महाबली बलवंत

01-10-2023

महाबली बलवंत

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 238, अक्टूबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

मूल कहानी: गिवान बालेन्टो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (जॉन बलेन्टो); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स

 

प्रिय पाठक, हम हिंदी भाषी लोग अपनी बोलचाल की भाषा में ‘तीस मार खां’ मुहावरे का प्रयोग अक़्सर करते रहते हैं। आप लोगों में से हो सकता है कुछ लोगों ने इसकी अंतर्कथा भी कभी पढ़ी हो। इतालवी लोक कथाओं के संग्रह में जब इस आशय की कथा मुझे पढ़ने को मिली तो मैं उसका अनुवाद करने का लोभ संवरण न कर सकी। प्रस्तुत है एक कहानी ‘तीस मार खां’ के बारे में, हास्य का पुट लिए हुए यह लोक कथा संसार की अनेक सच्चाइयों को भी व्यक्त करने में सक्षम है जैसे—प्रचार माध्यमों का जनमानस पर प्रभाव, आत्मविश्वास का महत्त्व, आदि। कथा का आनंद लें:

एक समय की बात है, एक छोटे क़स्बे में एक मोची रहता था, जो दिन रात फटे-पुराने जूतों की मरम्मत किया करता था, चाहे उसकी उँगलियों में सुवा ही क्यों ना चुभ गया हो। माता-पिता द्वारा दिया गया नाम था इसका बलवंत। 

बलवंत क़द-काठी में तो छोटा था लेकिन उसकी बुद्धि बड़ी थी, बहुत चतुर था वह। एक दिन जूता गाँठते हुए बदक़िस्मती से सुवा उसकी उँगली के मांस तक घुस गया, ख़ून की बूँदें छलक पड़ीं, “हायsss हायsss मैं तो मराsss,” वह दर्द से बिलबिला उठा। आसपास के लोगों ने उसकी कराह तो सुनी पर परवाह किसी ने न की। 

पड़ोसियों ने तो बलवंत की परवाह न की लेकिन उसकी उँगलियों से बहते ख़ून की गंध जब मक्खियों को मिली, तो सारे क़स्बे की मक्खियाँ, उस मोची के घर, उसका हाल-चाल लेने दौड़ पड़ीं। एक दो तो बलवंत की घायल उँगली पर बैठीं, बाक़ी कमरे के कोने में पड़े झूठे बर्तनों पर बैठकर पेट भरने लगीं। “हे भगवान, इतनी मक्खियाँ मेरे घर में कहाँ से घुस आईं!” मोची झुँझला उठा और चमड़े के एक टुकड़े से हवा करके उन्हें भागने की कोशिश करने लगा। लेकिन मक्खियाँ भी ढीठ थीं, वे जूठन पर भिनभिनाती ही रहीं। ग़ुस्से में भरकर बलवंत ने अपना पंजा मक्खियों के झुंड पर इतनी ताक़त लगा कर घुमाया कि वहाँ तो महासमर का हाल हो गया। उसने जब फ़र्श पर पड़ी मक्खियों की लाशें गिनी तो एक हज़ार तो मर गई थीं और पाँच सौ टूटे पंख, टूटी टाँग ले घायल पड़ी थीं। बलवंत गर्व से फूल उठा, “क्या हमला किया है! लोगों को लगता है मैं एकदम निकम्मा हूँ, बस जूते गाँठना ही जानता हूँँ, लेकिन कोशिश करूँ तो मैं भी नाम कमा सकता हूँँ।” उसने अपने सूए की मूँठ स्याही में डुबोई और कपड़े की एक पट्टी पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा ‘महाबली बलवंत जिसने अभी-अभी एक हज़ार मार डाले और पाँच सौ घायल कर दिए’। 

फिर उसने इस कपड़े को झंडे की तरह अपनी क़मीज़ की पीठ के साथ टाँक दिया। जब क़स्बे के लोगों ने इस नारे को पढ़ा तो सबने बलवंत की हँसी उड़ाई और कई ने तो बार-बार यही पूछा भी, “भला बताओ तो बलवंत कितनों को मारा?” और हर बार बलवंत ज़ोर से बोल देता, “हजार मारे पाँच सौ घायल”। इस तरह, चाहे हँसी मज़ाक़ में ही सही, बलवंत का नाम एक क़स्बे से दूसरे और दूसरे से तीसरे क़स्बे तक चलते-चलते दूर-दूर तक फैल गया। बातों ही बातों में वह एक बड़े वीर योद्धा के रूप में जाना जाने लगा। 

इसी बीच उस मोची ने अपने सुए, मोम, नहाई, हथौड़ी, डोरे आदि मोचीगीरी के औज़ारों को एक तरफ़ रख दिया और दुनिया देखने के लिए निकल पड़ा। वह एक मरियल टट्टू पर, एकदम ख़ाली हाथ सवार हो संसार में अपना भाग्य आज़माने निकल पड़ा। 

तीन दिनों तक जंगल के बीच से गुज़रने के बाद वह एक सराय के सामने जा पहुँचा। “एक हज़ार को मारने और पाँच सौ को घायल करने वाले महाबली बलवंत की सवारी आती है” यह नारा लगाते हुए वह सराय के दरवाज़े तक पहुँच गया। 

कहते हैं ना, ‘भाग्यवान का हल भूत जोतते हैं’, तो संयोग से उस समय सराय में लुटेरों का एक दल टिका था। बलवंत की घोषणा सुनते ही उन्होंने आव देखा न ताव, जिसका सींग जिधर समाया उधर से भाग निकला। कई लुटेरे तो सामने परोसी हुई थाली भी छोड़कर उठ भागे। जान बचाने की फ़िक्र में उन्होंने अपने हथियार और घोड़ों को भी वहीं छोड़ दिया। 

बलवंत बड़े आराम से अपने टट्टू से उतरा और सराय में जाकर बैठ गया। तभी सराय का मालिक उसके सामने आकर बोला, “हे वीर बहादुर, मैं हमेशा आपका आभारी रहूँगा। आपके केवल आ जाने से लुटेरों के झुंड से मेरी रक्षा हो गई। आप जब तक चाहे यहाँ रहें, जो जी चाहे भरपेट खाएँ।” नज़रें थाली पर गड़ाए और भोजन मुँह में भरे हुए बलवंत बोला, “यह तो कुछ भी नहीं है। मेरे और कारनामे फिर कभी सुनना।” भरपेट खाना खा लेने के बाद बलवंत ने लुटेरों के सरदार का घोड़ा लिया और उस पर सवार होकर सराय के मालिक से बोला, “जब तक महाबली बलवंत ज़िन्दा है तब तक तुम्हारा कोई भी बाल बाँका नहीं कर सकता। जब भी ज़रूरत हो बस मुझे याद कर लेना।” यह कह कर उसने घोड़े को एड़ लगायी और सराय से बाहर निकल गया। सभी नौकर, और मालिक भी उसके सम्मान में झुके खड़े थे। 

अब से पहले बलवंत ने कभी घोड़े की सवारी तो की नहीं थी, तो वह अपने घुटनों को घोड़े के शरीर के साथ कसकर दबाए किसी तरह अपने को सँभाल रहा था। हर क़दम पर उसे लगता था कि अब गिरा कि तब गिरा। कभी वह चिल्लाता, “ओ मेरे सुआ कहाँ हो तुम?” और कभी कहता, “मेरे डोरे न जाने क्या सोचकर मैंने तुमको छोड़ दिया!” लेकिन वह चीखता-चिल्लाता भी घोड़े पर सवारी किये ही रहा और कुछ समय में बलवन्त मोची घुड़सवारी सीख गया। वह जहाँ भी जाता है उसे आदर सम्मान मिलता। 

चलता, यात्रा करता वह विशालकाय दैत्यों के देश में जा पहुँचा। आकार में बलवंत से चार गुना बड़े दैत्यों ने जब उसे देखा तो वे अपने भाड़ जैसे मुँह खोलकर, होंठों पर जीभ फेरने लगे मानो उसे खा ही तो जाएँगे। 

“तो तुम हो बलवान बलवंत जिसने एक हज़ार मारे और पाँच सौ घायल किए हैं?” दैत्यों का सरदार दहाड़ा, “नदी के किनारे आ जाओ, हो जाए दो-दो हाथ!”

“सुनो!” बलवंत गरजा, “तुम्हारा भला इसी में है कि मुझे मेरी राह जाने दो। मिर्च का नाम सुना है न, वह छोटी होकर भी कितनी तेज़ होती है? अगर मैंने अपनी तलवार उठा ली तो फिर तो भगवान ही तुम्हारा मालिक है।”

दैत्यों ने आपस में सलाह-मशविरा किया, फिर सरदार कुछ नर्मी से बोला, “ठीक है, हम तुम्हें जाने देंगे, लेकिन पहले तुमको अपनी ताक़त का सबूत देना होगा। वह दूर पर एक चट्टान देख रहे हो न, उसे उठाकर यहाँ ले आओ। उससे हम अपनी चक्की का पाट बनाना चाहते हैं, इसलिए उसे यहाँ लाना है। अगर तुम ऐसा कर दोगे तो हम तुम्हें अपना राजा मान लेंगे।” 

तुरंत ही बलवंत ने अपनी हथेलियाँ को भोंपू की तरह बनाया और अपने मुँह से लगाकर चिल्लाने लगा, “इस घाटी में रहने वालो, सुनो! सुनो! महावीर बलवंत शिला सरकाने वाला है। अपनी जान बचाओ। जो भी राह में आएगा, कुचल कर मर जाएगा। तुरंत भागो और रास्ता छोड़ो।” 

जिसने भी यह घोषणा सुनी सभी अपनी-अपनी जान बचाने के लिए भागने लगे। यहाँ तक कि उसे चुनौती देने वाले दैत्य भी जान बचाने के लिए एक-एक करके भाग निकले। भागते हुए वे चिल्लाते भी जाते थे, “बचो, बचो, महाबली बलवंत से, जिसने मारे एक हज़ार घायल कर डाले पाँच सौ।” 

जब सारे दैत्य मैदान छोड़कर भाग गए तब बलवंत ने अपने घोड़े को पुचकार कर आगे बढ़ाया। नदी पार कर ली और चल पड़ा अपनी आगे की राह। 

बलवंत चला जा रहा था और उसके आगे-आगे चल रही थी उसकी वीरता की गाथा! लुटेरों से बचाने वाला, दैत्यों को हराने वाला, महाबली बलवंत!!! 

कुछ समय चलने के बाद बलवंत एक जंग के मैदान में जा पहुँचा, जहाँ दो सेनाएँ आमने-सामने लगी थीं। एक ओर का राजा अपने सेनापतियों से घिरा तो था पर सभी उदास और परेशान थे। बात यह थी कि यदि राजा इस मुक़ाबले में हार जाएगा तो उसे अपना राज्य तो छोड़ना ही होगा साथ ही यह देश भी छोड़कर जाना पड़ेगा। बलवंत पर निगाह पड़ते ही राजा एक बार फिर उत्साह सेल भर गया। 

“महावीर बलवंत,” वह बोला, “लगता है ईश्वर की मुझ पर बड़ी कृपा है जो आप यहाँ आए हैं। आप मेरी सेना की बागडोर सँभाल लीजिए, जिससे हम जंग जीत जाएँ!”

अब बलवंत को लगा कि सच कह देने का समय आ गया है। वह हाथ जोड़कर बोला, “महाराज मैं वैसा नहीं हूँ, जैसा आपने सुना है। मैं एक ग़रीब मोची हूँ। अगर मैं कुछ जानता हूँ तो वह है जूते . . .” 

“ठीक है, ठीक है,” राजा बात काट कर बोला, “बाकी बातें हम बाद में करेंगे। वक़्त निकाला जा रहा है। तुम हमारे सेनापति हो मेरा घोड़ा, तलवार और ज़िरह-बख़्तर सब तैयार है!” 

बलवंत छटपटाता रहा लेकिन राजा के सैनिकों ने ज़िरह-बख़्तर पहना, हथियारों से लैस कर उसको घोड़े पर जमा कर बैठा ही तो दिया। घोड़ा भी अपने ऊपर सवार को पाकर सरपट दौड़ पड़ा। जब सैनिकों ने अपने अगुवा को दनदनाते हुए दुश्मन की सेवा में घुसते देखा तो वे सब भी जान हथेली पर रखे हुए दुश्मन पर टूट पड़े। देखते-देखते दुश्मन को ख़त्म कर दिया। सभी सैनिक अपनी जीत का जश्न मनाने लगे, परन्तु सेनापति तो कहीं दिखाई भी नहीं पड़ रहा था! सभी उसे ढूँढ़ने के लिए निकल पड़े। बलवंत उन्हें चार कोस दूर जाकर मिला। वह दुश्मन की सेना को चीरता हुआ घोड़ा दौड़ाता चला ही जा रहा था। जब दूसरे घुड़सवार सैनिक उसे पकड़ कर राजा के पास ले आए तो बलवंत ने आदर से राजा के सामने सिर झुकाया और बोला, “महाराज, अगर आप भी मेरे साथ-साथ रहे होते तो हम अब तक कई युद्ध, और कई राज्य जीत चुके होते। ख़ैर, कोई बात नहीं एक जीत भी जीत ही है। अच्छा तो अब मैं चलता हूँ, मुझे आज्ञा दीजिए।” 

“क्या? तुम जानना चाहते हो? मैं तो तुम्हें अपना दामाद बनाना चाहता था!” राजा भारी मन से बोला। 

लेकिन बलवंत रुका नहीं, वह अपनी राह पर फिर दुनिया देखने निकल पड़ा। 

बहुत दिन चलने के बाद वह डकैतनियों के देश में जा पहुँचा। सब जानते हैं, डकैतनियाँ वीरांगना होने के साथ-साथ ख़ूँख़ार भी होती हैं! डकैतनियों के राज्य में मर्दों के आने की मनाही थी। यदि कोई मर्द भूले-भटके आ जाए तो उसे मार कर कुत्तों को खिला दिया जाता था और खाल से ढोल मढ़वा लिए जाते थे। 

डकैतनियों की रानी एक क्रूर स्त्री थी जिसे किसी ने कभी हँसते हुए नहीं देखा था। बेचारा बलवंत उनके राज्य में घुसा ही था कि वह पकड़ लिया गया और ज़ंजीरों में बाँधकर, घसीटते हुए रानी के पास ले जाकर पेश किया गया। दरबार में सब दरबारी डकैतनियाँ अपने घोड़े पर ही सवार थीं। घोड़ों और पसीने के कारण वहाँ चारों ओर मक्खियाँ ही मक्खियाँ भिनक रही थीं। बेचारे घोड़े अपनी पूँछ फटकार रहे थे और डकैतनियाँ हाथों को पंखे की तरह हिलाकर मक्खियाँ उड़ा रही थीं। वहाँ पहुँचने पर बलवंत के ऊपर भी मक्खियाँ भिनकने लगीं। लेकिन हाथ बँधे होने के कारण वह मक्खियों को तो उड़ा ही नहीं सकता था। रानी ने उसे देखकर कड़क कर पूछा, “तुम्हारी मौत आई है क्या? तुमने हमारे राज्य में घुसने की हिम्मत भी कैसे की? क्या तुम्हें यहाँ का क़ानून नहीं मालूम?” 

बलवंत सर झुका कर अपने आप से बुदबुदाया, “मेरे प्यारे सुए, डोरे और नहाई, मेरी तो मति मारी गई थी जो मैंने तुमको छोड़ दिया। इसकी सज़ा मुझे अब मिल रही है।” 

कुछ देर सोच कर रानी फिर बोली, “सुनो जवान, हम तुम्हारे जैसे दिलेर को मारना नहीं चाहते! हम हत्यारिनें नहीं है। अगर तुम सच बोलो तो शायद तुम्हारे प्राण बच जाएँ। क्या सचमुच एक बार में तुमने एक हज़ार मारे और पाँच सौ घायल किए हैं?”

“बिल्कुल महारानी जी, एक ही झटके में!” बलवंत हुलस कर बोला। 

“तुमने ऐसा किया कैसे?” 

“मेरे हाथ खोलिए तब तो बताऊँ।” 

रानी ने बलवंत के हाथ खोल देने का हुक्म दिया! घोड़ों पर सवार सभी डकैतनियाँ उसे एकटक देख रही थीं। 
घोड़ों की पूछों की फटकार, हाथों के हिलने की सरसराहट और मक्खियों की भिनभिनाहट को छोड़कर कोई और आवाज़ कानों में नहीं पड़ रही थी। 

“अब बताता हूँ ऐसा मैंने कैसे किया!” कहते हुए बलवंत ने अपने हाथ का पंजा अपने ऊपर भिनकती मक्खियों के बीच ताक़त लगाकर लहराया और ज़मीन की ओर मक्खियों को पटक दिया, “अब इन सबको गिन लो!” वह बोला। 

“हे राम ये तो सारी मक्खियाँ हैं!” सारी डकैतनियाँ ठठाकर हंँस पड़ीं, पर सबसे ज़ोरदार हंँसी थी रानी की, “हाss हाss हाss होss हो ssहोss राम बचाए हssह ssमैं ज़िन्दगी में कभी इतना नहीं हंँसी थी! बलवंत, तुम ऐसे पहले आदमी हो जिसने मुझे हंँसाया है! और मक्खियों को मार पाने की तुम्हारी ख़ूबी तो हमारे बड़े काम की है! तुम यहीं रह जाओ और मुझे ब्याह कर लो!” 

अंधा क्या चाहे, दो आँखें! 

बलवंत तुरंत राज़ी हो गया। बड़े उत्सव और गाजे-बाजे के साथ दोनों का ब्याह हो गया और बलवंत मोची बन गया डकैतनियों का राजा!!! 

“अपने ख़ज़ाने की कहानी
मैंने तुम्हें सुनाई, 
अब तुम भी कुछ सुनाओ, 
तुम्हारी बारी आई॥”

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