वह सातवीं ऋतु
सरोजिनी पाण्डेयआधिकारिक तौर पर भारतवर्ष में छह ऋतुएँ होती हैं, परंतु एक सातवीं ऋतु, जिसका वेद, पुराणों, साहित्य, कथाओं या सरकारी दस्तावेज़ों में नाम नहीं मिलता, मैं उसे 'आम ऋतु' कहती हूँ। मैं इसे कहती तो 'आम ऋतु' हूँ, पर होती बहुत ख़ास है। जैसा कि इस नश्वर संसार की हर वस्तु के साथ होता है, इस ऋतु की ख़ासियत भी मेरे लिए अब ख़ासी कम हो गई है, पर एक ज़माना था, जब यह मेरी अतिप्रिय ऋतु थी।
ख़ैर! इस ऋतु का आरंभ बसंत पंचमी से होकर रक्षाबंधन पर अंत होता था। बसंत पंचमी को पड़ोस के बाग़ का माली, एक नीलकंठ पक्षी और आम का बौर लाता, हम सब उसका दर्शन करते और माँ उसे कुछ पैसे और मिठाई देकर विदा करतीं। इसी दिन से मेरी प्रतीक्षा आरंभ हो जाती टिकोरों (अम्बिया, कैरी) का स्वाद चखने की।
अप्रैल का महीना आने तक पेड़ से कंचे के आकार के टिकोरे गिरने लगते और इनको छीलने के लिए पिताजी के हजामत के सामान से पुराने ब्लेड चुराए या माँगे जाते। यदि बिना छीले ये फल खाए जाएँ तो कड़वे लगते थे और ब्लेड से इन्हें छीलने में उँगलियां भी छिल जाती थीं। कभी यह छिलावट इतनी गहरी हो जाती कि खाना खाते समय दाल-सब्ज़ी लगने से इनमें दर्द होने लगता था। तब माँ को क्रोध आता और वे हमें धमकातीं कि 'टिकोरे ज़्यादा खाओगी तो नकसीर फूटेगी '। नाक से ख़ून बहने की बात सोच कर भय तो लगता, परंतु इतना भी आतंकित न करता कि टिकोरे खाना छोड़ दूँ। कभी-कभी तो हमउम्र सखियों के साथ 'टिकोरा पार्टी' हो जाती थी। घर से लाए गए नमक-मिर्च के साथ, कॉपी का पन्ना फाड़ कर बनी प्लेटों में, ब्लेड से छिले आम का जो स्वाद होता था, उसके आगे आज के पाँच सितारा होटल के स्टार्टर का स्वाद बेकार है।
टिकोरे जब थोड़ा बड़े हो जाते तो घर में रोज़ आम-पुदीने की चटनी बनती, जिसे हर भोजन के साथ खाया जाता। मेरे पिताजी को आम की चटनी सत्तू के साथ विशेष प्रिय थी।
इसी मौसम में माँ साल भर के लिए कच्चे आम सुखाकर अमचूर बनातीं। वर्ष का यह समय आँधियों का भी होता है, तो आँधी के बाद तो हमें थैले देकर पास के बग़ीचों में दौड़ा दिया जाता, गिरे हुए आमों को बीन कर लाने के लिए। इन नामों से चटनी, अमचूर, मुरब्बा और न जाने क्या-क्या बनता!
तीसरे पहर की गर्मी में आम-पन्ना तो इतना स्वादिष्ट लगता कि कई गिलास पी कर भी तृप्ति न होती।
और जब पके आम आने लगते तो कहना ही क्या! मेरी 'आमऋतु' इस समय अपने पूरे यौवन पर होती। भोजन के साथ आम, भोजन के बाद आम, लंगड़ा, दशहरी, सफेदा, फ़ज़ली, मालदा न जाने कितने, आम और सब के अलग-अलग स्वाद, अलग रूप रंग! सबको लिखने बैठो तो ग्रंथ बन जाए।
आम कभी छील काटकर, ख़ूबसूरती से सजाकर, खाए जाते, कभी चूस कर, तो कभी यूँ ही दाँतों से छिलके उतारकर गपागप। कभी पूरी, पराँठे के साथ रस निकालकर, कभी खीर, मलाई,या कुल्फ़ी में डालकर। आम तो बस आम! फलों का राजा, 'आम- ऋतु' का हीरो!
बरसात का भरपूर मौसम आने तक 'आम ऋतु' का अंत भी आ पहुँचता। इसका पता हमें घूरे पर उगे आम के छोटे-छोटे पौधों से लगता, जहाँ आम की गुठलियाँ फेंकी गई थीं। आजकल बड़े शहर में रहने वाले बच्चों ने तो ये नन्हे लाल पत्तियों वाले पौधे देखे भी न होंगे। हम अपने बचपन में इन पौधों की डंडी तोड़, गुठली का सख़्त छिलका हटाकर, बीज को ईंट पर घिस कर पिपिहरी बनाते। बड़ी सावधानी का काम होता था 'पपोले की पिपिहरी' बनाना। जहाँ कोयल की कूक से हमारी 'आम ऋतु' का आरंभ होता था, वहीं पपोले की पिपिहरी इसके उपसंहार की घोषणा करती थी।
आजकल महानगरी सभ्यता में 'आम ऋतु' का महत्व लुप्त हो चुका है। अन्य फलों के साथ दुकानों और रेहड़ियों पर आम दिखाई देते हैं, परंतु वह पूरे मौसम चलने वाला आममय जीवन अब हमें नसीब नहीं। मेरी स्मृतियों में यह सदैव एक ऋतु की तरह प्रतिष्ठित रहेगी, "सातवीं-ऋतु"!
1 टिप्पणियाँ
-
वापस बचपन की भूली बिसरी गलियों में जाना हो गया। हमारे स्कूल में
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- अनूदित लोक कथा
-
- तेरह लुटेरे
- अधड़ा
- अनोखा हरा पाखी
- अभागी रानी का बदला
- अमरबेल के फूल
- अमरलोक
- ओछा राजा
- कप्तान और सेनाध्यक्ष
- काठ की कुसुम कुमारी
- कुबड़ा मोची टेबैगनीनो
- कुबड़ी टेढ़ी लंगड़ी
- केकड़ा राजकुमार
- क्वां क्वां को! पीठ से चिपको
- गंध-बूटी
- गिरिकोकोला
- गुनी गिटकू और चंट-चुड़ैल
- गुमशुदा ताज
- गोपाल गड़रिया
- ग्यारह बैल एक मेमना
- ग्वालिन-राजकुमारी
- चतुर और चालाक
- चतुर चंपाकली
- चतुर फुरगुद्दी
- चतुर राजकुमारी
- चलनी में पानी
- छुटकी का भाग्य
- जग में सबसे बड़ा रुपैया
- ज़िद के आगे भगवान भी हारे
- जादू की अँगूठी
- जूँ की खाल
- जैतून
- जो पहले ग़ुस्साया उसने अपना दाँव गँवाया
- तीन कुँवारियाँ
- तीन छतों वाला जहाज़
- तीन महल
- दर्दीली बाँसुरी
- दूध सी चिट्टी-लहू सी लाल
- दैत्य का बाल
- दो कुबड़े
- नाशपाती वाली लड़की
- निडर ननकू
- नेक दिल
- पंडुक सुन्दरी
- परम सुंदरी—रूपिता
- पाँसों का खिलाड़ी
- पिद्दी की करामात
- प्यारा हरियल
- प्रेत का पायजामा
- फनगन की ज्योतिष विद्या
- बहिश्त के अंगूर
- भाग्य चक्र
- भोले की तक़दीर
- महाबली बलवंत
- मूर्ख मैकू
- मूस और घूस
- मेंढकी दुलहनिया
- मोरों का राजा
- मौन व्रत
- राजकुमार-नीलकंठ
- राजा और गौरैया
- रुपहली नाक
- लम्बी दुम वाला चूहा
- लालच अंजीर का
- लालच बतरस का
- लालची लल्ली
- लूला डाकू
- वराह कुमार
- विनीता और दैत्य
- शाप मुक्ति
- शापित
- संत की सलाह
- सात सिर वाला राक्षस
- सुनहरी गेंद
- सुप्त सम्राज्ञी
- सूर्य कुमारी
- सेवक सत्यदेव
- सेवार का सेहरा
- स्वर्ग की सैर
- स्वर्णनगरी
- ज़मींदार की दाढ़ी
- ज़िद्दी घरवाली और जानवरों की बोली
- कविता
-
- अँजुरी का सूरज
- अटल आकाश
- अमर प्यास –मर्त्य-मानव
- एक जादुई शै
- एक मरणासन्न पादप की पीर
- एक सँकरा पुल
- करोना काल का साइड इफ़ेक्ट
- कहानी और मैं
- काव्य धारा
- क्या होता?
- गुज़रते पल-छिन
- जीवन की बाधाएँ
- झीलें—दो बिम्ब
- तट और तरंगें
- दरवाज़े पर लगी फूल की बेल
- दशहरे का मेला
- दीपावली की सफ़ाई
- पंचवटी के वन में हेमंत
- पशुता और मनुष्यता
- पारिजात की प्रतीक्षा
- पुरुष से प्रश्न
- बेला के फूल
- भाषा और भाव
- भोर . . .
- भोर का चाँद
- भ्रमर और गुलाब का पौधा
- मंद का आनन्द
- माँ की इतरदानी
- मेरी दृष्टि—सिलिकॉन घाटी
- मेरी माँ
- मेरी माँ की होली
- मेरी रचनात्मकता
- मेरे शब्द और मैं
- मैं धरा दारुका वन की
- मैं नारी हूँ
- ये तिरंगे मधुमालती के फूल
- ये मेरी चूड़ियाँ
- ये वन
- राधा की प्रार्थना
- वन में वास करत रघुराई
- वर्षा ऋतु में विरहिणी राधा
- विदाई की बेला
- व्हाट्सएप?
- शरद पूर्णिमा तब और अब
- श्री राम का गंगा दर्शन
- सदाबहार के फूल
- सागर के तट पर
- सावधान-एक मिलन
- सावन में शिव भक्तों को समर्पित
- सूरज का नेह
- सूरज की चिंता
- सूरज—तब और अब
- सांस्कृतिक कथा
- आप-बीती
- सांस्कृतिक आलेख
- यात्रा-संस्मरण
- ललित निबन्ध
- काम की बात
- यात्रा वृत्तांत
- स्मृति लेख
- लोक कथा
- लघुकथा
- कविता-ताँका
- सामाजिक आलेख
- ऐतिहासिक
- विडियो
-
- ऑडियो
-