा चलाया तो स्वर्ग सिधार जाओगी।"
"तुम चिंता मत करो, जैसा मैं कहती हूँ करो।"
"चिंता कैसे ना करूँ, तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा? जेल –फाँसी होगी न!"
"अब बस भी करो, यह चाँदी के कलदारों की थैली देखते हो!"
अब चांदी के कलदारों की खनक जो न करवा ले सो थोड़ा!
बढ़ई ने थैली ले ली और कुमारी जी से अपने तख़्ते पर लेटने को कहा। जब वह लेट गईं तो उसने एक तरफ़ के जबड़े पर धीरे से रंदा चलाया, कुमारी चिल्लाईं।
"चुप-चुप!’ बढ़ई बोला, "अगर चिल्लाई तो काम रोक दूँगा।"
बुढ़िया बेचारी चुप होकर करवट बदल कर लेट गई। बढ़ाई ने दूसरे जबड़े पर भी रंदा चलाया। इस बार तो कोई भी नहीं चिल्लाया।
चिल्लाता भी कौन! कुमारी तो हो गई थी सदा के लिए मौन!
और मँझली तीसरी सत्तर और चार वाली का क्या हुआ कोई नहीं जानता, वह कहीं डूब गई, गाल पर रंदा चलवाया या बिस्तर में ही मर गई कोई नहीं जानता। न कोई जानेगा!!
बची तो केवल दुल्हन,
जो बनी राजा की रानी,
इसी बात के साथ-साथ
खत्म हुई मेरी आज की कहानी!
गर मिले फिर तो
लाऊँगी एक नई कहानी!!
2 टिप्पणियाँ
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बहुत खूब
-
सरस अनुवाद.
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