जीभ और दाँत
सरोजिनी पाण्डेय
संत तुलसीदास कृत ‘श्री रामचरित-मानस’ उत्तर भारत में सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला धार्मिक ग्रंथ है। इसमें भी जो अंश सबसे अधिक पढ़ा जाता है वह है ‘सुंदरकांड’, जिसमें रावण द्वारा हरण की गयी, अशोक वाटिका में निवास करने वाली, सीता का पता लगाते हुए, हनुमान जी की भेंट रावण के भाई विभीषण से होती है। विभीषण को रामभक्त जान हनुमान जी उनका परिचय प्राप्त करते हैं। उग्र और तामसी स्वभाव के राक्षसों के बीच सात्विक-शान्त स्वभाव वाले विभीषण लंका में अपनी स्थिति को बताते हुए हनुमान से कहते हैं:
“सुनहु पवन सुत रहनि हमारी,
ज्यों दसनन मंहु जीभ बिचारी।”
जिसका अर्थ है, “हे हनुमान, लंका में मेरा जन्म ओर निवास होने के कारण मेरी स्थिति वही है, जो बत्तीस दाँतों के बीच में रहने वाली ‘बेचारी’ जीभ की होती है, जिसे सदैव यह आशंका बनी रहती है कि उसके साथ, उसी मुँह में रहने वाले बत्तीस दाँत न जाने कब काट लें, किसी दुर्भावना से नहीं मात्र स्वभाव वश।”
हम सब जानते हैं, जीभ हमारे शरीर का बहुत कोमल अंग है! वह भोजन को मुँह के अंदर घुमा-फिरा कर उसे अच्छी तरह पीसे जाने में मदद करती है, भोजन अच्छी तरह पिस जाने के बाद ही हमारे शरीर का सुचारु पोषण कर पाता है, यदि जीभ कोमल और लचीली ना हो तो वह भोजन को मुँह के अंदर घुमा नहीं सकती।
वहीं हमारे दाँत हमारे शरीर के सबसे कठोर अंग हैं। सोचिए, जिन दाँतों को मानव के मुख में रहकर आठ-नौ दशकों तक लगातार सक्रिय रहते हुए, टनों भोजन को पीसने का काम करना पड़ता है, यदि वे कठोर ना हों तो भला कैसे काम चल सकता है मानव शरीर का!!
तो यह तो प्रकृति की मनमौज है कि उसने शरीर के सबसे अधिक कोमल और सबसे अधिक कठोर अंग को एक साथ ही रहने का विधान किया है, जो विचित्र तो है परन्तु अत्यावश्यक।
विभीषण रावण की उपेक्षा से मर्माहत हो, लंका छोड़कर, समुद्र की लहरों पर पैरों-पैरों चलकर श्री राम की शरण में आए, तो प्रभु राम को अपनी अंतर्चेतना और संवेदनशीलता के कारण विभीषण के निवास की विषम परिस्थितियों का अनुमान था। उन्होंने विभीषण से प्रश्न भी किया:
“कहु लंकेस सहित परिवारा,
कुशल, कुठार वास तुम्हारा।
खल-मंडली बहुत दिन राती,
सखा, धरम निबहहि केहि भांति?”
अर्थात् विभीषण तुम अपनी कुशल-क्षेम बताओ। तुम्हारा निवास तो बहुत बुरे स्थान (लंका) में है, तुम शान्त स्वभाव के हो और चारों ओर से उग्र स्वभाव वाले अपने परिजनों से घिरे हो। भला तुम अपने धर्म का पालन कैसे कर पाते हो?
अब सुंदरकांड का पाठ तो मैंने भी अनेक बार किया और सुना है परन्तु विभीषण की निवास से संबंधित दुश्चिंता और उनकी असुविधा का मर्म तब समझ में आया कि इस नैसर्गिक और आवश्यक प्रबंध के कारण कोई पक्ष कैसे पीड़ा सहने को बाध्य है।
दो दिन पहले अचानक एक दिन मेरी दाढ़ के एक दाँत से, जीभ की तरफ़ का एक छोटा सा टुकड़ा चिटक कर दाँत से निकल गया, शायद वह एक मिली मीटर से भी छोटा, रहा होगा। अब जिन दाँतों ने, छह दशकों तक मेरे द्वारा खाए गए हर खाद्य पदार्थ को कुचल, पीस, आंतों के लिए स्वीकार्य बनाया हो और मुझे स्वस्थ रखा हो वह क्या कभी क्षीण नहीं होने चाहिए थे? समय किसी को नहीं छोड़ता, मेरे दाँतों को भी उसने नहीं छोड़ा लेकिन इतनी ल़ंबी सेवा के बाद, उनके कमज़ोर होने पर उन्हें दोष तो नहीं दिया जा सकता!
यह घटना सुबह की थी। मैं सोचा कि एक-दो दिन में जब समय मिलेगा तब जाकर डॉक्टर को दिखा लूँगी, जल्दी क्या है, नगण्य सा, छोटा टुकड़ा ही तो टूटा है? परन्तु एकाध घंटे बाद ही मुझे अपने निर्णय पर आपात्कालीन विचार करना पड़ा। क्योंकि मेरी ‘बेचारी’ जिह्वा न तो विभीषण शान्त स्वभाव वाली थी और न ही उसे किसी ‘राम’ की शरण मिल सकती थी। उसकी सहायता यदि कोई कर सकता था तो वह मैं ही थी लेकिन उसे मेरे मुख में बचे हुए इकत्तीस दाँतों के बीच में ही रहना था, यदि वहाँ पलायन करके कहीं और चली जाए तो मेरा तो जीवन ही समाप्त हो जाएगा।
जिह्वा को राम का आसरा तो नहीं था, परन्तु सनातन काल से आज के कलियुग तक वह अपना निर्धारित कर्म करती जा रही थी, उससे वह भाग नहीं सकती थी। दाँतों का भी वही हाल है वे भी मानव की उत्पत्ति से आज तक अपना काम करते आ रहे हैं, बिना रुके बिना विद्रोह किए।
तुलसी ने यह भी तो लिख ही दिया है:
“प्रभु अज्ञा अपेल रघुराई
श्रुति सम्मत सब ग्रंथनि गाई।”
(अर्थ: वेद पुराण कहते हैं कि ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करने की शक्ति किसी में नहीं है।)
और
“प्रभु आयसु जे कंह जस अहई ।
सो तेहि भांति रहे सुख लहई॥”
(अर्थ: ईश्वर ने जिसके लिए जो कर्म निर्धारित किया है उसे ही करने से सुख और शान्ति मिलती है)
तो भैया, जीभ और दाँत अपने ‘श्रुति संमत’ काम करते रहे। मेरे दाँत ने मुँह में अपने नीचे आई हुई हर वस्तु को कुचलने और पीसने का काम नहीं छोड़ा हालाँकि एक दाँत घायल था और जिह्वा निगलने, भोजन को मुख में घुमाने, साँस लेने और बोलने में सहायता करने का काम पूरी लगन से करती रही, भले ही उसे अपना कर्म करते हुए टूटे दाँत के चाकू जैसे तेज़ धार वाले किनारों से टकराना पड़ रहा था, अपने-अपने निर्धारित कर्म में लगे हुए दाँत और जीभ की कर्त्तव्य निष्ठा के कारण मैं पीड़ा सहती रही। दाढ़ के चिटक कर टूटे हुए दाँत के किनारे किसी चाकू की धार से भी पैने हो गए थे। पानी पीते, बोलते, कोई चीज़ निगलते हुए जब भी जीभ में कोई गति होती, वह दाँत के टूटे हुए तेज धार वाले किनारे से टकराती और बेचारी लहूलुहान होने लगी। साँझ होते ना होते मेरे गले तक दर्द होने लगा। पीड़ा की व्याकुलता सीमा से बाहर तक पहुँचने लगी।
अब मैंने एक परिचित दंत चिकित्सक से समय लिया! पड़ोस का लिहाज़ करते हुए उन्होंने अपने व्यस्त कार्यक्रम में भी मुझे थोड़ा समय देने की बात कही। मुझे पीड़ा इतनी अधिक थी, दिए गए समय से पहले ही वहाँ पहुँच गई। परन्तु भाग्य देखिए कि मुझ से पहले जो पीड़ित व्यक्ति डॉक्टर के कमरे में गया, उसे अनुमान से बहुत अधिक समय लग गया। जिन्हें दाँत के डॉक्टर के पास जाना पड़ा हो वे सब समझते होंगे कि दाँत के डॉक्टर को एक मरीज़ के साथ कितना अधिक समय, कभी-कभी देना पड़ता है। ख़ैर राम-राम कहते मेरा भी नंबर आ गया। मैं डॉक्टर की कुर्सी पर बैठी, अपनी दशा बताई उन्होंने दाँत को देखा और दाँत की सफ़ाई-घिसाई करने वाले यंत्र से दाँतों को साफ़ किया, उसके किनानों को चिकना किया और मटर बराबर “सीमेंट” लेकर मेरे दाँतों में भर दिया।
अधिक से अधिक पाँच मिनट मैं दाँत बनवाने वाली कुर्सी पर रही।
जीभ पर बने घाव पर लगाने के लिए उन्होंने एक दवा लिख दी, जिसका मूल्य ₹200 था, डॉक्टर की फ़ीस ₹800 थी कुल मिलाकर ₹1000 का ख़र्च हो गया, तब जाकर परिस्थितियाँ सामान्य हुई और दाँत और जीभ में सामंजस्य और मित्रता स्थापित होगयी।
मुझे याद आया कि जब मैं ब्याह कर आई, थी तब मेरे पति अक्सर यह सपने देखे थे कि उनका वेतन चार अंकों वाला (four figure income) हो जाए। उस समय यह बड़े सम्मान की बात मानी जाती थी। आज ज़रा से चिटक कर टूटे दाँत का इलाज करवाने में, जीभ के पड़ोसी को उसके लिए सह्य बनाने में वह अभिलाषित ‘फ़ोर फ़िगर इनकम’ फुर्र से उड़ गई!
इस पूरे घटनाक्रम ने मुझे विभीषण की निवास की स्थिति और इनकी आशंका, भय का सही-सही अनुमान करा दिया।
साथ ही मेरा मन ईश्वर के प्रति श्रद्धा से भी झुक गया कि इन ‘घोर विरोधाभासी दो पड़ोसियों’ के बीच लड़ाई-झगड़े की स्थिति बहुत कम ही आती है। और यदि आती भी है तो, दाँत और जीभ के स्वामी ‘मानव मस्तिष्क’ को उन्होंने इतनी शक्ति भी दी है कि वह उनके बीच मित्रता करा सके, न कि किसी को पलायन करने की आवश्यकता पड़े।
साथ ही तुलसीदास जी की सुंदर उपमा के रहस्य को समझ कर हृदय उनके प्रति श्रद्धा से झुक गया॥
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