मेरे बाबूजी की छड़ी

15-06-2025

मेरे बाबूजी की छड़ी

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 279, जून द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

अलमारी के सहारे दीवार के एक कोने में 
लटकी रहती है, मेरे बाबू जी की छड़ी
जब कभी ज़रूरत पड़ने पर उसे उठाती हूँ मैं 
तो पिता की याद मुझे आती है बड़ी, 
 
पिताजी को शौक़ था सुंदर छड़ियों का
जहाँ कहीं भी दिख जाएँ ख़रीद कर लाते थे
रगड़ कर, पोंछ कर, रखते सम्हाल कर
तेल लगा कर उनको चमकाते थे, 
 
छड़ी के सहारे चलना पड़े उनको
ऐसी तो आयु उन्होंने नहीं पाई
उनकी छड़ी शाम की सैर के समय
बस शान दिखाने के ही काम आई, 
 
निकले थे गाँव से, बेटे थे खेतिहर के, 
नई मिली अफ़सरी के गुमान में रहते थे
तमीज़ पतलून पहन, सिर पर हैट लगा, 
छड़ी को थोड़ा घुमाते हुए सैर को जाते थे, 
 
उनकी प्यारी छड़ी एक और काम आती थी 
हम बच्चों को वह कभी-कभी 
अनुशासन सिखाती थी
 
हमें पढ़ाने भी वे यदाकदा बैठते थे
अपनी प्यारी छड़ी को अपने निकट ही बैठाते थे, 
सवाल यदि आया ना समझ में हमको तो, 
छड़ी को ‘समझावन लाल’ कहकर हिलाते थे
 
‘समझावन लाल’ की मारक क्षमता को याद कर 
डर के मारे, हम सिर को ऊपर नीचे हिलाते थे, 
 
हमारे किए कामों से
कभी कभार ख़ुश होकर, 
वे अपनी छड़ी को ऊँचा उठाते थे, 
गोलाई लिए हुए हत्थे को उसके, 
हमारे गले में डाल
हमको वे अपने निकट खींच लाते थे 
गाल पर एक हल्की, मीठी-सी चपत लगा 
हमारी सफलता का मानो तोहफ़ा दिलाते थे, 
 
बाबूजी चले गए 
छड़ी मेरे पास है
पिता की याद वह अक्सर मुझे कराती है, 
मेरी पहुँच से दूर पड़ी वस्तुओं को बड़ी 
आसानी से वह मेरे निकट लाती है
ऐसा करते हुए बाबू जी की छड़ी 
मेरे लिए मानो ‘पिता का आशीर्वाद’ बन जाती है। 

1 टिप्पणियाँ

  • 17 Jun, 2025 08:36 PM

    'मेरे बाबूजी की छड़ी' यह कविता का शीर्षक भर नहीं है बल्कि संपूर्ण बाबूजी ही है। बाबूजी अब इस दुनिया में नहीं है पर उनकी धरोहर के रूप में छड़ी अब भी है जो बेटी के पास है। बाबूजी नहीं है पर जब भी छड़ी को देखा जाता है तब बाबूजी साकार हो जाते है। उनकी छड़ी सहारे के लिए नहीं थी, शान के लिए थी। इसे लेकर वे सैर को जाते। बच्चों के अनुशासन में भी यह छड़ी काम आती थी । गले में छड़ी का गोल आकार गले में डालना बाबूजी के स्नेह प्रदर्शन का तरीका था। पिता कभी नहीं मरते हैं। वे तो हमारे साथ हमेशा जीवित रहते हैं। कभी छड़ी के रूप में, कभी डांट-फटकार के रूप में तो कभी स्नेह के रूप में विद्यमान रहते हैं। सरोजिनी पाण्डेय जी, आपकी यह कविता गहरे तक भिगो गई । इसे पढ़ते समय यही लगता रहा कि पिताजी हमेशा जीवित बने रहते तो कितना अच्छा होता। फिर सोचा कुदरती नियमों पर हस्तक्षेप करना ठीक नहीं है। वे यादों में तो जीवित रहते ही हैं। 80 - 90 के दशक के पिता ऐसे ही थे जैसा आपने अपनी कविता में उन्हें जीवंत किया है। बढ़िया कविता के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।

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