वह सातवीं ऋतु

15-07-2021

वह सातवीं ऋतु

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 185, जुलाई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

आधिकारिक तौर पर भारतवर्ष में छह ऋतुएँ होती हैं, परंतु एक सातवीं ऋतु, जिसका वेद, पुराणों, साहित्य, कथाओं या सरकारी दस्तावेज़ों में नाम नहीं मिलता, मैं उसे 'आम ऋतु' कहती हूँ। मैं इसे कहती तो 'आम ऋतु' हूँ, पर होती बहुत ख़ास है। जैसा कि इस नश्वर संसार की हर वस्तु के साथ होता है, इस ऋतु की ख़ासियत भी मेरे लिए अब ख़ासी कम हो गई है, पर एक ज़माना था, जब यह मेरी अतिप्रिय ऋतु थी।

ख़ैर! इस ऋतु का आरंभ बसंत पंचमी से होकर रक्षाबंधन पर अंत होता था। बसंत पंचमी को पड़ोस के बाग़ का माली, एक नीलकंठ पक्षी और आम का बौर लाता, हम सब उसका दर्शन करते और माँ उसे कुछ पैसे और मिठाई देकर विदा करतीं। इसी दिन से मेरी प्रतीक्षा आरंभ हो जाती टिकोरों (अम्बिया, कैरी) का स्वाद चखने की।

अप्रैल का महीना आने तक पेड़ से कंचे के आकार के टिकोरे गिरने लगते और इनको छीलने के लिए पिताजी के हजामत के सामान से पुराने ब्लेड चुराए या माँगे जाते। यदि बिना छीले ये फल खाए जाएँ तो कड़वे लगते थे और ब्लेड से इन्हें छीलने में उँगलियां भी छिल जाती थीं। कभी यह छिलावट इतनी गहरी हो जाती कि खाना खाते समय दाल-सब्ज़ी लगने से इनमें दर्द होने लगता था। तब माँ को क्रोध आता और वे हमें धमकातीं कि 'टिकोरे ज़्यादा खाओगी तो नकसीर फूटेगी '। नाक से ख़ून बहने की बात सोच कर भय तो लगता, परंतु इतना भी आतंकित न करता कि टिकोरे खाना छोड़ दूँ। कभी-कभी तो हमउम्र सखियों के साथ 'टिकोरा पार्टी' हो जाती थी। घर से लाए गए नमक-मिर्च के साथ, कॉपी का पन्ना फाड़ कर बनी प्लेटों में, ब्लेड से छिले आम का जो स्वाद होता था, उसके आगे आज के पाँच सितारा होटल के स्टार्टर का स्वाद बेकार है।

टिकोरे जब थोड़ा बड़े हो जाते तो घर में रोज़ आम-पुदीने की चटनी बनती, जिसे हर भोजन के साथ खाया जाता। मेरे पिताजी को आम की चटनी सत्तू के साथ विशेष प्रिय थी।

इसी मौसम में माँ साल भर के लिए कच्चे आम सुखाकर अमचूर बनातीं। वर्ष का यह समय आँधियों का भी होता है, तो आँधी के बाद तो हमें थैले देकर पास के बग़ीचों में दौड़ा दिया जाता, गिरे हुए आमों को बीन कर लाने के लिए। इन नामों से चटनी, अमचूर, मुरब्बा और न जाने क्या-क्या बनता! 

तीसरे पहर की गर्मी में आम-पन्ना तो इतना स्वादिष्ट लगता कि कई गिलास पी कर भी तृप्ति न होती।

और जब पके आम आने लगते तो कहना ही क्या! मेरी 'आमऋतु' इस समय अपने पूरे यौवन पर होती। भोजन के साथ आम, भोजन के बाद आम, लंगड़ा, दशहरी, सफेदा, फ़ज़ली, मालदा न जाने कितने, आम और सब के अलग-अलग स्वाद, अलग रूप रंग! सबको लिखने बैठो तो ग्रंथ बन जाए।

आम कभी छील काटकर, ख़ूबसूरती से सजाकर, खाए जाते, कभी चूस कर, तो कभी यूँ ही दाँतों से छिलके उतारकर गपागप। कभी पूरी, पराँठे के साथ रस निकालकर, कभी खीर, मलाई,या कुल्फ़ी में डालकर। आम तो बस आम! फलों का राजा, 'आम- ऋतु' का हीरो!

बरसात का भरपूर मौसम आने तक 'आम ऋतु' का अंत भी आ पहुँचता। इसका पता हमें घूरे पर उगे आम के छोटे-छोटे पौधों से लगता, जहाँ आम की गुठलियाँ फेंकी गई थीं। आजकल बड़े शहर में रहने वाले बच्चों ने तो ये नन्हे लाल पत्तियों वाले पौधे देखे भी न होंगे। हम अपने बचपन में इन पौधों की डंडी तोड़, गुठली का सख़्त छिलका हटाकर, बीज को ईंट पर घिस कर पिपिहरी बनाते। बड़ी सावधानी का काम होता था 'पपोले की पिपिहरी' बनाना। जहाँ कोयल की कूक से हमारी 'आम ऋतु' का आरंभ होता था, वहीं पपोले की पिपिहरी इसके उपसंहार की घोषणा करती थी।  

आजकल महानगरी सभ्यता में 'आम ऋतु' का महत्व लुप्त हो चुका है। अन्य फलों के साथ दुकानों और रेहड़ियों पर आम दिखाई देते हैं, परंतु वह पूरे मौसम चलने वाला आममय जीवन अब हमें नसीब नहीं। मेरी स्मृतियों में यह सदैव एक ऋतु की तरह प्रतिष्ठित रहेगी, "सातवीं-ऋतु"!

1 टिप्पणियाँ

  • 12 Jul, 2021 02:37 PM

    वापस बचपन की भूली बिसरी गलियों में जाना हो गया। हमारे स्कूल में

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