पशुता और मनुष्यता
सरोजिनी पाण्डेय
हम मानव स्वयं को
प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति मानते हैं,
मनुष्येतर प्राणियों को क्षुद्रतर जानते हैं,
पग-पग पर लेकिन पूजते हैं पशुता को
पशुत्व के गुणों को हम
गाते पाए जाते हैं।
मित्र-पत्नी-परिजनों से चाहते हैं
‘श्वान’-सी स्वामी-भक्ति
बहू बेटियों को ‘गाय’-सी सीधी पाना चाहते हैं,
नेता गण सर्वदा करते हैं ‘वानर’ सुलभ व्यवहार,
न्याय का ले करके नाम
बेचारी ‘बिल्लियों’ की रोटी खा जाते हैं।
दुर्बल–सबल देश मिलकर
बनाते हैं
‘भेड़ियों’-सा संगठन,
छोटे-छोटे देश को फिर नोच-नोच कर ‘खाते’ हैं।
स्वार्थ-सिद्धि अपनी पूरी हो जाते ही
‘तोते’ के समान हमारी आँखें फिर जाती हैं,
इष्टमित्र तो दूर, परिजनों से भी सदा
नज़रें हम चुराते हैं।
कर्त्तव्य पालन क्या मूर्खता का द्योतक है?
कर्त्तव्यनिष्ठ जन क्यों फिर
‘गर्दभ’ कहलाते हैं?
पशुओं को क व्यवहार को
क्यों हमने गाली बनाया?
भला किन बातों में हमने स्वयं को
पशुओं से श्रेष्ठ पाया?
शुद्ध ‘जंगल राज’ जब तक
जंगल में चलता रहा
हर प्रजाति के प्राणी को
संरक्षण मिलता रहा,
मानव ने जब अपना प्रभुत्व
वनों पर भी दिखलाया
कई; कई प्रजातियों पर
विलुप्तता का संकट छाया!
कितना अच्छा होता
हम पशुओं के गुण सीख पाते,
शायद तब हम कुछ सीमा तक
‘मानव’ बनते पाए जाते!!!
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