तीन छतों वाला जहाज़

15-08-2022

तीन छतों वाला जहाज़

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 211, अगस्त द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

मूल कहानी: इल् बैस्टिमेंटो ए ट्रे पियानी; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द शिप विद थ्री डेक्स्); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय


प्रिय पाठक, फिर एक बार, एक नई इतालवी कथा लेकर प्रस्तुत हूँ। इस लोक कथा में मनुष्य और पशुओं के जीवन के सम्बन्ध दिखाए गए हैं, यहाँ तक कि पशु-पक्षियों में कृतज्ञता जैसे बहुमूल्य मानवीय गुण की स्थापना मानव की कल्पनाशीलता ने कर ली है। 


एक बार की बात है, एक निर्धन दंपत्ति एक गाँव में रहते थे। बड़े दिनों बाद उनके घर में एक पुत्र का जन्म हुआ। जब बच्चे के नामकरण का समय आया तो दंपती को चिंता हुई कि नामकरण किससे कराएँ? क्योंकि गाँव में कोई पंडित न था! वे दोनों पंडित की खोज में पास के क़स्बे में गए तो मंदिर की सीढ़ियों पर भगवा कपड़े पहने एक साधु उन्हें दिखाई दिया। इस दंपत्ति ने उसे पुजारी समझ, उससे अपने बेटे का नाम करण करने की प्रार्थना की। वह साधु राज़ी भी हो गया और इस प्रकार शिशु का नामकरण हो गया। 

कुछ दिनों बाद अचानक वह साधु उस दंपती के घर पहुँचा और उनको एक थैली देते हुए कहा, “मैंने तुम्हारे बेटे के शुभ लक्षण देखे हैं, इस थैली में इस बच्चे की शिक्षा-दीक्षा और पालन-पोषण के लिए धन है। मैं एक पत्र भी दे रहा हूँँ, जो इस बच्चे के लिए है। जब वह बड़ा हो जाए और पढ़ाई पूरी कर ले, तब उसे यह पत्र देना।”

बच्चे के माता-पिता यह सब सुनकर अवाक्‌ रह गए। उनके मुख से आभार का एक शब्द भी न फूटा। जब तक वे स्थिर होकर कुछ पूछते, तब तक साधु वहाँ से चला गया था। थैली सोने के सिक्कों से भरी थी, जो उनके बेटे की परवरिश और पढ़ाई के लिए काफ़ी थी। 

जब बालक युवा हो गया तो, माता-पिता ने वह चिट्ठी उसे दी, जिसमें लिखा था “प्यारे बेटे, मैं चंपा नगरी का राजा हूँँ, जो अब तक बनवास काट रहा था। इस पत्र को पढ़कर तुम मेरी राजधानी आ जाना और मेरा राजपाट सँभालना। तुममें राजा बनने के सभी गुण हैं। आते हुए तुम रास्ते में भेंगी आँखों वाले, लंगड़े और खौरहे (खुजली ग्रस्त, mangy) लोगों से बचकर रहना। 

तुम्हारा धर्म पिता 
चंपा नगरी का राजा“

पत्र पढ़ने के बाद युवक ने अपने माता-पिता को प्रणाम कर विदा ली और चल पड़ा अपने धर्म पिता के ऋण से उऋण होने के लिए। 

कई दिन की यात्रा के बाद उसे एक यात्री मिला, जिसने पूछा, “बेटा तुम कहाँ जा रहे हो?” 

युवक ने उत्तर दिया, “चंपा नगरी।"

“मैं भी वहीं जा रहा हूँँ, चलो साथ चलते हैं।
कुछ समय साथ चलने के बाद युवक ने ध्यान दिया कि साथ चलने वाला यात्री तो भेंगा है, एक आँख दाएँ देखती है तो दूसरी बाएँ! उसे चिट्ठी की बात याद आ गई। अगले दिन भोर में जल्दी उठकर उसने अपना रास्ता बदल लिया और चल पड़ा चंपा नगरी की ओर। 

कुछ समय की यात्रा के बाद उसे एक और यात्री रास्ते में आराम करता हुआ मिल गया। बातचीत के बाद दोनों एक साथ चंपा नगरी की ओर चल पड़े। परन्तु कुछ देर चलने के बाद युवक को समझ में आ गया कि उसका सहयात्री तो भचक-भचक कर, लाठी के सहारे चलता था। और उसे अपंग से बचकर रहने की सलाह, चिट्ठी में दी गई थी!! 

बड़ी चालाकी से उसने जल्दी ही फिर अपना रास्ता बदल लिया। 

कुछ और यात्रा कर लेने पर उसे एक और यात्री चंपानगरी की ओर जाता हुआ मिल गया। युवक ने ध्यान से देखा, उसकी आँख और हाथ-पैर सब दुरुस्त थे। सिर पर घने, काले बाल थे। खुजली का कहीं नामोनिशान न था। युवक संतुष्ट हो गया और अब दोनों साथ-साथ यात्रा करने लगे। जब रात हुई तो दोनों एक सराय में रुके। युवक ने अपना बटुआ और राजा की चिट्ठी सराय के मालिक को सुरक्षित रखने के लिए दे दी। सराय में भला वह और किस पर भरोसा करता! 

रात में जब सब सो गए, तो युवक का सहयात्री सराय के मालिक के पास गया और अपने को युवक का नौकर बताकर उसका बटुआ और घोड़ा लेकर चलता बना। सुबह जब युवक जागा तो अपने को अकेला पाया। वह अपना सामान लेने जब सराय के मालिक के पास गया तो उसने कहा, “आपका नौकर रात में मेरे पास आया था, वह आपका सारा सामान मेरे पास से लेकर चला गया,” बेचारा युवक क्या करता! 

वह पैदल ही चल पड़ा, अपनी मंज़िल की ओर। अभी कुछ ही आगे गया था कि एक मोड़ पर उसने अपना घोड़ा एक पेड़ से बँधा हुआ पाया। अपना घोड़ा खोलने के लिए वह हाथ बढ़ाने ही वाला था कि पेड़ के पीछे से उसका सहयात्री हाथ में पिस्तौल लिए निकल आया, “अगर तुम अभी मरना नहीं चाहते हो तो मेरे नौकर बन कर चलो और मुझे राजा का धर्मपुत्र मानो।” ऐसा कहते हुए उसने अपनी बालों वाली टोपी उतार ली अपनी खाज से भरी खोपड़ी खुजलाने लगा। युवक के सामने कोई दूसरा चारा ना था। दोनों चल पड़े चंपा नगरी की ओर, युवक पैदल और खौरहा घोड़े पर सवार होकर! और वे जा पहुँचे चंपा नगरी। 

खौरहे को घोड़े पर सवार देखकर राजा ने उसे ही अपना बेटा माना और खुले दिल से उनकी आवभगत की। युवक को सौंपा गया, घुड़साल का काम। 

खौरहा जल्दी से जल्दी राजा के धर्मपुत्र से छुटकारा पाना चाहता था और उसका मौक़ा भी उसे जल्दी ही मिल गया। एक दिन राजा ने अपने नक़ली धर्मपुत्र से कहा, “मेरी अपनी बेटी दूर एक टापू पर क़ैद में पड़ी है। अगर तुम उसे आज़ाद करा लाओ, तो मैं उसकी शादी तुमसे कर दूँ और राजपाट तुम्हें सौंप आप कर आराम करूँ। लेकिन मुश्किल यह है कि अब तक उसे छुड़ाने जो भी गया ज़िन्दा वापस नहीं लौटा।” इस पर खौरहे ने बिना एक पल की देरी किए कहा, “मेरा नौकर बहुत समझदार और बहादुर है, आप उसे ही क्यों नहीं भेज देते?” राजा ने तुरंत संदेशा भेजकर युवक को बुलवाया और पूछा, “क्या तुम दूर टापू पर क़ैद मेरी बेटी को छुड़ाकर ला सकते हो?” 

“आपकी बेटी? महाराज! बताइए तो वह कहाँ है?” लेकिन राजा ने बस इतना कहा, “अगर तुम मेरी बेटी को बिना लिए लौटे तो तुम्हारा सिर क़लम कर दिया जाएगा।” युवक बेचारा चुपचाप सिर झुका कर चला गया। 

समुद्र के किनारे जहाँ से जहाज़ आते- जाते थे, वह वहीं जाकर जहाज़ों का आना-जाना देखने लगा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि राजकुमारी का अता-पता कैसे लगाया जाए! तभी एक वृद्ध नाविक, जिसकी दाढ़ी उसकी छाती तक झूल रही थी, युवक के पास आकर बोला, “तीन छत वाले एक जहाज़ की माँग राजा से करो!” युवक हैरान रह गया। परन्तु वृद्ध का शांत, गंभीर चेहरा देख और उसकी उम्र का लिहाज़ कर चुपचाप उठा और राज दरबार में जाकर तीन छत वाले जहाज़ की फ़रमाइश कर दी। उसकी माँग कुछ ही समय में पूरी कर दी गई। 

जब जहाज़ तैयार होकर, लंगर उठाकर चल देने लायक़ हो गया, तब वृद्ध जहाज़ी फिर दिखाई पड़ा, “अब एक छत पर मकई के भुने दाने, दूसरी पर रोटी का चूरा और तीसरी पर कसाई खाने से फेंकी गई अंतड़ियाँ भर लो।”

युवक ने बिना हीला-हवाला किए, जैसा कहा गया था, वैसा ही किया और जहाज़ की तीनों छतों पर सामान लद गया। 

“अब जब राजा नाविक चुनने को कहे, तो तुम केवल एक को चुनना और मुझे ही चुनना,” वृद्ध ने कहा। 

युवक ने ठीक वैसा ही किया। 

सारी नगरी इन इस विचित्र माल से लदे, अनोखे जहाज़ को देखने के लिए सागर तट पर उमड़ पड़ी जो एक अकेले, ज़िन्दगी की आख़िरी पायदान पर खड़े, नाविक को लेकर यात्रा के लिए निकलने वाली थी! जहाज़ तीन महीनों तक निरंतर चलता रहा। आख़िर में उन्हें एक रात, एक जगह कुछ रोशनी दिखाई पड़ी, तो जहाज़ बंदरगाह में चला गया। वहाँ सागर तट बहुत नीचा था। छोटे-छोटे घर और धीमी आहटों के सिवा और कुछ समझ में नहीं आता था। अचानक युवक को एक आवाज़ सुनाई दी, “क्या माल लेकर जाते हो?” 

“मकई के भुने दाने,” नाविक बोला। 

“बहुत अच्छा,” तट से आवाज़ आई, “इसी की ज़रूरत तो हमें है!”

यह ‘चूहों का दीप’ था, जहाँ केवल चूहे ही रहते थे। 

उन्होंने कहा, “हम तुम्हारा सारा माल ख़रीदना चाहते हैं, लेकिन दाम चुकाने के लिए हमारे पास पैसे नहीं है। हम एक वचन तुम्हें दे सकते हैं कि जब भी तुम्हें हमारी ज़रूरत हो, हम दौड़े आएँगे। तुम्हें बस—‘प्यारे मूषक सहाय हो’—कहना पड़ेगा। सौदा मंज़ूर हो तो हाँ कहो।”

युवक और बूढ़े नाविक ने गोदाम का द्वार खोल दिया और चूहों ने मकई के दानों का गोदाम पलक झपकते ख़ाली कर दिया। तीन छतों वाला जहाज़ आगे चल पड़ा, अगले द्वीप कीओर! यहाँ भी आते-आते रात हो चुकी थी, बंदरगाह में अँधेरा था, कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। यहाँ तो पेड़-पौधे, घर-मकान, कुछ भी दिखाई न पड़ता था। लेकिन एक आवाज़ फिर सुनाई दी, “कौन-सा माल लिए जाते हो!” 

“रोटी का चूरा,” नाविक ने उत्तर दिया। 

“बहुत बढ़िया, हम यही तो चाहते हैं!” 

यह ‘चींटियों का दीप’ था, जहाँ केवल और केवल चींटियाँ निवास करती थीं। इनके पास भी दाम पैसों से चुकाने का प्रबंध ना था। वे बोलीं, “तुम्हें जब भी हमारी सहायता की ज़रूरत हो, तो कहना ‘प्यारी पिपीलिकाओ मेरी सहाय हो’, बस हम तुम्हारे काम आने के लिए तुरंत चले आएँगे! तुम चाहे जहाँ भी रहो!”

सौदा पट गया और चीटियों ने रोटी के चूरे का सारा गोदाम मिनटों में ख़ाली कर दिया और तीन छत वाला जहाज़ चल पड़ा, अगले दीप की ओर! 

कुछ दिनों बाद यह जहाज़ ऐसे दीप के किनारे आ लगा, जहाँ समुद्र-तट पहाड़ों की चोटियों से भरा दिखता था। यहाँ पर ऊपर से आवाज़ आई, “कौन सा माल ढो रहे हो?” 

जहाज़ से उत्तर आया, “सड़ी हुई अंतड़ियाँ!”

“वाह वाह! क्या बात है! यही तो हम चाहते हैं!” ऐसे स्वर के साथ ही कई परछाइयाँ जहाज़ पर झूम पड़ीं। 

यह दीप गिद्धों का था, जहाँ यह भूखे, मांस-भक्षी पक्षी निवास करते थे। ज़रूरत पड़ने पर सहायता करने का वादा कर जहाज़ पर लदा, कसाई खाने का सारा कचरा लेकर गिद्ध उड़ चले और बुलाने का मंत्र भी बता दिया, æप्यारे प्यारे गिद्धों, जल्दी मेरी पीर हरो’।

महीनों के बाद महीनों की यात्रा के बाद आख़िरकार तीन छत वाला जहाज़ उस द्वीप के किनारे जा लगा, जहाँ चंपा नगरी की राजकुमारी क़ैद में दिन काट रही थी। जहाज़ से उतरकर लंबी सुरंग से होकर जब वे बाहर निकले, तो एक आलीशान महल के सामने आ खड़े हुए, जिसके चारों ओर सुंदर बग़ीचा था। उसी समय युवक की निगाह एक बौने पर पड़ी। उसने आगे बढ़कर उस बौने से पूछा, “क्या चंपा नगरी की राजकुमारी यहीं पर है?” 

युवक को महल में ले जाते हुए बौना बोला, “तुम ख़ुद ही सुहानी परी से पूछ लो!”

सोने के फ़र्श और हीरे जड़ी दीवारों वाले महल में एक सोने के सिंहासन पर सलोनी परी विराजमान थी। 

“कई राजा और राजकुमार अपनी सेनाएँ लेकर राजपुत्री को छुड़ाने आए, परन्तु उनमें से कोई भी जीवित नहीं बचा!” परी बोली। 

“मेरे पास तो अपनी ज़िद और हिम्मत के सिवा और कुछ नहीं है,” युवक ने उत्तर दिया। 

“तो ठीक है, लेकिन तुम को तीन परीक्षाओं से गुज़रना पड़ेगा। अगर तुम असफल रहे तो यहाँ से ज़िन्दा नहीं निकल पाओगे। यह सामने का पहाड़ देख रहे हो, यह ऐसे सिर उठाकर खड़ा है कि मैं सुबह-सवेरे का सूरज नहीं देख पाती! तुम रातों-रात इस जगह को समतल कर दो कि मैं कल की सुबह जब उठूँ, तो अपनी खिड़की से सूरज देखूँ।”

उसी समय एक बौना अपने हाथ में एक कुदाल लेकर आया और युवक को पकड़ा दी और उसे पहाड़ की तली तक पहुँचा भी दिया। युवक ने कुदाल चलाई। पहली चोट में कुदाल का फल दो टुकड़ों में टूट गया, ‘हे भगवान! अब क्या करूँ?’ युवक चिंता में डूब गया। लेकिन तभी उसे चूहा द्वीप के चूहों की याद आ गई। ‘प्यारे मूषक सहाय हो’ ऐसा कहते ही सामने का पूरा पहाड़ चूहों से ढक गया। उन्होंने पंजों से, दाँतों से पहाड़ को कुतरना-काटना शुरू कर दिया। पहाड़ नीचे झुकने लगा। धीरे-धीरे सिकुड़ने लगा। अगली सुबह सलोनी परी को सूरज की सुनहरी किरणों ने गुदगुदा कर उठाया, जो खिड़की से उसके कमरे में घुस आई थीं। सलोनी ने युवक से कहा, “बधाई हो! लेकिन अभी दो परीक्षाएँ बाक़ी हैं।”

युवक का हाथ पकड़कर सलोनी उसे महल के तहखाने में ले गई, जहाँ एक कमरे में छत तक ऊँचा अनाज का ढेर था! वह ढेर चावल और दाल के दानों की खिचड़ी का था! 

“तुम्हारे पास कल सुबह तक का समय है, इस ढेर को दो ढेरों में बदलने का! चावल अलग और दाल अलग। अगर चावल के ढेर में एक भी दाना दाल का मिला तो तुम जान से जाओगे!” 

एक बौना कमरे में दिया जलाकर, परी के साथ वापस लौट गया। जलते-जलते दिए का तेज चुक गया और युवक उस ढेर को ताकता, चुपचाप बैठा ही रह गया। जब अँधेरे से घबरा गया तब उसे चींटी दीप की याद आई।

‘प्यारी पिपीलिकाओं मेरी सहाय हो’ यह गुहार लगाते ही न जाने कहाँ से, कैसे करोड़ों चीटियाँ वहाँ पहुँच गईं। उन्होंने बड़ी चतुराई से अपने को दो दलों में बाँट लिया। एक दल चावल के दाने घसीटने लगा और दूसरा दल दाल के दाने। रात बीतते न बीतते बड़ा ढेर दो ढेरों में बँट गया। 

अगली सुबह जब सलोनी आई तो चिंहुक उठी, “मैं अभी हारी नहीं हूँँ! कल सुबह तक तुम मेरे लिए एक पीपा चिर जीवन का ‘अमृत जल’ लेकर आओ! नहीं तो अपने प्राण गँवाओ!” 

चिर जीवन के ‘अमृत जल’ की धारा, हिंसक जानवरों से भरे, भयानक जंगलों से ढके, ऊँचे पर्वत की चोटी पर थी। जिस पर चढ़ना मौत से टकराने के जैसा था। फिर उस पर्वत पर एक पीपा लेकर चढ़ पाना तो असंभव ही था! एक बौना जब ख़ाली पीपा युवक के पास रखकर परी के साथ चला गया तो युवक ने गिद्ध द्वीप के निवासियों को याद किया, जिनको उसने भरपेट भोजन कराया था। वह मंत्र बोला, ‘मेरे प्यारे-प्यारे गिद्धों, जल्दी मेरी पीर हरो’ इतना कहना था कि आकाश में बादलों की तरह गिद्ध भर गए, जो झुक-झुक कर युवक के पास आ रहे थे। जब गिद्ध नीचे आते तो युवक हर एक के गले में एक छोटी सी शीशी बाँध देता, वे ऊँची उड़ान भरकर पर्वत के शिखर पर जाते, धारा से शीशी में पानी भरते और वापस युवक के पास लौट आते। युवक शीशी का पानी पीपे में डाल देता और पक्षी अपनी अगली उड़ान पर चल देता। साँझ ढलते न ढलते पीपा अमृत जल से ऊपर तक भर गया। जैसे ही पीपा पूरा भरा, दूर जाती घोड़े की टापों की आवाज़ युवक को सुनाई देने लगी। सलोनी परी अपने बौनों की सेना के साथ, अपनी जान बचाने के लिए महल छोड़ कर भाग रही थी। उसी समय महल से चंपा नगरी की राजकुमारी भी दौड़ती हुई बाहर आई, “ओह मैं आज़ाद हूँँ! देखो मैं आज़ाद हूँ! तुमने मुझे बचा लिया जवान!” 

राजकुमारी और चिरजीवन के अमृत जल के पीपे के साथ जब युवक तीन छत वाले जहाज़ पर वापस आया तो वृद्ध, सयाना नाविक लंगर उठाने को तैयार बैठा था। 

जिस दिन से युवक तीन छत वाला जहाज़ लेकर गया था, उसी दिन से राजा रोज़ अपनी दूरबीन से समुद्र को देखा करता था। जब उसने तीन छत वाले जहाज़ को आता देखा तो मानो ख़ुशी से पागल ही हो गया। इधर जब खौरहे ने युवक को राजकुमारी के साथ सुरक्षित लौटता पाया तो उसकी हत्या करने को तैयार हो गया, उससे पीछा छुड़ाने का और कोई उपाय न था। 

राजा ने अपनी बेटी के लौटने की ख़ुशी मनानी शुरू कर दी। जब उत्सव मनाया जा रहा था, उसी समय दो ग़मगीन चेहरे वाले आदमी युवक के पास आए और यह कह कर कि किसी के जीने मरने का सवाल है, उसे अपने साथ ले गए। यह दोनों खौरहे ख़रीदे हुए हत्यारे थे। उन्होंने जंगल में ले जाकर युवक की छुरे से वार कर उसकी हत्या कर दी। 

राजकुमारी ने दो डरावने से दिखने वाले आदमियों के साथ जाते हुए युवक को देख लिया था, और वह चिंता से व्याकुल हो रही थी। जब बड़ी देर तक युवक वापस नहीं लौटा, तो वह उसकी खोज में निकल पड़ी। जंगल में पहुँची तो वहाँ उसे क्षत-विक्षत अवस्था में युवक की लाश मिली अब बूढ़ा नाविक अमृत जल का पीपा ले आया। युवक का शरीर उस पीपे में डाला गया। और यह क्या!! पीपे में से पहले से अधिक हृष्ट-पुष्ट और सजीला होकर युवक बाहर कूद पड़ा। राजकुमारी ने ख़ुशी से नाचते हुए युवक के गलबहियाँ डाल दीं। 

यह सब हाल देख-सुनकर खौरहा आग बबूला हो गया। वृद्ध नाविक को प्राणों का भय दिखाते हुए उसने उससे पूछा, “आख़िर उस पीपे में था क्या?” 

“खौलता हुआ तेल, हुज़ूर!” बुद्धिमान नाविक बड़ी विनम्रता से बोला। 

फिर क्या था खौरहे ने एक पीपा तेल खौलवाया। फिर राजकुमारी के पास जाकर बोला, “अगर तुम मुझसे प्यार नहीं करोगी तो मैं अपने को मार डालूँगा!” ऐसा कह कर उसने अपनी तलवार निकाली, उस से शरीर पर कई घाव किए और फिर गर्म तेल के पीपे में कूद गया। उस तेज़ गर्म तेल में कूदते ही उसकी मौत हो गई। उसके सिर पर लगी काले बालों की टोपी भी तेल के ऊपर तैरने लगी और दाद-खाज की पपड़ी जमी खोपड़ी सबको दिखाई पड़ने लगी। 

“हे भगवान! यह तो खौरहा था! मेरा सबसे कट्टर दुश्मन राजा था, उसको अपने किए का फल आज मिल ही गया और वीर जवान तुम मेरे सच्चे धर्मपुत्र हो। तुम मेरी बेटी को स्वीकार करो और यह राजपाट सँभालो।”

किसी ने सच ही कहा है-पाप का घड़ा कभी तो फूटता ही है। 

– तो इस बार की कहानी ख़त्म और पैसा हो गया हज़म! 

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