बैठे-ठाले
सरोजिनी पाण्डेयअभी हाल में ही मेरे साथ एक ऐसी घटना हुई कि उसे कुछ लोगों के साथ साझा करने की इच्छा हुई। आजकल की व्हाट्सएप की भाषा में कहूँ तो ‘शायद इससे किसी एक का भी भला हो सके’!
सबसे पहले शीर्षक सोचा, ‘सावधानी हटी दुर्घटना घटी’। लेकिन तुरंत ही ध्यान आया कि दुर्घटना तो हुई नहीं, फिर यह नाम क्यों? सोचा, ‘ सावधानी हटी कोई घटना घटी’! अब घटनाएँ तो घटती ही रहती हैं, सावधानी हटे या न हटे, तो यह शीर्षक भी अनुपयुक्त लगा। जब शीर्षक में ही इतना उलझ रही थी तो आगे क्या लिखूँगी? यह सोच कर मुझे लगा कि यह तो मैंने अपने लिए बैठे बिठाए ही उलझन पैदा कर ली। मन की चाल देखिए, मैं सीधे अपने बचपन में पहुँच गई, जब ‘साप्ताहिक ‘हिंदुस्तान’ अथवा ‘धर्मयुग’ पत्रिका में एक स्तंभ आता था, जिसका नाम ही था ‘बैठे-ठाले’। उस स्तम्भ में दैनिक जीवन के साधारण विषयों पर मनोरंजक आलेख छपा करते थे। अब
मैंने तय किया कि इस बार इस आलेख का नाम ‘बैठे-ठाले’ ही लिखूँगी। शीर्षक की उलझन में उलझ कर मैं कहीं घटना लिखना ही न भूल जाऊँ, तो पहले आप घटना सुनिए—
इन दिनों मैं और मेर पति, अमेरिका में बसे अपने सुपुत्र के पास, कैलिफ़ोर्निया में प्रवास कर रहे हैं। जैसा कि सब जानते हैं यह प्रदेश अमेरिका के पश्चिमी तट पर है। एक पीढ़ी पहले से मेरे पति की दो बहनें इसी देश के पूर्वी तट पर अपने परिवारों के साथ वर्जिनिया प्रदेश में रह रही हैं।
क्रिसमस की छुट्टियों में ऐसा विचार आया कि इस अवकाश का लाभ उठाकर बहनों से मिल आया जाए। सैन फ्रांसिस्को से वाशिंगटन की छह घंटे की उड़ान पूरी कर हम वर्जिनिया पहुँच गए। दो सप्ताह तक परिवारों से मिलना-जुलना चलता रहा। अंततः वापस आने की बारी आई। आजकल हर काम के लिए कंप्यूटर का ही प्रयोग होता है और हमारे जैसे कई वरिष्ठ नागरिक इसमें न तो निपुण है और न ही सहज अनुभव करते हैं। इसलिए टिकट ख़रीदने, बोर्डिंग पास निकालने का सारा ज़िम्मा सुपुत्र का ही रहता है। एक तरफ़ की यात्रा जहाँ से आरंभ होनी थी, वहाँ तो यह सब काम करके, हर दस्तावेज़ को छाप कर काग़ज़ की नक़ल हमें पकड़ा दी गई थी। अब जब लौटने की बारी आई तो अन्य आवश्यक काग़ज़ तो हमारे पास थे, परन्तु बोर्डिंग पास नहीं था। बेटे ने यात्रा के चौबीस घंटे पहले ऑनलाइन चेक-इन करके बोर्डिंग पास भी बनवा लिया और हमारे पास मोबाइल पर भेज दिये। हालाँकि मोबाइल पर भी पास को बड़ी आसानी से जाँच के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है, परन्तु हम जैसों को जो सुरक्षा और सहजता काग़ज़ पर छपे दस्तावेज़ों से होती है, वह मोबाइल में क़ैद प्रपत्रों से नहीं होती। मन में डर बना रहता है कि कहीं उँगली के ग़लत स्पर्श से डिलीट हो गया या फिर फोन डिस्चार्ज हो जाए तो क्या होगा? ऐसी संभावनाओं से बचने का उपाय केवल यही है कि उसे काग़ज़ पर छापकर पक्का कर लिया जाए और वह दिखाए जाने के लिए तैयार रहे। तो जनाब, हमने बोर्डिंग पास को काग़ज़ पर छापने का ज़िम्मा मेरी ननंद को दिया। वह भी हमारी ही तरह वरिष्ठ नागरिक है। कंप्यूटर पर काम करने का उनका अनुभव हम से अधिक है परन्तु इतना भी नहीं कि कंप्यूटर की सारी ‘कलाओं’ से परिचित होती। बड़ी कोशिशों के बाद भी वे छपाई का आकार छोटा न कर पाईं और पूरे फ़ुलस्केप काग़ज़ का ही पर ही दो बोर्डिंग पास छाप दिए। कुछ देर हँसी-मज़ाक चलता रहा और फिर हम संतुष्ट हो गए, यात्रा के लिए पूरी तरह तैयार।
जिस दिन यात्रा करनी थी उस दिन संध्या छह बजे की उड़ान के लिए हम चार बजे ही एयर पोर्ट पहुँचना चाहते थे। परन्तु हमें समझाया गया कि सारे दस्तावेज़ सही सलामत हैं, यह देश भारत नहीं बल्कि अमेरिका है, तो एक घंटे पहले पहुँचना पर्याप्त होगा। काफ़ी मान-मनौवल के बाद पति इस बात पर तैयार हो गए कि हमें डेढ़ घंटे पहले पहुँचा दिया जाए। बहनें, बहुत समय बाद मिले भाई के साथ का एक मिनट भी व्यर्थ नहीं करना चाहती थीं।
आजकल यात्रियों के अतिरिक्त के किसी को एयरपोर्ट में अंदर जाने भी नहीं दिया जाता। इसलिए साढ़े चार बजे हम वाशिंगटन एयरपोर्ट पर पहुँचा दिए गए। टिकट पासपोर्ट दिखाकर हम सुरक्षा जाँच के काउंटर तक आ भी गए। अब सुनिए हमारी मुश्किल का हाल! काउंटर पर बैठे कर्मचारी ने सबसे पहले तो हमारा फ़ुलस्केप पेपर पर छपा बोर्डिंग पास देखकर हमें ऊपर से नीचे तक देखा। कुछ देर स्कैन मशीन से सामंजस्य बनाकर हमारा पास स्कैन किया और फिर जो वाक्य कहा उससे तो हमारे होश ही फ़ाख़्ता हो गए, “सर यू आर एट द रौंग एयरपोर्ट। आई एम वेरी सॉरी। यू हैव टू गो टू रीगन एयर एयरपोर्ट वाशिंगटन। दिस इज़ डेल्यूस वाशिंगटन” (महोदय मुझे खेद है कि आप ग़लत एयरपोर्ट पर आ गए हैं आपको रीगन एयरपोर्ट वाशिंगटन जाना है और यह डेल्सयु, वाशिंगटन है)। उस समय हमारी क्या दशा हुई होगी यह आप समझ सकते हैं! हाथों के तोते उड़ गए! पता करने पर मालूम हुआ कि जहाँ हमें जाना चाहिए वह जगह यहाँ से चालीस मिनट की ड्राइव की दूरी पर है। अमेरिका में अधिकांश दूरियों को ड्राइव में नापने का रिवाज़ है। यह सब वाक़या होते-होते पाँच बज रहे थे, छह बजे की उड़ान थी। हमें दो विकल्प सुझाए गए—पहला मेट्रो लेने का और दूसरा टैक्सी लेने का! टैक्सी बुलाने के लिए ऊबर का अमेरिकी ऐप होना आवश्यकता था जो हमारे पास नहीं था। कैलिफ़ोर्निया बेटे को फोन करके टैक्सी मँगवाने का काम हो सकता था परन्तु यदि वह फोन ना उठाए तो? हमारा फोन भी केवल एयरपोर्ट के मुँह में मिलने वाले वाई-फाई पर ही आश्रित था। अब क्या हो? एक-एक बीतता क्षण हमारी हृदय गति बढ़ा रहा था। पति ने तत्काल निश्चय किया और मेरी जो ननंद हमें यहाँ पहुँचा कर गई थी, उसे तुरंत फोन किया। हम एयरपोर्ट पर मुफ़्त मिलने वाली वाईफाई के आभारी हैं कि हम ऐसा कर सके। उसने हमें आश्वस्त किया, “भैया घबराइए नहीं, मैं तुरंत आ रही हूँ। आप लोग वहीं आकर खड़े हो जाइए जहाँ आपको छोड़ा था”। यदि भारत जैसी परिवहन व्यवस्था और भीड़ होती तो क्या यह सम्भव हो पाता? 5:05 में हम फिर से कार में सवार होकर वाशिंगटन के लिए रीगन एयरपोर्ट की ओर चल पड़े।
चालीस मिनट की ड्राइव में यही बातें होती रही कि टिकट तो वापसी यात्रा का था, फिर स्थान कैसे बदला? हमारा बेटा, जो हम लोगों का हर काम करते हुए इस बात की सावधानी बरतता है, यह बात बताना कैसे भूल गया? हमने इतने बड़े बोर्डिंग पास पर मोटे-मोटे अक्षरों में सबसे ऊपर छपे ‘डी आई ए ‘ (डेल्यूस इन्टरनेशनल एयरपोर्ट) के स्थान पर डीसीए (डिस्ट्रिक्ट केरोलिना एयरपोर्ट) छपा क्यों नहीं देखा? इस असावधानी और नज़रअंदाज़ी का दुख मेरी ननद को सबसे अधिक था, क्योंकि वहीं वर्षों से निवास करने के कारण दो एयरपोर्ट होने की बात वह अच्छी तरह जानती थी। हम हैरान थे कि इतनी महत्त्वपूर्ण बात हमारे ध्यान से कैसे हट गई!राम-राम करते पाँच बजकर चालीस पर हम अपने गंतव्य पर पहुँच गए। अब हम दोनों की दौड़ आरंभ हुई। भाग्य अच्छा था कि उस समय भीड़ का समय नहीं था। उड़ान छूटने का हवाला देते, निवेदन करते हम पंक्ति में आगे स्थान पाने में सफल हो गए। शायद सिर के सफ़ेद बालों के कारण भी लोगों की सहृदयता हमें मिल रही थी। पहचान पत्र की जाँच, सुरक्षा जाँच से होते हुए जब हम विमान में चढ़ने की पंक्ति में पहुँचे तब तक केवल चार पाँच लोग ही बाहर बचे थे। हड़बड़ी और जल्दबाज़ी में ननद से विदा के दो शब्द भी ना कह सके थे। जीवन के सातवें दशक में हम दोनों को जो एयरपोर्ट पर दौड़ लगानी पड़ी थी, उससे साँस फूल रही थी और गला सूख रहा था, दिल ज़ोर–ज़ोर से धड़क रहा था। इतना भी समय नहीं था कि मुफ़्त का वाईफाई लेकर ननद को संदेश भी दे पाते। जिन्होंने हमें आश्वस्त किया था कि वे बाहर हमारी प्रतीक्षा करेंगी। यदि हम विमान में चढ़ने में सफल न हो सके तो वापस घर ले जाएँगी, आदि आदि। विमान में बैठने के बाद जब इस बात होश आया तो हृदय ग्लानि से भर गया, कोई उपाय नहीं था। एक बार परिचारिका से संदेश भेजने का निवेदन भी किया, परन्तु उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि वह ऐसा नहीं कर सकतीं। मैं यह सोच-सोचकर मरी जा रही कि बेचारी मेरी छोटी ननद न जाने कब तक कार में बैठी हमारी या हमारे संदेश की प्रतीक्षा करती रहेंगी।
जब बच्चे छोटे थे तब न जाने कितनी बार बच्चों को समझाती रहती थी कि परीक्षा के समय प्रश्न पत्र को ध्यान से पढ़ना, आगे और पीछे दोनों और पलट कर पर्चा देखना, सारे निर्देश सावधानीपूर्वक पढ़ना! व्हाट्सएप में अक़्सर ही ऐसे संदेश आते रहते हैं जिसमें मैनेजमेंट के परीक्षार्थियों को यह सिखाया जाता है कि सबसे पहले निर्देश पूरी तरह पढ़ना, समझना चाहिए। यह सारी बातें, जब हम अपना बोर्डिंग पास देख रहे थे, तब भूल गए! तनिक सी असावधानी से कितनी असुविधा और कष्ट हुआ! यह भी स्पष्ट हुआ कि मिल-बैठ कर सम्बन्धियों से गपशप करने की व्यस्तता के कारण ही ऐसी अनदेखी हुई।
सारांश यह कि एक छोटी सी असावधानी भी आप को कितनी कठिनाई में डाल सकती है।
अब मेरे पाठक इस बात का निर्णयस्वयं करें कि “बैठे-ठाले” शीर्षक उपयुक्त है या अनुपयुक्त।
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