सेवक सत्यदेव
सरोजिनी पाण्डेयमूल कहानी: मसारो विनिटो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (स्टीवर्ट ट्रुथ); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय
प्रिय पाठक, लोक कथाएँ मनोरंजन के साथ-साथ समाज में जीवन के उत्तम मूल्यों की स्थापना का कार्य भी करती रही हैं। आज की इस कथा में हरिश्चंद्र तो नहीं परंतु युधिष्ठिर जैसी सत्यप्रियता स्पष्ट होती है, साथ ही अंधे मोह का कुपरिणाम भी। प्रस्तुत है अनूदित इतालवी लोककथा—
किसी समय की बात है, एक राजा के पास चार ऐसे पशु थे जो उसे अत्यंत प्यारे थे। वे थे: एक दुधारू बकरी, एक मेमना, एक मेढ़ा (नर भेड़) और एक बछड़ा। ये चारों राजा को इतने प्यारे थे कि वह इनकी देखभाल का काम किसी ऐरे-ग़ैरे को नहीं देना चाहता था। उन दिनों राज्य में पहाड़ी के ऊपर वाले गाँव में एक ऐसा किसान था जिसकी ख्याति इसलिए थी कि वह कभी झूठ नहीं बोलता, नाम भी था उसका सत्यदेव। कहा जाता था कि उसने अपने जीवन में कभी झूठ बोला ही न था। राजा ने सत्यदेव को बुलवा भेजा और अपने परम प्रिय पशुओं की देखभाल का ज़िम्मा उसे सौंपते हुए कहा, “हर शनिवार को तुम राज दरबार में आओगे और इन चारों का हाल मुझे सुनाओगे।”
तो हर शनिवार को सत्यदेव पहाड़ी के ऊपर के अपने गाँव से नीचे आता और राज दरबार में जाकर पशुओं का हाल, बड़े अदब से, राजा को सुनाता। कुछ इस तरह होता उसका हाल सुनाना—
“जय हो महाराज की!“
“आओ आओ सत्यदेव जी! कहो कैसी है मेरी बकरी?“
“सफ़ेद, चंचल और नख़रीली।“
“कैसा है मेमना?“
“सफ़ेद और मनमोहना!”
“कैसा है मेरा मेढ़ा?“
“आलसी मोटा और स्वभाव से थोड़ा टेढ़ा!”
“कैसा है बछड़ा?“
“निडर और तगड़ा!“
राजा सत्यदेव की बातों से संतुष्ट हो जाता और सत्यदेव दरबार से विदा हो वापस गाँव लौट जाता।
समय आराम से बीत रहा था, पर दुनिया में सभी लोग तो अच्छे-सच्चे होते नहीं! राजा के मंत्रियों में एक ऐसा भी था जो राजा द्वारा सत्यदेव को मिलने वाले सम्मान से जलता था। एक दिन उसने राजा से कहा, “हुजूर क्या सचमुच सत्यदेव कभी झूठ नहीं बोलता? अगले शनिवार को उसकी परीक्षा करनी चाहिए, मैं शर्त लगाता हूंँ कि वह ज़रूर झूठ बोलेगा।”
“मैं अपना सिर दाँव पर लगाता हूंँ, सत्यदेव कभी झूठ नहीं बोलेगा।”
और शर्त लग गई, जो हारेगा मारा जाएगा, सारा दरबार साक्षी रहेगा।
समय बीत रहा था। जब शनिवार को तीन दिन बचे तो मंत्री को गहरी चिंता हुई, उसे ऐसा कोई उपाय समझ में नहीं आ रहा था कि वह उस किसान को झूठ बोलने पर विवश कर दे। वह बहुत गहरी चिंता और अवसाद में डूब गया। उसकी पत्नी ने उससे इस उदासी और चिंता का कारण जानना चाहा, “आख़िर बात क्या है? क्यों ऐसे गुमसुम और उदास हो गए हो?“
“चुप रहो,” मंत्री बोला, “जैसे तुम्हें बता दूँगा तो सब समस्या हल ही हो जाएगी!“
पत्नी की बड़ी चिरौरी-विनती के बाद मंत्री जी का दिल पिघला और सारी बात उन्होंने पत्नी को कह सुनाई, हारने पर प्राण जाने की बात भी बता दी।
“अच्छा तो यह बात है,” पत्नी ने कहा, “मैं कुछ करती हूंँ।”
अगले दिन ठाठ-बाट बना कर, सोलह सिंगार से सज सँवरकर, अपनी शानदार बग्गी में बैठकर मंत्री जी की पत्नी सत्यदेव के गाँव के पहाड़ की ओर चल पड़ी। चलते-चलते वह चारागाह में उस जगह पहुँच गई जहाँ सत्यदेव दुधारू बकरी, सफेद मेमना, आलसी मेंढ़ा और तगड़े बछड़े को चरा रहा था। वहाँ मंत्री की पत्नी बग्गी से उतरी और चारों ओर देखने लगी। सत्यदेव ने ऐसी सुंदरी स्त्री पहले कभी नहीं देखी थी। उसको देखकर वह भोला किसान घबरा गया। उसके स्वागत में क्या करे, क्या न करे यह उसको समझ में ही नहीं आ रहा था, तभी, “ओ, चरवाहे!“ वह बोली, “क्या तुम मुझ पर एक एहसान करोगे?“ सत्यदेव तो जैसे धन्य हो गया।
“मालकिन, आप हुकुम करिए, मैं वह सब करूँगा जो मेरे बस में होगा,“ सत्यदेव बोला।
“तुम देख रहे हो मैं पेट से हूंँ, मुझे गौ-मांस (बीफ़) खाने की तीव्र इच्छा हो रही है। यदि भुना हुआ गौ-मांस ना मिला तो शायद मेरी जान चली जाए।”
“आदरणीया सुन्दरी, आप जो चाह रही हैं वह तो असंभव है। आप कुछ और कहें। यह बछड़ा तो राजा का है और उन्हें बहुत प्यारा है।”
“हाय राम! ऐसा लगता है मेरे प्राण निकल जाएँगे। याद रखो चरवाहे, दो की हत्या का पाप तुम्हें लगेगा। तुम किसी तरह मेरी इच्छा पूरी कर दो, राजा को कुछ पता नहीं चलेगा। उनसे कहना कि बछड़ा पहाड़ से गिरकर मर गया।”
“नहीं-नहीं, मैं न तो अमानत में ख़यानत कर सकता हूंँ, और ना ही राजा से झूठ कह सकता हूंँ। आपकी इच्छा पूरी नहीं हो सकती।”
यह सुनते ही महिला ज़मीन पर गिर पड़ी और ऐसे तड़पने लगने लगी लगता था मानो सचमुच उसके प्राण निकल जाएँगे। उसकी सुंदरता और उसकी पीड़ा देखकर सत्यदेव का हृदय पिघल गया। उसके प्राण बचाने की बात सोचकर उसने बछड़े को मारा, उसका कलेजा निकाला और भूनकर तड़पती मंत्राणी को खिला दिया। मंत्राणी अति प्रसन्न हो गई। उसने दो निवाले में ही सारा मांस हज़म कर लिया। चरवाहे सेवक सत्यदेव को धन्यवाद दे, बग्गी में सवार हुई और उड़न छू हो गई।
बेचारा सत्यदेव सेवक चरवाहा अकेला खड़ा रह गया, अपने किए पर लज्जित, चिंतित और घबराया!
“क्या कहूँगा अब राजा से आते शनिवार को? जब वह पूछेंगे बछड़े का हाल, कैसे कहूँगा निडर और तगड़ा?“
उसने अपनी लाठी उठाई और ज़मीन में गाड़ दी। अपने सिर की टोपी उतार कर उस पर लटका दी, कई क़दम पीछे हटकर फिर एक क़दम आगे बढ़ा, अदब से सिर झुकाया और लाठी से बोला, “जय हो महाराज की!“
फिर अपना स्वर कुछ बदल कर महाराज की नक़ल कर बोला, “आओ आओ सत्यदेव जी! कहो कैसी है मेरी बकरी?“
“सफ़ेद, चंचल और नख़रीली!“
“कैसा है मेमना?“
“सफ़ेद और मनमोहना!“
“कैसा है मेढ़ा?“
“आलसी, मोटा पर स्वभाव से थोड़ा टेढ़ा!“
“कैसा है बछड़ा?“
यहाँ आकर वह चुप हो गया, हकलाने लगा लाठी को सुना कर बोला, “महाराज . . . मैं . . . मैं . . . और . . . वह . . . उछल . . . पहाड़ की चोटी . . . हड्डी पसली . . . “ इतना बोलते-बोलते वह व्याकुल हो गया और अपना सिर अपने हाथों में थाम लिया, आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली।
“नहीं!” वह कुछ सोचते हुए बोला, “मैं राजा से यह सब नहीं कहूँगा, यह सब झूठ है।” उसने अपने लाठी वहाँ से उखाड़ ली और दूसरी जगह गाड़ दी। अपनी टोपी उस पर लटकाई और वही बातचीत फिर दोहराई, “कैसा है बछड़ा?“ पर आते ही वह फिर लड़खड़ा गया, ”महाराज उसे चोर चुरा ले गए?“
वह घर गया उसे रात भर नींद नहीं आई। अगला दिन शनिवार का था। उदास मुख, सिर झुकाए वह यही सोच रहा था कि राजा से क्या कहेगा! फिर राम-राम करते हुए उसने क़दम महल की ओर बढ़ाए।
रास्ते में जो भी पेड़-पौधा मिलता वह उससे, “महाराज की जय हो!“ की पुकार लगाता, सारी बातचीत दोहराता और आगे चल पड़ता। सारे रास्ते वह हर वृक्ष के आगे नतमस्तक हो 'महाराज की जय' बोल सारा वार्तालाप दोहराता, परंतु उसका चित्त स्थिर न होता। अनेक वृक्षों को प्रणाम करने और सारा वृत्तांत बताने के बाद उसने अंततः मन ही मन तय कर लिया कि अब यही जवाब देगा और कुछ नहीं। बार-बार वही उत्तर बोलते-बोलते उसे विश्वास हो गया कि जो वह बोल रहा है, वही ठीक है और वह संतुष्ट हो गया।
आज तो राजा का दरबार खचाखच भरा था, शर्त का ख़ुलासा जो होना था! सत्यदेव सेवक ने सिर की टोपी उतारी, माथा झुकाकर राजा का अभिनंदन किया और प्रश्नावली आरंभ हो गईः
“महाराज की जय हो!“
“आओ आओ सत्यदेव, कहो कैसी है मेरी बकरी?“
“सफ़ेद चंचल और नख़रीली!“
“कैसा है मेमना?“
“सफ़ेद और मनमोहना!“
“कैसा है मेरा मेढ़ा?“
“आलसी, मोटा और स्वभाव से थोड़ा टेढ़ा!“
“कैसा है बछड़ा?“
“महाराज की जय,” अब सत्यदेव बोलने लगा—
“उच्च कुलीन आई एक नारी,
सजी-धजी, सुंदर, सुकुमारी
मुझको उससे प्रेम हो गया
बछड़ा बलिवेदी पर चढ़ गया“
इतना कहकर सत्यदेव ने अपना सिर झुका लिया और निडर स्वर में बोला, “स्वामी, अब आप मुझे जो भी सज़ा दें, मैं सबके लिए तैयार हूंँ। सारी बात आपको मैंने सच-सच बता दी है।”
राजा को अपने बछड़े के मरने का दुख तो बहुत हुआ, परंतु सत्यदेव की सत्य निष्ठा से उसका माथा गर्व से ऊँचा हो गया। होता भी क्यों ना? इतने सत्यनिष्ठ लोग संसार में होते ही कितने हैं? जो होते हैं वे अनुकरणीय और पूजनीय होते हैं। सेवक सत्यदेव को सोने की मोहरों से भरी एक थैली पुरस्कार में मिली। उस धूर्त मंत्री को छोड़, सारा दरबार उसके अभिनंदन के लिए उठ खड़ा हुआ और धूर्त को अपनी धूर्तता का मूल्य अपने प्राण देकर चुकाना पड़ा।
सच का मुँह उजाला,
झूठे को करो काला,
करना मेरा इंतज़ार,
अगली कहानी भी होगी आला!!!
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