मूस और घूस

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 183, जून द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

मूल कहानी: द पैलेस माउस एंड द गार्डन माउस; चयन एवं पुनर्कथन: इटलो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन; पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

एक था मूस (चूहे की वह प्रजाति जो घरों में रहती है), एक सेठ की हवेली में रहता था। रोज़ पूड़ी, कचौड़ी, पुए का भोग लगाता था। एक दिन जब बड़ी आशा से वह मेवों की थैली काट रहा था कि एक बिल्ली उस पर झपट पड़ी, बड़ी मुश्किल से मूस बेचारा जान बचाकर किसी तरह खिड़की से कूदा और बाहर सब्ज़ी की क्यारी में आ गिरा। जाड़े की सब्ज़ियाँ खेत में लगी थीं, मूस एक गोभी के नीचे दुबक कर बैठ गया और लगा सोचने। सोचते-सोचते उसे याद आई अपने स्वर्गीय पिता की, जिन्होंने कभी अपने एक घूस (चूहे की वह प्रजाति जो खेतों-खलिहानों में रहती है और मूस से कुछ बड़ी होती है) मित्र की कहानी बताई थी जो क्यारियों के पास के गूलर के पेड़ के नीचे रहता था। फिर क्या था! मूसजी ने कई चक्कर गूलर के पेड़ के आसपास लगाए और घूस का बिल खोज ही लिया।

मूस के पिता के दोस्त की मृत्यु हो चुकी थी, उसका बेटा घूस, मूस को मिल गया। मूस और घूस आपस में परिचित हुए, और गले मिले। घूस ने मूस की खूब आवभगत की। उसकी मेहमाननवाज़ी पाकर मूस हवेली का स्वादिष्ट भोजन और यहाँ तक कि ख़ूँख्वार बिल्ली तक को भूल गया।

घूस के घर मूस के दो दिन तो बड़ी मस्ती में कटे। तीसरा दिन बीतते न बीतते उसे हवेली की याद आने लगी। यहाँ वह शलजम, गाजर, गोभी खाते-खाते ऊब गया था। इन चीज़ों के नाम से ही उसे अब उबकाई आने लगी थी।

उसने कहा, "दोस्त, मैं तुम्हारे ऊपर ज़्यादा दिन बोझ नहीं बनना चाहता। मुझे इजाज़त दो।"

"नहीं मित्र, कुछ दिन और रुको। तुम्हारे साथ बड़ा आनंद आ रहा है," घूस बोला। 

"नहीं-नहीं दोस्त, घर पर मेरा इंतज़ार हो रहा होगा।"

"कौन देख रहा होगा तुम्हारी राह?" घूस ने पूछा।

"मौसी, मेरी मौसी . . . अरे हाँ! ऐसा करते हैं कि तुम मेरे साथ चलो, मुझे मेरे घर छोड़ देना और मेरा घर भी देख लेना। फिर मेरे साथ खाना खाकर लौट आना।"

घूस तो मूस का घर देखने को बेताब ही था सो तुरन्त हामी भर दी।

दोनों चल पड़े हवेली की ओर। क्यारियों से निकल कर वे बाड़ पर चढ़ गए, और वहाँ से भंडार घर की खिड़की पर।

अंदर झाँका, घूस तो हक्का-बक्का रह गया!

बाप रे! इतना बड़ा और आलीशान घर और क्या लाजवाब खाने की ख़ुशबू!

मूस ने घूस से कहा, "तकल्लुफ़ की कोई बात नहीं इसे अपना ही घर समझो। आओ, नीचे कूदें।" 

घूस ने झिझकते हुए कहा, "नहीं- नहीं, मैं यही ठीक हूँ, अगर मैं अंदर चला गया तो शायद वापस आने का रास्ता न ढूँढ़ पाऊँ, मैं खिड़की पर ही ठीक हूँ।"

"ठीक है तुम यहीं रुको, मैं अभी कुछ खाने को लेकर आता हूँ," मूस बोला और भंडार में अंदर चला गया। 

जैसे ही उसने काजू की थैली में मुँह ही लगाया था कि पास छुपी, अलसाई पड़ी बिल्ली ने उस पर झपट्टा मारा।

चूँ . . .चूँ . . . चूँ बेचारा पंजे में फँसा मूस बिलबिलाया। 

घूस का कलेजा मुँह को आ गया।

सोचने लगा, "यह क्या आवाज़ थी? चर्र . . . चर्र . . . चर्र, शायद मौसी बोल रही थी।

"वाह री मौसी! अगर अपने भाँजे का वह ऐसा स्वागत करती है तो मुझ अनजान के साथ वह क्या करेगी!" घूस ने खिड़की से एक लम्बी छलाँग लगाई और सीधे क्यारियों में कूद गया!

बस !!!!

कहानी ख़त्म! पैसा हज़म!

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