एक दिन की नेतागिरी

15-06-2024

एक दिन की नेतागिरी

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

 बात आज से लगभग चालीस वर्ष पहले की है। हम उन दिनों बम्बई अर्थात्‌ आज की मुंबई में रहते थे। छोटा
-सा परिवार, पति-पत्नी और दो बच्चे, चार वर्ष की बिटिया और डेढ़ बरस का बेटा। पति को काम के सिलसिले में महीने में 10-15 दिन तक भी बाहरी रहना होता था, सागर तल मेें पेट्रोलियम की तलाश जो करनी थी! 

मुंबई के पास पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में एक स्थान है खंडाला, जी हाँ, वही आमिर खान द्वारा अभिनीत गाने ‘आती क्या खंडाला?’ वाला खंडाला। 

अपनी प्राकृतिक सुंदरता और प्रसिद्ध कार्ला की बौद्ध गुफाओं के कारण, महानगर की भाग दौड़ की ज़िन्दगी से बचकर, कुछ दिन शान्ति से प्रकृति की गोद में बिताने के लिए यह स्थान मुंबई निवासियों में उन दिनों बहुत लोकप्रिय था। हमारे विवाह की वर्षगाँठ मई माह के अंतिम दिनों में होती है। परिवार के साथ अच्छा समय बिताने के लिए, उस वर्ष हम लोगों ने यह दिन खंडाला में बिताने का कार्यक्रम बनाया। लोनावला जो कि खंडाला का ही एक जुड़वाँ शहर (ट्विनसिटी) है, वहाँ हमने एक छोटा सा कॉटेज, वन्य प्रदेश के एक रिसॉर्ट में, रहने के लिए बुक कर लिया। तीन दिनों में से एक दिन कार्ला की गुफाओं के लिए सुरक्षित रखा गया। ये गुफाएँ इस स्थान से 11-12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हमारे पास अपनी कोई मोटर गाड़ी आदि तो थी नहीं, तो हम मुंबई से बस द्वारा लोनावला-खंडाला आए थे। रिसॉर्ट के बाहर बहुत नज़दीक ही बस स्टैंड था। 

उस दिन हम कार्ला-गुफाएँ देखने जाने वाले थे! सुबह ही तैयार होकर, नाश्ता करके, कुछ भोजन-पानी साथ ले, दोनों बच्चों के साथ गुफाएँ देखने के लिए बस से चल पड़े। लगभग आधे घंटे की यात्रा करके गुफाओं तक पहुँचना था। अब गुफाएँ कोई बस स्टैंड के पास तो हो नहीं सकतीं, सो पैदल ही पहाड़ी रास्ते से गुफाओं तक पहुँच गए। इन गुफाओं की वास्तुकला, सुन्दर चिकने स्तंभों वाला चैत्य, गौतम बुद्ध की विशाल और सुन्दर कला युक्त मूर्तियाँ! कई घंटे तक हमने इनका आनंद लिया। बच्चे साथ में थे इसलिए हर काम धीरे-धीरे, आराम से ही हो रहा था। दिन का अधिकतम भाग घूमते-घामते, बच्चों को सँभालते निकल गया। यह घटना जो मैं आपको सुना रही हूँ, वह 40 वर्ष पहले की है, उस समय इस प्रकार के पर्यटन स्थलों में वैसी सुविधाएँ नहीं थीं, जैसी अब दिखाई देती हैं। दो-चार गुमटीनुमा चाय, शरबत की दुकानें, कुछेक गाड़ियों के रुकने की खुली जगह, एक बस स्टैंड, एक सार्वजनिक शौचालय और एक छोटा सा प्रतीक्षालय बस, ऐसा था उस समय का कार्ला का पर्यटन स्थल! 

महाराष्ट्र की सरकारी बस सेवा से ही लौटना भी था! बस की टिकट-खिड़की बन्द थी, पति ने आसपास, पूछताछ और तलाश की तो भी यह समझ में नहीं आया कि टिकट कहाँ से लें? लोनावला से जो बस आती थी, वही यहाँ से मुड़कर वापस भी जाती थी। छुट्टी का दिन था, तो सैलानियों की कुछ भीड़ भी थी, यह तो भला हो वहाँ की जनता का जो अनुशासित रहकर, पंक्तिबद्ध हो बस की प्रतीक्षा कर रही थी। हम भी अपने थके-माँदे बच्चों के साथ क़तार में खड़े हो गए। मुंबई में गर्मी उत्तर भारत (जहाँ हम पले बढ़े) की तरह तीव्र और झुलसाऊ तो नहीं होती, परन्तु धूप में तीखापन तो होता ही है, फिर हम दिन भर लगातार पैदल ही तो चल रहे थे। कितना भी पश्चिमी घाट का पहाड़ी इलाक़ा रहा हो, हमारे छोटे बच्चे थकान और गर्मी से परेशान हो रहे थे। बेटी तो गोद में आने की ज़िद नहीं करती थी, लेकिन डेढ़ बरस का बेटा बार-बार गोदी में चढ़ और उतर रहा था। लगभग आधे घंटे तक यही स्थिति रही तब जाकर बस आई, देखते ही देखते पूरी बस भर गई, ड्राइवर तो गाड़ी से उतरा ही नहीं था, हमें ऐसा ही लगा। 10-15 मिनट रुक कर बस लोनावला की तरफ़ चल पड़ी। 

जब हम दो-तीन किलोमीटर आ गए, तब कंडक्टर ने यात्रियों के टिकट की जाँच शुरू की। अपना टिकट-पंच सबके सामने खटखटाते हुए ‘तिकीट-तिकीट’ की आवाज़ लगाना शुरू किया। कुछ यात्रियों ने टिकट दिखाया, वे कहाँ से टिकट लाए थे यह हमारी समझ में नहीं आया! क्या वे वापसी का टिकट भी लेकर आए थे? क्योंकि हमारी नज़र तो लगातार टिकट खिड़की पर थी वह कभी खुली ही नहीं दिखी थी, हाँ जब बस आ गई तब तो हमारा ध्यान बस पर ही लग गया था। चूँकि बस की टिकट हमेशा ही बस में भी मिल जाया करती थी, अतः उधर से ध्यान हट गया था। कुछ यात्री टिकट दिखा चुके थे लेकिन फिर हमारे जैसे भी कई यात्री बस में थे, जो बंद खिड़की को देखकर बस की क़तार में खड़े होकर बस में चढ़ गए थे। जब टिकट के बदले रुपए का नोट दिखाने वालों की संख्या कुछ बढ़ गई तब अधिकार, काम की अधिकता या फिर गर्मी के मौसम का प्रभाव दिखाते हुए कंडक्टर ने अपनी सिटी बजाई और चालक से बस रोकने को कहा। बस के रुकने पर यात्रियों के लिए घोषणा कर दी, “जो पैसेंजर के पास तिकीट नहीं है सब उतर जाओ।”

मुंबई महाराष्ट्र की अनुशासित जनता में सन्नाटा छा गया कोई चूँ चां नहीं। सारे (शायद बेटिकट ही) यात्री सकते में आगए। उन दिनों मुंबई महानगर की बसों पर मोटे-मोटे अक्षरों में एक नारा छपा होता था, “शिस्ती मुऴे राष्ट्र मोटे बनते,” जिसका अर्थ है “अनुशासन से राष्ट्र महान बनता है” इस नारे का प्रभाव मुंबई की लोकल बसों में और यहाँ राज्य परिवहन की बस में भी स्पष्ट दिखाई दे रहा था। 

आबादी से दूर यहाँ जंगल के बीच, पहाड़ी रास्ते पर बिना टिकट के यात्री, बस से उतरकर किधर जाएँगे? क्या लोनावला की तरफ़ से आकर आगे जाने वाली बस से वह फिर का कार्ला जाएँगे? यहाँ तो कोई सवारी मिलना यदि सम्भव नहीं, तो कठिन और दुर्लभ अवश्य था। फिर हमारे साथ तो दो छोटे बच्चे भी थे। क्या वे दो ढाई किलोमीटर पैदल चलेंगे? सवारी कब और कहाँ मिलेगी? ऐसी स्थिति में सहसा मेरे शरीर में एड्रीनलीन की मात्रा बढ़ गई। मैं अपनी सीट से खड़ी होकर, शांत बस में ज़ोर से बोली, “हम तो यहाँ नहीं उतरेंगे! हमारे पास टिकट नहीं है, क्योंकि टिकट की खिड़की बंद थी! अगर बिना टिकट यात्री बस में नहीं आ सकते, तो आपको बस में चढ़ते समय ही, गेट पर टिकट चेक करना चाहिए था!” मेरे इतना बोलने पर बस में यात्रियों के बीच फैला सन्नाटा टूटा। एकाध यात्री खड़े होकर मेरा पक्ष लेने लगे, कुछ बैठे-बैठे ही कन्डेक्टर के विरोध में बोले। पास ही बैठे मेरे पति ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे बैठने का प्रयत्न किया परन्तु मेरे ऊपर तो ‘क्रांतिकारी’ विचारधारा हावी थी, तिस पर कुछ यात्रियों का सहयोग भी मिल गया था। मेरा स्वर तीव्रतर हो गया, “खिड़की पर कहीं खुलने बंद होने का समय नहीं लिखा था और न ही बस के दरवाज़े पर लिखा था कि बिना टिकट लिए यात्री बस में न बैठें। अब तक हर जगह बस के अंदर टिकट मिलती रही है। नियम बदलने की सूचना सबको देनी चाहिए थी न!” मैं लगातार भाषण दिए जा रही थी, “अगर। आप हमको टिकट नहीं दे सकते तो हमें वापस कार्ला ले जाकर छोड़िए, हम टिकट लेकर चढ़ेंगे या अगली बस का इन्तज़ार करेंगे। कई लोगों के साथ छोटे बच्चे हैं, क्या आप उन्हें यहाँ वीराने में छोड़ देंगे?”

अब तक सीटों पर बैठे और आवेग में खड़े हो गए बहुत से लोगों का शोर बस में गूँजने लगा था। कंडक्टर साहब भी यात्रियों की एकता को समझ गए थे। उन्होंने सीटी बजा कर चालक को गाड़ी आगे बढ़ाने का संकेत दिया, और स्वयं सवारियों को टिकट काट कर देने लगे। धीरे-धीरे बस में पूर्ण व्यवस्था स्थापित हो गई, टका टक पंच की आवाज़ सुनाई देने लगी। 

10-15 मिनट की मेरी नेतागिरी रंग लाई थी! इतनी देर के इस अप्रत्याशित नाटक-नेतागिरी से मेरे सिर से लेकर पैर तक सारे अंग झनझना उठे थे। कुछ यात्री आश्चर्य, कुछ प्रशंसा, और कुछ विचित्र नज़रों से मुझे देख रहे थे, विरोध कहीं नहीं था। इस घटनाक्रम में पति पूरे समय चुप बैठे रहे और बेटे को सँभालते रहे। उत्तेजना के शान्त होते-होते लोनावला रिसॉर्ट का स्टॉपेज कब आ गया कुछ पता ही नहीं चला। कंडक्टर की आवाज़ सुनकर पति ने उतरने का संकेत किया। हम पिछले दरवाज़े के काफ़ी निकट बैठे थे, अतः जल्दी ही उतर गए। यहाँ उतरने वाले कम ही थे। जब हम कुछ आगे बढ़ गए और बस भी चली गई तब बिटिया ने अपने बाल सुलभ मीठे स्वर में प्रश्न किया, “पापा, कंडक्टर अंकल ने हमें टिकट क्यों नहीं दिया?” यह सुनते ही हमें होश आया और मैं समझ गई कि यह हमारी ज़िन्दगी की पहली और शायद आख़िरी भी “डब्ल्यू टी” यात्रा थी। 

भारत में अभी हाल ही में संपन्न हुए आम चुनाव के समय नेताओं की धन-दौलत, उनको अर्जित करने के तरीक़ों, आयकर, दण्ड आदि पर वाद-विवाद हो रहे थे। तभी यह विचार आया कि उस एक दिन दिखाई पड़ने वाले अपने नेतागिरी के गुण को यदि मैं सँभाल कर रखती, उसे विकसित और पुष्ट करती तो आज मेरे नाम केवल एक ‘बेटिकट बस-यात्रा’ ही नहीं बल्कि कई ‘बेनामी सम्पत्तियाँ’ भी होतीं। शायद किसी राजनीतिक पार्टी के चिह्न पर चुनाव भी लड़ रही होती, लेकिन मेरे भाग्य में तो बस एक दिन की नेतागिरी और एक ‘मुफ़्त’ बस यात्रा ही थी न! 

“अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत?” 

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