बेला

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 280, जुलाई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

मूल कहानी: एरबाबियांका; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो; अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (वार्मवुड); 
पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स; हिन्दी में अनुवाद: ‘बेला’-सरोजिनी पाण्डेय

 

जैसा कि बहुत सारी कहानियों में होता है, कहानी शुरू होती है—एक था राजा एक थी रानी से, आज की कहानी भी कुछ ऐसे ही शुरू कर रही हूँ। अब इस रानी की जो भी संतान होती वह बेटी होती थी, एक के बाद एक कई बेटियाँ हो गईं, लेकिन राजा को तो एक बेटा चाहिए था, जो उसका राज्य सँभाले। इस समय रानी फिर गर्भवती थी, शिशु को जन्म देने वाली थी। राजा का धैर्य अब तक ख़त्म हो गया था। उन्होंने रानी से कहा कि यदि इस बार भी बेटी हुई तो वह उसे मरवा देगा! 

और! जैसा कि डर था, इस बार भी रानी ने बेटी को ही जन्म दिया, लेकिन रानी को राजा की बात याद थी उसने शिशु के जन्म लेते ही उसे दाई को देकर कहा, “इस बच्ची को यहाँ से हटा ले जाओ और जो भी तुम्हें ठीक लगे इसके साथ करो। यदि यहाँ रही तो राजा इसको मरवा देंगे।” 

दाई ने सोचा, अब मैं इस बेटी का क्या करूँ? अगर अपने घर में रखूँगी तो राजा को कभी न कभी तो पता चल ही जाएगा। वह शिशु को लेकर जंगल में चली गई और वहाँ एक झोपड़ी से कुछ दूर बेला के पौधों का घना कुंज देखकर, उसके अंदर कपड़ों में लिपटे नवजात को लिटा कर महल वापस आ गई। जंगल में यह झाड़ी एक साधु की कुटिया के पास थी। कुटिया के पास की एक गुफा में एक हिरनी ने बच्चे दिए थे। वह रोज़ अपने छौनों को दूध पिलाती और फिर जंगल में जाकर चरती और शाम को फिर आकर बच्चों को दूध पिलाती। 

एक दिन जब वह जंगल से छौनों के पास पहुँची तो उसके थनों में दूध नहीं था। हिरण के शावक भूखे थे। वे दूध न पाकर। शोर मचाने लगे। अगले दिन भी ऐसा ही हुआ, शाम को हरिन शावक भूखे ही रह गएः जब साधु ने कई दिन तक यह शोर सुना तो वह देखने आए कि आख़िर क्या बात है? उन्होंने देखा कि छौने दुबले हो गए हैं। अगले दिन उन्होंने हिरनी का पीछा किया और तब उन्होंने देखा कि वह बेला की झड़ी के पास पड़े हुए एक बच्ची को दूध पिला देती है। संन्यासी ने बच्ची को उठा लिया और अपनी झोपड़ी में ले आए उन्होंने हिरनी को समझाया, “तुम इस बच्ची को मेरे सामने ही अपना आधा दूध पिलाया करो और बचा हुआ दूध अपने बच्चों को भी पिलाओ।” धीरे-धीरे संन्यासी ने बच्ची का दूध छुड़ाकर उसे दूसरे भोजन पर पालना शुरू कर दिया। राजा-रानी की बेटी दिन दुगुनी रात चौगुनी बड़ी होने लगी। वह बेला फूल की झाड़ियाँ में मिली थी इसलिए संन्यासी ने उसका नाम ही रख दिया ‘बेला’ बच्ची साधु को अपनी बेटी के समान प्यारी हो गई थी। बड़ी होकर वह भी संन्यासी का ध्यान रखने लगी और घर के सारे काम करने लगी। 

. . . एक दिन उधर एक युवा राजा शिकार खेलने आया, कुछ समय बाद बिजली चमकने लगी, तेज़ हवाएँ बहने लगीं और वर्षा भी शुरू हो गई। आसपास सिर छुपाने की जगह कोई नहीं थी। तब राजा को यह संन्यासी की झोपड़ी दिखाई दी। बारिश में भीगता हुआ राजा जब झोपड़ी के पास आया तब संन्यासी ने राजा को देखकर आवाज़ लगाई, “बेला! बेटी बेला, एक चटाई ले आओ, चिराग़ जला दो और राजा के लिए कुछ खाने पीने का प्रबंध करो।”

“बेला? भला यह कैसा नाम है?” राजा ने पूछा। 

संन्यासी ने बताया कि यह लड़की उन्हें बेला की झाड़ी के अंदर मिली थी इसलिए यही नाम रख दिया। राजा ने जब इस लड़की को देखा तो कहा, “बाबाजी, यदि आप कहें तो मैं बेला को अपने साथ ले जाऊँ? आप बूढ़े हैं आख़िर भला इसका ख़्याल कब तक रख पाएँगे। फिर मैं महल में ले जाकर इसको पढ़ाऊँगा लिखाऊँगा। हो सकता है कि मैं इससे शादी करके इसे अपनी रानी भी बना लूँ।” 

संन्यासी ने कहा “महाराज, यह बिटिया मुझे बहुत प्यारी है। लेकिन आपके साथ जाने में इसका भला है इसलिए मैं अपने को सँभाल लूँगा। सच बात यही है कि मैं बूढ़ा संन्यासी भला इसके लिए महलों जैसी सुख सुविधा कहाँ से ला सकता हूँ।”

राजा संन्यासी से विदा लेकर बेला को घोड़े पर, अपने पीछे बिठा महल में ले आए। धीरे-धीरे बेला के गुण और व्यवहार को देखकर राजा को उससे प्रेम हो गया। उन्होंने बेला से विवाह कर लिया। 

अब राजा को तो बहुत से काम रहते हैं, पूरे राज्य की देखभाल करनी पड़ती है। विवाह को कुछ ही दिन हुए थे कि उन्हें राजाओं और राजकुमारों के लिए आयोजित एक सभा में जाना पड़ा। उन्होंने बेला से कहा, “बेला, तुम्हें छोड़कर जाते हुए मुझे बहुत दुख हो रहा है। मैं तो तुम्हें एक पल के लिए भी नहीं छोड़ना चाहता परन्तु क्या करूँ राज्य का काम भी तो देखना होता है!” भारी मन से राजा ने बेला से विदा ली। 

राजकुमारों की सभा में एक शाम को जब सब मिल कर बैठे तो अपनी अपनी पत्नियों की प्रशंसा करने लगे। बेला का पति तो अपनी पत्नी के प्रेम में गले तक डूबा था, उसने सबसे बढ़-चढ़कर अपनी पत्नी की प्रशंसा की, “तुम लोग अपनी बीवियों का बखान कर लो लेकिन जितनी ख़ूबसूरत, जितनी समझदार और पतिव्रता मेरी पत्नी है उतनी किसी की हो ही नहीं सकती।”

यह बात एक दूसरे राजा को हज़म नहीं हुई उसने कहा, “महाराज आप चाहे जितनी प्रशंसा करें लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आपकी अनुपस्थिति में मैं आपकी रानी के साथ दोस्ती करने में सफल हो जाऊँगा।”

“असंभव, ऐसा कभी नहीं हो सकता!” बेला के पति राजा ने विश्वास से कहा। 

दूसरा राजा बोला, “क्या आप शर्त लगाएँगे?” 

बेला के पति ने भी उत्साहित होकर कहा, “बिल्कुल, मैं भी इसके लिए तैयार हूँँ।”

दोनों के बीच में शर्त लग गई, बीच में एक महीने का समय रखा गया। अब शर्त लगाने वाला राजा बेला के पति की राजधानी पलामू पर्वत की तलहटी में बसे पलामू शहर की ओर चला। 

वहाँ पहुँचकर वह महल के आसपास चक्कर काटता रहता। कई दिन बीत गए लेकिन उसे बेला की सूरत तो क्या एक झलक भी नहीं मिली, उसके महल की सभी खिड़कियाँ हमेशा बंद जो रहती थीं। 

एक दिन जब वह महल के पास मुँह लटकाए इधर-उधर घूम रहा था, तभी एक बुढ़िया भिखमंगी उसके पास आई। उसे झिड़कते हुए इस राजा ने कहा, “मुझे परेशान मत करो!। भागो यहाँ से।”

बुढ़िया भी ज़िद्दी थी, उसने पूछ लिया, “ऐसे क्यों चीख रहे हो? क्या परेशानी है तुमको? इतने उदास क्यों हो?” 

“तुम यहाँ से भागो।”

बढ़िया भी अड़ गई, “मुझे बता भी दो, हो सकता है मैं तुम्हारी कोई मदद कर पाऊँ?” इस पर राजा ने अपनी शर्त के बारे में उस को बता दिया और उससे और कुछ नहीं तो महल के अंदर जाकर बेला की एक झलक पाने का उपाय पूछा। 

बुढ़िया ने कहा, “तुम इस सब की चिंता अब छोड़ दो। मैं तुम्हारे लिए कुछ करती हूँ।”

अगले दिन बुढ़िया ने एक टोकरी में तरह-तरह के फल और मिठाइयाँ रखे और महल में बेला से मिलने गई। इस उपहार के साथ उसे जल्दी ही महल में जाने की अनुमति मिल गई। जब वह बेला के साथ अकेली हुई तो उसको गले से लगाकर बोली, “बेटी मैं तुम्हारी बहुत दूर की रिश्तेदार हूँ, तुमसे मिलकर आज मैं बहुत दिनों के बाद इतनी सुखी हुई हूँँ। यह थोड़ी सी चीज़ें तुम्हारे लिए लाई हूँँ।”

बेला तो साधु के घर बड़ी हुई थी उसे अपने संग-संबंधियों के बारे में कुछ नहीं मालूम था, जो उसे बुड्ढी स्त्री ने उसे बताया वह उसे सच मान बैठी और महल के सभी कर्मचारियों को उसने यही बताया कि यह वृद्ध स्त्री उसकी रिश्तेदार है और इसको महल में आने जाने से कोई कभी ना रोके। 

एक दिन जब बेला गहरी नींद में सो रही थी, तब बुद्धि भिखारिन उस के कमरे में गई। उसने सोई हुई बेला की पीठ को उघाड़ कर देखा और वहाँ उसे एक छोटा सा मस्सा दिखाई दिया। मस्से में छोटे-छोटे बाल उगे हुए थे। बुढ़िया ने उन काले कड़े मस्से के ऊपर उगे बालों को काट लिया और सँभाल कर अपने पास एक डिबिया में रख लिया। यह डिबिया ले जाकर उस राजा को दे दी जो बेला से दोस्ती कर लेने का दम भरता हुआ पलामू आया था। साथ ही बेला के रूप-रंग क़द काठी का सटीक वर्णन भी राजा को सुनाया‌। सब कुछ सुनकर और इन बालों को पाकर वह राजा तो ख़ुशी से फूला न समाया, बूढ़ी भिखारिन को उसने ख़ूब धन दिया। लौट कर वह बेला के पति के पास पहुँचा और बोला, “श्रीमान अब जो कुछ मैं आपको बताऊँगा उसे सुनकर आपको दुख अवश्य होगा।” फिर उसने बेला के नख-शिख का विस्तार से वर्णन उसके पति के सामने कर दिया। यह सब सुनकर बेला के पति ने कहा, “इसमें क्या बड़ी बात है यह सब तो तुम किसी से सुनकर भी बता सकते हो।”

“अगर आपको यह सब झूठ लगता है तो सुनिए, क्या यह सच नहीं है कि आपकी पत्नी के बाएँ कंधे पर एक मस्सा है?” 

अब तो बेला के पति का चेहरा पीला पड़ गया, “हाँ है।”

इसके बाद उस दुष्ट राजा ने एक छोटी सी डिबिया बेला के पति को दी और कहा, “महाराज मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा है लेकिन इस डिबिया में वह प्रमाण है जिससे यह पता लग जाएगा कि मैंने शर्त जीत ली है।”

बेला के पति राजा ने काँपते हाथों से डिबिया खोली और उसके अंदर रानी की पीठ पर उगे मस्से के बाल थे। उसने अपना सिर लज्जा से झुका लिया। 

एक पल की भी देरी किए बिना राजा पलामू लौट आए। 

सारे महल में ख़ुशियाँ छा गईं। लंबे समय के बाद राजा जी घर आए थे। परन्तु राजा न तो बेला से मिले, न उसे गले से लगा।

उन्होंने घोड़े जोत कर गाड़ी तैयार करने की आज्ञा दी। बेला को गाड़ी में बैठने को कहा और स्वयं घोड़े की रास पकड़ कर गाड़ी चला दी। बेला बेचारी घबराई हुई सब कुछ देख रही थी। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, ना मुँह से बोल फूट रहे थे। जब वे पलामू पहाड़ की तलहटी में पहुँचे, तब राजा ने घोड़े की रास खींच ली। गाड़ी रोकी और बेला से उतरने को कहा। रानी उतर गई। राजा ने बिना उतरे ही कोड़ा उठाया, कसकर एक कोड़ा बेला को लगाया और उसे धकेल कर गिरा दिया। फिर गाड़ी मोड़ी और महल की ओर लौट गया। कोड़े की मार से घायल बेला तड़पती-कराहती वहीं पड़ी रही। 

उसी दिन एक वैद्य जी अपनी पत्नी के साथ पलामू पर्वत पर बने हुए एक मंदिर में बेटा होने की अपनी मनौती पूरी होने पर मंदिर में भगवान के दर्शन करने और भेंट चढ़ाने जा रहे थे। उनके साथ उनका एक मूर्ख सेवक भी था। जब वे पलामू पर्वत की तलहटी में पहुँचे तब उन्हें कराहने की आवाज़ सुनाई दी। 

“यह कौन हो सकता है?” वैद्य जी ने सोचा। कराह की दिशा में जाने पर उन लोगों ने देखा कि एक युवती घायल होकर ज़मीन पर पड़ी है, वह अधमरी-सी हो रही थी। वैद्य जी ने तुरंत अपना बक्सा खोल उसकी मरहम पट्टी की और पत्नी से बोले, “आज हम मंदिर जाना रोक देते हैं! किसी दूसरे दिन चलेंगे। इस स्त्री को हम घर ले चलेंगे इसकी जान बचानी पूजा करने से ज़्यादा ज़रूरी है।” वह घर लौट गए। युवती को अपने घर रखा और पति-पत्नी ने उसकी सेवा ख़ूब सेवा की। स्त्री धीरे-धीरे ठीक हो गई लेकिन उसने अपने बारे में कभी कुछ नहीं बताया। वैद्यजी और उनकी पत्नी कुछ भी पूछते तो वह अपना मुँह कभी न खोलती थी। इतनी गुणवान लड़की को उन्होंने अपने घर में ही पनाह दे दी। कुछ समय बाद वैद्य जी को अपनी मनौती की याद आई उन्होंने पत्नी से कहा, “छोटे बेटे को बेला के पास छोड़कर हम दोनों ही मंदिर चलेंगे। यही ठीक रहेगा।” 

अगले दिन वैद्य जी और उनकी पत्नी अपने बेटे को बेला की निगरानी में छोड़कर सेवक को साथ ले मंदिर के लिए चले। अभी वे लोग कुछ ही दूर गए थे कि सेवक ने अपना माथा पीट कर कहा, “मलिक मुझसे ग़लती हो गई मैं भोग की टोकरी तो घर पर ही भूल आया हूंँ।”

वैद्य जी ने कहा, “तुरंत वापस जाओ टोकरी लेकर आओ। हम तुम्हारा इंतज़ार करते हैं।”

यह सेवक बेला से इसलिए ईर्ष्या करने लगा था क्योंकि उसके मालिकों को बेला उससे ज़्यादा अच्छी लगने लगी थी। उसने प्रसाद घर पर भूल आने का केवल बहाना बनाया था। वापस घर लौट कर सेवक रसोई में गया वहाँ से मांस काटने का चाकू लेकर आया और बेला के बग़ल में सोते हुए बच्चे का गला काटकर उसे मार डाला। फिर प्रसाद की टोकरी उठाई और मालिकों से जा मिला। 

इधर जब बेला जागी तब उसने अपने को बच्चे के ख़ून से लिपटा हुआ पाया, “हे भगवान,” वह चिल्लाई, “वह बेचारे माँ-बाप! अब मैं क्या करूँ? मैं उन लोगों से भला क्या बताऊँगी?” 

घबराहट के मारे उसने एक खिड़की खोली और उससे कूद कर जंगल में भाग गई। वह तब तक भागती रही भागती रही जब तक कि घर से बहुत दूर नहीं निकल गई। 

एक सूने स्थान पर एक टूटी-फूटी हवेली उसे दिखाई दी। घर के अंदर कोई भी नहीं था कुछ देर तलाश करने पर उसे एक टूटी-सी चारपाई दिखाई दी, वहाँ लेटते ही वह थकान और डर के मारे बेहोश सी होकर सो गई। 

अब हम बेला को यही छोड़कर उस राजा के पास चलते हैं जिसको कई बेटियों के बाद जन्मी यह बेटी नहीं चाहिए थी। 

एक बेटी की हत्या का अपराध-बोध उसे हमेशा सालता रहता था। अब उसकी पत्नी ने राजा को बताया कि उसने अपनी बेटी की हत्या नहीं की, बल्कि रानी ने उसे दाई के हाथों जंगल में फिंकवा दिया था। एक दिन उन्होंने कहा, “रानी मैं घर छोड़कर जा रहा हूँ। मैं सारी दुनिया छान मारूँगा जब तक कि मुझे अपनी उस ठुकराई हुई, लापता बेटी का पता ना चल जाए, या फिर यह कि उसके साथ क्या हुआ।”

चलते-चलते राजा भी एक सुनसान जगह में एक खंडहर सी हवेली के अंदर गया। 

अब हम पिता को भी यहीं छोड़कर वापस उस राजा के पास चलते हैं, जिसने पलामू पर्वत के पास अपनी पत्नी को गाड़ी से उतार, कोड़ा मार कर छोड़ दिया था। राजा जैसे-जैसे अपने क्रोध और अपने दुष्कर्म को याद करता, वह दुख में डूबता जाता था। बार-बार उसे लगता, “कहीं उस दुष्ट राजा ने झूठ तो नहीं कहा था? क्या मेरी पत्नी निर्दोष थी? क्या वह अभी ज़िन्दा है? हो सकता है वह कहीं जीवित ही हो? महल में मुझे शान्ति नहीं मिलेगी मैं उसे ढूँढ़ने जाऊँगा हो सकता है कहीं उसकी कोई ख़बर मिल जाए।” 

दूर-दराज़ तक खोज करते-करते बेला का पति एक ऐसी सुनसान जगह पर पहुँचा, जहाँ एक खंडहर सी लगती हवेली थी। रात को सहारा पाने के लिए वह उस हवेली में घुस गया और एक मूढ़े पर जाकर बैठ गया। 

चलो अब हम वैद्यजी की बात करते हैं—यात्रा से लौट कर जब वैद्यजी और उसकी पत्नी घर आए तो उन्होंने अपने घर को ख़ाली और अपने बच्चे को मरा हुआ देखा। क्रोध और दुख से वैद्य जी चिल्ला उठे, “सेवक, आओ चलो, हम दोनों उस दुष्ट स्त्री को ढूँढ़ें, जिसने हमारे बच्चे को मार दिया। हम उसको मार कर ही चैन लेंगे।”

वैद्य जी और सेवक भी चलते-चलते इस वीरान, खंडहर सी हवेली में ही जा पहुँचे। वहाँ पहुँचने पर उन्होंने देखा कि एक वृद्ध और एक युवा राजा वहाँ पर पहले से ही बैठे हुए थे। वैद्य जी और उनका सेवक भी वही उनके सामने बैठ। गए। सब को रात भर का आसरा जो चाहिए था! 

वीराने में खड़ी एक खंडहर-सी हवेली में एक ही कमरे में दो राजा, एक वैद्य जी और एक उनका नौकर सेवक बैठे थे। वे आपस में परिचित न थे। सब अपने-अपने विचारों में डूबे हुए थे। कमरे के बीचों-बीच एक लालटेन जल रही थी। थोड़ी देर में लालटेन की लौ लपलपाने लगी, और बोली, “मुझे तेल चाहिए!”

न जाने कहाँ से कमरे में एक छोटी सी तेल की कुप्पी आई और दीये के पास जाकर बोली, “थोड़ा झुक जाओ।”

लालटेन थोड़ा झुक गयी और कुप्पी ने उसमें तेल भर दिया! अब कुप्पी ने लालटेन से कहा, “आज कोई मज़ेदार क़िस्सा सुनाओगे क्या?” 

“तुम बताओ तुम क्या सुनना चाहती हो? मेरे पास एक कहानी ज़रूर है सुनाने लायक़!”

“तो वहीं सुनाओ!”कुप्पी ने कहा

“ लो फिर वही सुन लो,” लालटेन ने कहा, “एक बार की बात है, एक राजा को बेटी नहीं चाहिए थी लेकिन उन्हें एक और बेटी हो गई। रानी ने राजा के डर से बेटी को कहीं दूर भिजवा दिया। अब सुनो लड़की बड़ी हुई और उसकी शादी एक राजा से हो गई। यह राजा दूसरे छोटे राजा के बहकावे में आ गया और उसने पलामू पर्वत के पास ले जाकर उसे कोड़े से मार कर बेहोश किया और उसे वहीं छोड़कर चला गया। भाग्य से उधर से एक वैद्य गुज़रे, उन्होंने  लड़की की . . .” धीरे-धीरे करके लालटेन कहानी सुनाती रही कमरे में बैठे चारों पुरुष फटी आँखों से एक दूसरे को देखते रहे। फिर वे सब अचानक उठ खड़े हुए। सेवक बेचारा पीपल के पत्ते की तरह काँपने लगा। 

लालटेन ने कथा जारी रखी, “आगे सुनो . . . जब वैद्य जी घर लौटे तो उन्होंने अपने बेटे के लालन-पालन का भार उस लड़की को दे दिया। वैद्य जी का एक नौकर था वह नई आई औरत से जलने लगा और एक दिन उसने वैद्य जी के बेटे को मार कर उसका दोष इस औरत पर मढ़ने की सोची।”

“हाय, बेचारी औरत!”कुप्पी बोली, “अब वह कहाँ है? क्या वह अभी ज़िन्दा है या मर गई?” 

“श ऽ ऽ,” “लालटेन ने कहा, “वह यहीं ऊपर के कमरे में सो रही है! जानती हो उसका बाप बूढ़ा राजा, उसको छोड़ देने वाला वाला उसका राजा पति और अपने बेटे की हत्यारी समझने वाला वैद्य सब अपने किए पर पछता रहे हैं और उसकी खोज कर रहे हैं!”

अब तक बेला के पिता, उसके पति और वैद्य जी उठ खड़े हुए। वैद्य जी ने तुरंत सेवक का गला पकड़ा। तीनों ने मिलकर सेवक को मार डाला। फिर वे सारे सीढ़िओं से ऊपर की ओर भागे, जहाँ एक खाट पर बेला सो रही थी, “वह मेरी बेटी है!”बूढ़े राजा ने कहा। 

“वह मेरी पत्नी है,” पलामू के राजा ने कहा।

“वह मेरी बहन जैसी है,” वैद्य जी ने कहा, “मैंने ही उसकी जान बचाई है।”

अंत में सब उसके पति के साथ गए। पलामू के महल में राजा-रानी के वापस आने की ख़ुशी में बाजे बजे और बड़ा जश्न मनाया गया। 

फिर सब अपनी अपनी जगह सुख से रहने लगे, बेला के साथ सब। हमेशा जुड़े रहे। 

जैसे बेला के दिन बहुरे वैसे ही सब दुखी जनों के दिन बहुरें राम जी हम सब पर कृपा करें। 

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