दर्दीली बाँसुरी
सरोजिनी पाण्डेयमूल कहानी: ला पेना डि हू; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (पीकॉक फेदर); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय
प्रिय पाठक, आज जो लोककथा आपके लिए लेकर आई हूँ वह दुखांत है। लोक कथाओं के कल्पित और इच्छित संसार में अपना अभीष्ठ पाने के लिए 'मानव हनन' असामान्य नहीं है। लोभऔर जिजीविषा दो ऐसी मूल प्रवृत्तियाँ हैं, जो मानव को क्षुद्र से क्षुद्र और जघन्य से जघन्य कर्म करने पर विवश करती हैं। यह स्थिति मानव की हर सभ्यता में समान रूप से दिखलाई पड़ती है। लोक कथा कुछ इस प्रकार है:
एक था राजा, उसके थे तीन बेटे, पिता को प्यार करने वाले, बेहद आज्ञाकारी!
एक दिन अचानक, दैवयोग से राजा की आँखों की रोशनी चली गई। राज्य भर के दक्ष और कुशल वैद्य-हकीम बुलाए गए परन्तु किसी की समझ में रोग का इलाज नहीं आया। फिर एक दिन एक संन्यासी उधर से गुज़रा। उसने बताया कि राजा की आँखों की रोशनी तभी लौट सकती है जब उनकी आँखों का स्पर्श मोरपंख से हो, (ग्रीक पौराणिक कथाओं के अनुसार मोर पंख पर बनी आँखों की आकृति एरगस की आँखों का प्रतीक हैं। एरगस, ग्रीक देवता ज़ूस की पत्नी हेरा का सेवक था, जिसकी सौ आँखें थीं, चाहे वह कितनी भी गहरी नींद में सोए, उसकी एक न एक आँख अवश्य खुली रहती थी। अतः वह बहुत अच्छा पहरेदार था। ज़ूस को आईवो से प्रेम हो गया। हेरा ने ईर्ष्यावश एरगस को आईवो की जासूसी का काम सौंपा और ज़ूस ने छल से एरगस की हत्या करवा दी। तब हेरा ने एरगस सौ आँखें मोर पक्षी के पंखों पर लगा दीं। संभवतः संन्यासी ने इसी कारण मोर पंख से राजा की आँखों के इलाज की बात कही होगी)।
तो कहानी आगे बढ़ाते हैं—जब संन्यासी की बात राजा को मालूम हुई तो उसने अपने तीनों बेटों को बुलवाया और पूछा, “मेरे बच्चो, तुम मुझसे प्रेम करते हो ना!”
“पिताजी, आप हमें प्राणों से भी अधिक प्यारे हैं,” बेटों का उत्तर था।
“अच्छा, तो मेरी आँखों के इलाज के लिए तुम लोग मोर के पंख की तलाश में जाओ, जिससे मेरी आँखों की रोशनी वापस आ सके। तुममें से जो भी मोर का पंख ले आएगा उसी को मेरे बाद यह राज्य मिलेगा।”
बेटे तत्काल निकल पड़े मोर पंख की तलाश में। दो बड़े भाई चले, तो वे सबसे छोटे भाई, छोटू, को साथ नहीं ले जाना चाहते थे, परन्तु छोटू ने घर में रहने से साफ़ इनकार कर दिया और वह भी बड़े भाइयों के साथ यात्रा पर चल पड़ा।
वे मोर की तलाश में एक घने जंगल में जा पहुँचे। तब तक रात हो गई थी, तो तीनों भाई एक पेड़ पर चढ़ गए और डालों से लिपट कर सो गए।
सुबह सबसे पहले छोटू की ही नींद खुली। तड़के-तड़के उसे ऐसा लगा मानो जंगल के बीच से मोर की पुकार सुनाई दी! वह चुपचाप पेड़ से उतरा और मोर की कूक की दिशा की ओर चल पड़ा। चलते-चलते वह एक झरने के पास पहुँचा। स्वच्छ जल बहता देख कर उसे अपनी प्यास याद आ गई और वह झुक कर पानी पीने लगा। पानी पीकर जब वह खड़ा हुआ तो उसने हवा में तैरता एक मोर का पंख देखा। जब उसने आकाश की ओर आँखें उठाईं तो उसे उड़ता हुआ मोरपक्षी भी दिखलाई पड़ गया। छोटू ने मोर पंख उठा लिया।
जब दोनों भाइयों को मालूम हुआ कि छोटू को मोर पंख मिल गया है, तो वे दोनों ईर्ष्या से जल-भुन गए। उन्हें लगा कि अब पिता का राज्य तो छोटू ही पा जाएगा!! बिना आगा-पीछा सोचे एक भाई ने उसे कस कर पकड़ा और दूसरे ने अपनी तलवार के वार से उसे मार डाला, ज़मीन खोदकर वहीं झरने के पास उसके शव को गाड़ दिया और मोर पंख लेकर चल पड़े घर की ओर।
महल पहुँचकर पिता को मोरपंख दिया। राजा ने उसे अपनी पलकों पर दबाया और उनकी नेत्र-ज्योति फिर से वापस आ गई। जब उन्होंने आँखें खोलीं तो सबसे पहले छोटू राजकुमार के बारे में पूछा, “तुम्हारा छोटा भाई कहाँ है?”
“पिता जी, हम आपको क्या बताएँ! हम जंगल में पेड़ के नीचे सो रहे थे, रात में कई जंगली जानवर आए, उनमें से ही कोई छोटू को उठा ले गया। हमने तो सुबह बस धरती पर घसीटे जाने के निशान देखे। बहुत खोजने पर भी छोटू नहीं मिला,” भाइयों ने रुआँसे मुँह और भरे गले से कहा।
राजा मन मसोसकर रह गया। आँखें तो पायीं पर 'आँखों का तारा' खो दिया!!
इधर जंगल में, जहाँ दोनों बड़े भाइयों ने छोटू का शव गाड़ा था, वहाँ बहुत सुंदर, चिकने, हरे बाँसों की बँसवारी उग आई। एक दिन की बात है, एक गड़रिया वहाँ अपनी भेड़-बकरियाँ चरा रहा था, उसकी नज़र इस बँसवारी पर पड़ी . . . इतने सुंदर, चिकने बाँस जब उसने देखे तो उसमें से एक तना काटकर उसमें छेद बना कर अपने लिए एक बाँसुरी बना ली। जब उसकी बाँसुरी तैयार हो गई और उसने उसे अपने होंठों से लगाकर उसमें फूँक मारी तो उससे अपने आप स्वर निकलने लगे:
धीरे से पकड़ना चरवाहे मेरे प्यारे
ठेस ना लगे कहीं दिल को हमारे
मोर पंख के लालच में मुझे मार डाला
मेरे दोनों भाई हैं, मेरे हत्यारे ऽ ऽ ऽ
इस करुण स्वर लहरी को सुनकर चरवाहा गड़रिया बोल उठा, “अब जब इतनी दर्दीली धुन से बजने वाली बाँसुरी मेरे पास है, तो मैं भेड़-बकरियाँ क्योें चराऊँ? अब मैं सारी दुनिया में घूम-घूम कर सबको बाँसुरी सुनाऊँगा और इसी से धन भी कमा लूँगा!”
और चरवाहे ने भेड़ बकरियाँ चराना छोड़ दिया। वह बाँसुरी बजाकर मशहूर हो गया। घूमता-घूमता, धन दौलत-कमाता वह एक दिन राजधानी भी जा पहुँचा। जब उसकी बाँसुरी की चर्चा राजा के कानों तक पहुँची तो राजा ने उसे अपने दरबार में बुलवाया। बाँसुरी की दर्दीली आवाज़ सुनकर राजा की आँखें नम हो गईं। उसने गड़रिया से कहा, “क्या तुम यह बाँसुरी मुझे थोड़ी देर के लिए बजाने दोगे?” चरवाहे ने ख़ुशी-ख़ुशी बाँसुरी तुरन्त राजा को दे दी। राजा ने जैसे ही बाँसुरी होठों से लगाई कि:
धीरे से पकड़ना ओ पापा मेरे प्यारे
ठेस ना लगे कहीं दिल को हमारे
मोर पंख के लालच में मुझे मार डाला
मेरे दोनों भाई ही हैं मेरे हत्यारे ऽ ऽ ऽ
राजा ने उसास लेकर रानी से कहा, “ज़रा सुनो तो यह करुण राग! ज़रा तुम भी इसे बजा कर देखो ना!” रानी ने बाँसुरी होठों से लगाई और फिर अचानक ही स्वर फूटा:
धीरे से पकड़ना ओ मैया~ मेरी प्यारी
बेटे के दुख से तू भी तो है दुखारी ऽ ऽ
मोर पंख के लालच में मुझे मार डाला
भाइयों ने मिलकर जान ले ली हमारी ऽ ऽ
रानी का कलेजा फटने को हो गया। उसने अपने मँझले बेटे को बाँसुरी बजाने के लिए थमा दी। पहले तो उसने आनाकानी की पर राजा-रानी के कहने से उसने भी बाँसुरी में फूँक मारी। इस बार बाँसुरी से कुछ अलग ही स्वर निकला:
भाई रे भाई तूने मुझे जकड़ा—
और स्वर यहीं रुक गया। मँझला भाई पीपल के पत्ते की तरह काँपने लगा और बाँसुरी अपने बड़े भाई को पकड़ा दी, “तुम बजाओ भैया! तुम ही बजाओ!”
लेकिन बड़े भाई ने बाँसुरी बजाने से साफ़ इनकार कर दिया, कहा, “एक चरवाहे की बाँसुरी को लेकर आप सब पागल हो गए हैं। मैं तो इसे छूना भी चाहता!”
इस बात पर राजा क्रोधित हो गया और चीखकर, “बोला तुम्हें बाँसुरी बजानी ही होगी, यह मेरी आज्ञा है!” अब सबसे बड़े भाई को बाँसुरी बजानी ही पड़ी:
वाह मेरे भाई! तू निकला कसाई
बजा ज़रा धीरे, तू तो बड़ा दुखदायी
मोर पंख के लालच में मुझे मार डाला
तू ही तो है मेरा असली हत्यारा ऽ ऽ ऽ
यह सुनकर राजा दुख से बेसुध हो, धरती पर गिर पड़ा, “हाय, हाय मेरी नीच संतानों! तुमने अपने भाई को ही मार डाला! हाय! हाय!“
और फिर राजा ने दोनों बड़े बेटों को चौराहे पर फाँसी पर चढ़वा दिया।
चरवाहे को अपनी सेना का सेनापति बना दिया और स्वयं जीवन के अंत तक एकांत में उसी बाँसुरी को बजाता हुआ संतान के दुख में जीता रहा . . .
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