चिंता क्यों

01-06-2025

चिंता क्यों

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

कुछ लोगों को चिंता भारी 
कविता जग से मिट जाएगी, 
शब्दों की अद्भुत जादुगरी
केवल इतिहास बनाएगी! 
 
संचरण हृदय में भावों का 
कविता की विधा कहाता है
जब तक है हृदय वक्ष-स्थित
क्या भाव शून्य हो पाता है? 
 
कविता केवल शब्दों से नहीं
भावों में से उकेरी जाती है, 
उर में बहती ‘रस की धारा’
सच्ची कविता कहलाती है, 
 
सूरज की किरनों के संग ही
कविता प्रातः जग जाती है 
खग कलरव के माध्यम से वह
फिर राग भैरवी गाती है, 
 
बहते समीर की मंथर गति, 
कलियों का चटकना धीरे से
तरु के पल्लव-पत्रक कंपित
क्या गाते गीत नहीं लगते? 
 
झरती बूँदें, बहती नदिया भी
कविता करती रहती हैं, 
संपूर्ण चेतना सृष्टि की
यह कविता सुनती रहती है, 
 
मेघों की गरज, चपला की चमक
क्या कविता नहीं कहाएँगी
यह अनुपम देन प्रकृति माँ की
क्या शब्दों में बँध पाएगी? 
 
रस रौद्र अगर सुनना चाहो, 
जल-प्लावन का होना देखो
क्रोधित गिरि शिखरों से होते
जो शिलापात, उनको सुन लो, 
 
तारों से भरा नीला अंबर 
क्या कवि का ‘छंद’ नहीं लगता? 
गाती है रात मधुर स्वर में
चंदा हो मग्न सुना करता! 
 
हरिणों-शशकों की लय-द्रुतगति
कविता गतिमान नहीं लगती? 
संवेदनशील हृदय को क्या 
वह परमानंद नहीं देती? 
 
सृष्टि के कण कण में कविता, 
नित, शाश्वत और सनातन है, 
अक्षुण्ण रहेगी कविता भी, 
मानव मेधा यदि चेतन है, 
 
मत करो विलाप, ‘कवित्त मृत’ है, 
’लय-छंद नहीं अब सजते हैं’
सब तत्त्व ‘छंद में बँधकर’ ही
’इहलोक’ की रचना करते हैं, 

1 टिप्पणियाँ

  • 3 Jun, 2025 03:03 PM

    सरोजिनी पाण्डेय जी की यह कविता 'चिंता क्यों' रचना धर्मिता के पतन पर आशा की किरण दिखाती है। कहा जाने लगा है कि अब कविता मृत हो चुकी है। कविता ही क्या, अब तो समूचे साहित्य पर ही इस तरह की बातें होने लगी है। कौन रचेगा कविता को और अब कौन पढ़ेगा उसे। ऐसे बहुत से प्रश्न है जो अब कविता पर उठने लगे हैं। कवयित्री कविता को सिर्फ लेखन तक सीमित नहीं रखती हैं। वे कविता को जीवन जगत से जोड़कर देखती है। जिंदगी का उल्लास कविता है। उगते सूर्य की किरनों के साथ, पक्षियों के कलरव में कविता खिलखिलाती है। खिलते हुए फूलों में, बहती नदियों में जो संगीत गूंजता है उसमें कविता है। अनंत आकाश में जलते बुझते तारों में कविता है। प्रकृति के हर मंगलकारी दृश्य में सहृदय के भीतर कविता गूंजती है। सरोजिनी पाण्डेय जी आप कविता के बारे में सोचती हैं, उसको सदा बचाए रखने का प्रयत्न करती हैं तभी ऐसी मौलिक रचनाएं रची जा सकती हैं। आपकी यह कविता बढ़िया है। बधाई आपको!

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