दीपावली की सफ़ाई
सरोजिनी पाण्डेय
कार्तिक मास का कृष्ण पक्ष,
करवा चौथ, अहोई अष्टमी,
दीपावली आने की सुगबुगाहट
घर की सफ़ाई करने वाली सेवाओं के विज्ञापन
सहेलियों की गोष्ठी में बताई जाने वाली
सफ़ाई की थकावट,
यह सब मिलकर मुझे भी उकसाती हैं,
सफ़ाई शुरू न करने पर मुझे लानत-लमानत पहुँचाती हैं,
मैं अपनी वय की वरिष्ठता का राग सुनाती हूँ
सफ़ाई शुरू न करने के बहाने गिनाती हूँ
मन में तर्क-वितर्क भी चलता है
हम ‘दो प्राणियों’ का घर तो सदा ही स्वच्छ रहता है!
हम तो अलमारी के नीचे
बॉक्स के पीछे चीज़ें नहीं गिराते?
दीवारों पर कभी पेंसिल, कभी रंग से
फूल-पत्ती, कार्टून नहीं बनाते!
खेलकूद के सामान, किताबें, छोटे हो गए कपड़े
इधर-उधर ठुंसे नज़र नहीं आते,
फिर सफ़ाई करूँ ना करूँ
क्या फ़र्क़ पड़ता है?
रहने लायक़ मेरा घर सदा साफ़ ही रहता है,
लेकिन दशकों की आदत से बच नहीं पाती हूँ
और कुछ सोच समझ कर
अलमारी के भीतर की सफ़ाई का बीड़ा उठती हूँ,
चलो, इस बहाने घर कुछ हल्का हो जाएगा
साथ ही दिवाली का ‘शगुन’ भी हो जाएगा!
अलमारी के एक खाने को पूरा घेरे
एल्बमों की ढेरी दिख जाती है,
जिसे निकालने-उठाने में
मेरी कमर टेढ़ी हो जाती है
थैली में बंद एल्बमों से
जब हम चित्र निकालते हैं
हमसे दो पीढ़ी पीछे और एक पीढ़ी आगे के चित्र,
पूरे पलंग पर फैल जाते हैं,
कहीं मेरे पति के दादाजी अचकन-छड़ी से सजे नज़र आते हैं
कहीं हमारे बाल-गोपाल
‘दधि-ओदन मुख पर लिपटाए’ दिख जाते हैं,
इन श्वेत-श्याम, रंगीन धुँधलाए
चित्रों के माध्यम से
मैं मानो ‘समय-सरिता’ की
‘विपरीत दिशा’ में बहने लग जाती हूँ
अंजलि में अपनी गृहस्थी के ‘स्रोत’ के समीप का
जल पी कर तृप्त और अतृप्त
साथ ही हो जाती हूँ
बीत गए समय को याद कर आँखें नम
और होंठ मुस्कुराते हैं,
ज़िन्दगी कैसे मानो ‘दो पल’ ही में बीत गई
इसपर ‘हम दोनों’ अचरज में डूब जाते हैं!
एल्बम के चित्र देखकर अपनों की याद बेतरह सताती है,
फिर हमसे दीपावली की सफ़ाई कहाँ हो पाती है?
त्योहार की सफ़ाई अगले दिन के लिए टल जाती है।
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