तट और तरंगें
सरोजिनी पाण्डेय
आदिकाल से ही सागर की पुत्रियाँ
लहरें, हिलोरें, तरंगें और उर्मियाँ
अपने प्रतिवेशी तट के प्रेम में
आकंठ डूबी रहती हैं,
वे तट के निकट कई रूप
बदल-बदल आती हैं
और हर रूप में ये अपना
सनातन तट-प्रेम ही दर्शाती हैं,
कभी-ये सकुचायी,
कमसिन किशोरियों-सी
तट को तनिक-सा छू
सिहर कर पीछे हट जाती हैं,
तट का चुंबकीय आकर्षण
इन्हें बरबस खींच लाता है,
तट का गात भी तो सदा
प्यासा रह जाता है!
फिर-फिर, लौट-लौट
ये लजाती हुई आती हैं,
प्यासे, ललचाते, रेतीले तट को
स्नेह से सिंचित कर
कभी सीप-घोंघों की
निशानियाँ दे जाती हैं,
सिक्तामय, खुरदुरा तट
स्निग्ध नहीं हो पाता
थोड़े से अंतराल से वह फिर
सूख जाता है,
कोमल तरंगे भी हार नहीं मानतीं
हर पल दो पल में तटों को
सींच-सींच जाती हैं।
पथरीले, सुदृढ़ सिंधु-तट पर
जोशीली तरंगें उद्दाम हो जाती हैं,
कठोर, शिलावत् छाती पर उसकी
सिर अपना पटक-पटक,
यौवन से उफनती लहरें,
शिलाओं को अपने प्रेम से
पिघलाना चाहती हैं,
शिलाएँ भी तो यौवन के मद में
चूर-सी होती हैं,
लहरों के थपेड़ों से वे कहाँ झुकती है़!
बार-बार लहरें उफन-उफन आती हैं
देने को दंश उन हठीली शिलाओं को
केकड़े और अष्टपाद उनमें फँसा जाती हैं,
सृष्टि के आरंभ से ही चल रहा है यह द्वंद्व
प्रलय तक ही हो पाएगा संभवत इसका अंत!
कहीं-कहीं किनारा
कोमल, स्नेहार्द्र हो जाता है,
सागर की बेटी को
अंक में अपने समेट,
गले लगा इनको,
निहाल हो जाता है
तरंगे यहाँ पर हरियाली बन जाती हैं
सागर के ऐसे किनारों को
ये उर्मियाँ
अपने वात्सल्य से
हरित और उर्वर बनाती हैं,
सागर की बेटियाँ अनेक रूप धारती है
हर रूप में वे प्रेम के वशीभूत
कूलों, किनारों, तटों तक ही तो आती हैं!!
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