जापान की ‘टी-सेरेमनी’ या चाय समारोह
सरोजिनी पाण्डेय
हिंदू धर्म की सनातन व्यवस्थाओं के अनुसार गृहस्थ धर्म का पालन कर लेने के बाद परिवार की व्यवस्था अगली पीढ़ी को सौंप कर देशाटन और तीर्थ भ्रमण करना चाहिए; ईश्वर चर्चा और अर्चना में समय बिताना चाहिए। मेरा इस आश्रम-व्यवस्था से कभी कोई विरोध नहीं रहा, लेकिन समय के साथ हमारे दृष्टिकोण भी बदलते रहते हैं, तो गृहस्थधर्म निभा लेने के बाद हम पति-पत्नी ने यह निश्चय किया है कि केवल तीर्थ ही नहीं बल्कि हम सारी दुनिया देखेंगे और पृथ्वी के विभिन्न भागों में रहने वाले मनुष्यों की जीवन शैली से परिचित होंगे। किसी कलाकार की कलाकृतियों की प्रशंसा करना भी तो कलाकार की ही प्रशंसा है। हम विश्व भ्रमण इसी इच्छा से करते हैं कि प्रभु के गुण गा सकें . . . इस को पूरा करने के प्रयास में हमने कुछ पश्चिमी देशों की सैर करने के बाद, पिछले दिनों जापान की यात्रा का कार्यक्रम बनाया।
विद्यार्थी जीवन में जब एशिया महाद्वीप के बारे में पढ़ रही थी, उस समय जापान के बारे में पढ़ते हुए वहाँ की ‘टी सेरेमनी’, के नाम से परिचय हुआ था, जो जापान की संस्कृति का एक मुख्य अंग है।
आधी शताब्दी बीत जाने के बाद उस ‘टी सेरेमनी’ का साक्षात् दर्शन जापान-यात्रा के समय क्योटो नामक नगर में हुआ। इस समारोह को जैसा मैंने देखा और समझा वह आपको सुनाने का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा है। टी सेरेमनी का कार्यक्रम हमने क्योटो शहर में देखा था आप भी आनंद लीजिए:
क्योटो शहर बहुत लंबे समय तक जापान की राजधानी रह चुका है। कामाकुरा और टोक्यो तो बाद में बनी हुई राजधानियों के शहर थे, क्योटो शब्द का अर्थ ही है ‘कैपिटल या राजधानी’। आज के आधुनिक समय में जहाँ जापान में पश्चिमी सभ्यता का प्रसार हो रहा है, वहीं क्योटो अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने का प्रतीक बन चुका है। आप में से कुछ लोगों को, सम्भव है, यह याद हो कि वाराणसी से चुनाव जीत लेने के बाद हमारे प्रधानमंत्री ने एक बार कहा था कि वाराणसी का विकास जापान के क्योटो शहर के ढंग से किया जाएगा कि प्राचीनता सुरक्षित रहे और आधुनिकता उसके साथ आकर मिल जाए। क्योटो में सचमुच ही ऐसा है कि कुछ हिस्सों में प्राचीनता सुरक्षित है और आधुनिक सुख सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं।
किन्मो नामक जापानी सम्राट ने इसको बसाया था। कामू नदी के तट पर यह प्राचीन नगर बसा है। यहाँ अनेक बौद्ध और शेन्टो धर्म के मंदिर सुरक्षित हैं। उनके साथ लगे हुए जापानी बाग़-बग़ीचों को भी सँभाल कर रखा गया है। किसी-किसी मंदिर के साथ बाँस के घने जंगल शहर के बीचों-बीच आज भी सुरक्षित देखे जा सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस शहर के कई स्मारकों को ‘विश्व धरोहर’, घोषित किया है। टोक्यो, हिरोशिमा आदि नगरों में मैंने सार्वजनिक स्थलों पर स्त्री-पुरुषों को केवल पश्चिमी पोशाक में देखा था, परन्तु यहाँ लोग अपने पारंपरिक वेश किमोन और यूकाटा में भी सार्वजनिक स्थानों पर घूमते हुए दिखलाई पड़े। यहाँ सैलानियों के लिए कई स्थानों पर चाय समारोह टिकट लेकर दिखलाए और समझाए जाते हैं, ऐसा ही एक कार्यक्रम हमने भी देखा, उसीके आधार पर मैं आपको जापान के चाय समारोह बारे में बताऊँगी।
जापान में चाय समारोह की परंपरा बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है ऐसा माना जाता है कि चाय समारोह मन की शान्ति और और प्रसन्नता के लिए किया जाता है। इससे आत्मा की शुद्धि होती है, जीवन में नए रस का संचार होता है और आप जब एकाग्र मन से चाय पीने की हर गतिविधि को सही ढंग से पूरा करते हैं तो आपकी एकाग्रता भी बढ़ती है। फ़ीस की बात से मन में एक हल्की-सी टीस भी उठी कि संसार के माया-भ्रम, पीड़ा को कम करने के लिए जो आयोजन परंपरा से विकसित हुआ आज वह एक व्यावसायिक कार्यक्रम बन चुका है, लोग उससे धन कमा रहे हैं जो धन के मोह से मुक्ति दिलाने की परंपरा थी। समय का चक्र भी कैसे-कैसे परिवर्तन करता है!! छोड़िए भी ऐसी बातों को, यह तो कालचक्र है जो न जाने कैसे-कैसे अजूबे करता रहता है। तो जो कार्यक्रम हमने देखा उसमें भाग लेने वाले हर व्यक्ति को बाँस की चटाई, जिसे ‘टाटामी’ कहते हैं, पर घुटनों के बल वज्रासन की मुद्रा में बैठना था। सबके सामने 8-10 इंच ऊँचाई की एक छोटी आयताकार चौकी रखी गई, जिस पर चाय बनाने की प्रक्रिया में प्रयोग किए जाने वाली सभी वस्तुएँ एक सुनिश्चित क्रम में रखी गई थी। इस चौकी को ‘चाबूडाई’ कहा जाता है। चाबूडाई पर सबसे बाईं तरफ़ कलाकृतियों से युक्त ‘चावान’ अर्थात् चाय पीने का कटोरा था, जिसकी कलाकृति हमारी तरफ़ दिखाई दे रही थी, यह चाय पीने का कप यदि थोड़ा ऊँचाई लिए हुए होता है तो उसे ‘यूनोमी’, कहते हैं। गुज़रे ज़माने में इन कटोरीनुमा चाय की प्यालियों पर चित्रकारी करने का काम घर की स्त्रियाँ अपने ख़ाली समय में किया करती थीं।
इसके बग़ल में बाँस से बनी ढक्कनदार डिबिया, जिसे चाकी कहते हैं, रखी गई थी, इस पर भी सजावट के लिए फूल पत्तियाँ बनी थीं, इसमें ‘माचा’ चाय का पाउडर रखा था, सामान्य चाय को जापान में ओचा कहा जाता है, माचा एक विशेष प्रकार की चाय होती है जो हरे रंग के चूर्ण के रूप में होती है, कहा जाता है कि यह विशेष स्वास्थ्यप्रद होती है।
इसके बाद एक रेशमी रुमाल (फुकुसा) पर चीनी से बनी हुई दो नन्ही-नन्ही मिठाइयों के टुकड़े रखे थे, जिसमें से एक चिड़िया के आकार में और एक छोटे से फूल के आकार में थी।
चावान (चाय पीने का कप या कटोरी) के ऊपर बाँस का बना एक चम्मच जिसे ‘चाश्कू’ कहते हैं, रखा था! इसका उपयोग माचा निकालने के लिए किया जाना था। एक सफ़ेद प्याली भी रखी थी जिसमें गर्म पानी मिलना था। फुकुसा के पास ‘चासेन’ रखा हुआ था। ‘चासेन‘ बाँस का बना हुआ ऐसा ‘ब्रश’ होता है, जिसका आकार पुरुषों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले शेविंग ब्रश जैसा था।
कार्यक्रम की मेज़बान ने लोहे के एक बड़े बरतन, जिसे ‘चागाम’ कहते हैं, में पानी गर्म किया, एक सहायक ने छोटी केतली, जिसे ‘क्यू शु’ कहते हैं, में यह गर्म पानी लिया और सभी दर्शकों (अतिथियों) के सामने चाबूडाई पर रक्खी सफ़ेद प्याली में यह गर्म पानी थोड़ा-थोड़ा (लगभग 75मिली) डाल दिया।
अब चाय बनाने की प्रक्रिया आरम्भ हुई। हमसे कहा गया कि ‘चावान’ में डेढ़ चम्मच (चाश्कू) माचा पाउडर डालें। नियम है कि माचा पाउडर कभी केवल एक बार में नहीं डाला जाता। अब इस हरे पाउडर में हमें थोड़ा सा पानी डाल कर, पानी और माचा के मिश्रण से चासेन (बाँस का बना हुआ शेविंग ब्रश के आकार का व्हिस्क) सहायता से पेस्ट बनाना था। चासेन की सहायता से मिश्रण इस तरह फेंटना था कि उसमें झाग बन जाए, एक ज़माने में जैसे कॉफ़ी को फेंट कर हम घर पर ही एस्प्रेसो बनाना चाहते थे ठीक उसी तरह। जब पर्याप्त फिंट जाए, तब इसमें और पानी मिलाकर इसे पतली चाय का रूप देना था। अब हमारी चाय तैयार थी।
चाय पीने का भी एक विशेष ढंग हमें बताया गया, सबसे पहले फुकुसा पर रखी, चीनी से बनी मिठाई को हमने मुँह में डाला। फिर चाय पीने की बारी थी।
दाहिने हाथ से चावान को उठाकर बायीं हथेली पर रख, फिर उसे दाएँ हाथ से घड़ी की दिशा में चलाते हुए, दो बार में 180 डिग्री घुमा कर ऐसी स्थिति में लाना था कि उस पर बनी कलाकृति सामने बैठे मेज़बान की तरफ़ हो जाए। अब प्याली को दोनों हथेलियाँ से पकड़कर, तीन घूँट में चाय ख़त्म करनी थी। पहले दो घूँट इस ढंग से भरने थे कि कोई आवाज़ न हो, परन्तु तीसरा घूँट भरते हुए सुड़कने की आवाज़ अवश्य आनी चाहिए। सुड़क कर चाय पीने का अर्थ यह माना जाता है कि आपने चाय का आनंद लिया और आप आतिथेय की प्रशंसा कर रहे हैं। चाय का स्वाद कड़वा था नीम से थोड़ा ही कम, चाय की कड़वाहट बहुत बुरी ना लगे इसीलिए उसे पीने से पहले मिठाई का टुकड़ा खाना ज़रूरी हो जाता है।
चाय समाप्त हो जाने के बाद फुकुसा से प्याली के उसे भाग को साफ़ किया जाता है, जो अतिथि के होंठों से स्पर्श हुआ था। इसके बाद ख़ाली और साफ़ प्याली को दाहिनी हथेली पर रखकर, बाएँ हाथ की हथेली से, घड़ी की गति की दिशा में, घुमा कर ऐसी स्थिति में लाना था कि उसकी कलाकृति चाय पीने वाले के सामने आ जाए। इस प्रकार चाय बनाकर, और पी कर समाप्त करने तक प्याली को घड़ी के घूमने की दिशा में पूरा एक चक्कर दिया गया था।
ख़ाली प्याली को चाबूडाई पर रखने के बाद दोनों हाथों को शरीर के साथ मिलकर रखते हुए, सर झुका कर मेज़बान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन किया गया।
इस प्रकार छात्र जीवन से प्रतीक्षित, जगत प्रसिद्ध जापानी ‘टी सेरेमनी’ में मैंने एक विदेशी सैलानी, अतिथि के रूप में भाग लिया।
सम्भवत यह एक परिचयात्मक ‘टी सेरेमनी’ ही रही होगी क्योंकि इतने महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले इस समारोह का महत्त्व अवश्य ही कुछ बहुत गहरा होता होगा। या फिर काल के चक्र ने उसमें भी कुछ परिवर्तन कर दिये होंगे! इतनी गहरी जानकारी पाना तो मेरे लिए सम्भव न था, हाँ ‘टी सेरेमनी’ का इतना विस्तृत परिचय पाना ही मेरे लिए परम संतोषदायक था।
मेरा लेख पढ़ने का समय जिसने भी निकाला उन सभी पाठकों को मैं जापानी ढंग से ‘आरिगातो’ कहकर ‘धन्यवाद’ देना चाहती हूँ!
अरिगातो, प्रिय पाठको।
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