भाग्य चक्र

01-02-2024

भाग्य चक्र

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 246, फरवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

मूल कहानी: आई रियली स्फोर्टुनाटी; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (इल फ़ेटेड रॉयल्टी); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स

 

प्रिय पाठक, आज की लोक कथा में आपको कहानी के अंदर एक और कहानी पढ़ने को मिलेगी, साथ ही राजनैतिक दाँव पेंच और प्रेम-प्रतिशोध की कथा भी। आनन्द लीजिए एक और लोककथा का:

किसी समय झिंझिनापुरी राज्य में एक राजा राज करता था, जिसके तीन बेटे थे। जब उसकी अवस्था ढलने लगी तो उसने अपने सबसे बड़े बेटे का विवाह पड़ोसी देश अजबपुरी की राजकुमारी से कर दिया और धूमधाम से उसका राजतिलक भी कर दिया। आयु पूरी होने पर पिता तो स्वर्ग सिधार गए, लेकिन अब राजा के दोनों छोटे बेटे अपने बड़े भाई के शासन में रहने से नाख़ुश रहने लगे। उनकी ईर्ष्या इस हद तक पहुँच गई कि उन्होंने अपने बड़े भाई की हत्या का षड्यंत्र रच डाला। दोनों ने मिलकर राजमहल को राजा-रानी के साथ जला डालने की योजना बना ली। योजना की भनक किसी को न लग जाए, इस डर से उन्होंने समय से कुछ पहले ही महल में आग लगा दी। रानी उस समय अपनी दासी भानुमती के साथ महल के बाग़ीचे में टहल रही थी। आग की लपटें देखकर वह दासी के साथ, अपने प्राण बचाकर, पास के जंगल में भाग गई, महल धू-धूकर जल गया। 

रानी और भानुमती छिपती-छिपाती दिनभर जंगल में भटकती रहीं। शाम तक रानी, जो गर्भवती थी, बहुत थक गई। वे एक बड़े पेड़ की छाया में आराम करने बैठ गईं। अँधेरा होते-होते उधर से बारह लुटेरों का एक दल गुज़रा। इन दो स्त्रियों को देखा वह हैरान रह गए, पूछा, “तुम दोनों यहाँ, इस जंगल में क्या कर रही हो?” रानी ने भरे कंठ से कहा, “हमारे दुर्भाग्य ने हमें यहाँ पहुँचा दिया है,” ऐसा कहकर उसने अपनी राम कहानी सुना दी। 

लुटेरों ने दासी को तो वहीं पेड़ से बाँधकर छोड़ दिया और रानी को अपनी गृहस्थी चलाने के लिए अपने साथ ले गए। अब रानी डाकुओं के लिए खाना बनाती, घर की साफ़ सफ़ाई करती उनकी सेवा करने लगी। 

एक दिन एक लुटेरा घायल होकर आया। उसकी सुश्रूषा करने के लिए रानी को उस अलमारी की चाबी भी दे दी गई, जिसमें दवाइयाँ रखी जाती थीं। एक दिन जब सारे लुटेरे बाहर चले गए तब उसने दवाओं की अलमारी की सफ़ाई शुरू की, संयोग से उसे एक ऐसी शीशी मिल गई, जिसमें ज़हर रखा था। 

रानी ने उस दिन प्रेम से भोजन बनाया और सारी दवाई खाने में मिलाकर घर छोड़कर भाग गई। वह जंगल में भानुमती की तलाश में इधर-उधर भटकती रही, परन्तु उसे उसका कोई पता-निशान न मिल सका। घने जंगल में पहुँचने पर उसे एक बड़े पेड़ के तनों के बीच एक कोटर दिखाई पड़ा वह गर्भ-भार और प्रसव-पीड़ा के कारण व्याकुल हो रही थी, उस कोटर में घुसकर लेट गई और वही उसने एक शिशु को जन्म दिया, ऐसी दशा में बेचारी जाती भी कहाँ! वह रात उसने इस कोटर में अपने नवजात की देखभाल करते-करते गुज़ार दी। 

अगली सुबह सौभाग्य से दो चरवाहे उधर से गुज़रे। उन्होंने जब शिशु के रोने की आवाज़ सुनी तो उसकी खोज में लग गए। कोटर में एक स्त्री अपने नवजात पुत्र के साथ मिल गई। उन दोनों का हृदय यह देखकर पसीज गया। वे उसकी सहायता करना चाहते थे। रानी की कहानी सुनकर वे उसे अपने घर ले गए और उससे कहा, 
“आप यहाँ मालिकिन की तरह रहेंगी, हम आपकी और आपके बच्चे की देखभाल अच्छी तरह करेंगे।” 

वे दोनों पशुपालक धनी थे, रानी अपने बेटे के साथ वहाँ सुख से रहने लगी। उधर झिंझिंनापुरी  में उसके दो दुष्ट देवर निष्कंटक राज कर रहे थे। 

एक दिन रानी जब अपने नन्हे बेटे के साथ घर में अकेली थी, तब घूम कर पूरा घर देखने लगी। एक कमरे का दरवाज़ा खोलने पर उसे ऊपर जाती लंबी सीढ़ियाँ दिखाई पड़ीं, वह ऊपर चली गई। ऊपर का दरवाज़ा खुला था। जब वह अंदर गई तो देखा कि एक युवक अपनी दोनों हथेलियाँ के बीच अपना चेहरा थामे उदास बैठा है। रानी तुरंत वापस मुड़ने लगी लेकिन तभी उस युवक ने उसे आने को कहा। दोनों ने एक दूसरे से जानना चाहा कि वह इन पशुपालकों के घर में कैसे आए। रानी ने जब अपनी रानी कहानी सुना दी, तब युवक बोला, “मैं पुष्प नगर के राजा का बेटा हूँ। मेरे पिताजी की और उनके अंगरक्षक की शादी एक ही दिन हुई थी। जिस दिन मेरा जन्म हुआ, उसी दिन मेरे पिता के अंगरक्षक की पत्नी ने भी एक कन्या को जन्म दिया। हम दोनों बच्चे एक साथ ही बड़े हो रहे थे। धीरे-धीरे हम एक दूसरे से प्रेम करने लगे। हमारे इस प्यार की किसी को ख़बर न थी, लेकिन मैंने मन ही मन सोच लिया था कि मैं अपनी बाल सखी अलका के सिवाय किसी और से शादी नहीं करूँगा।

“जब मेरे पिता की उम्र होने लगी, तब उन्होंने मेरी शादी कर देनी चाही। उन्होंने अपने दूत पड़ोसी राज्य अनंग में भेजें कि वहाँ की राजकुमारी से मेरा विवाह हो जाए। मुझ में इतनी हिम्मत न थी कि मैं अपने प्रेम की बात पिताजी से कह पाता। वह मेरे विवाह की बातचीत करते रहे। लेकिन एक दिन मुझे मजबूर होकर अलका को यह बात बतानी पड़ी कि मेरे विवाह की बात कहीं और चल रही है।

“ मेरे लिए इससे बड़ा कोई और दुर्भाग्य नहीं हो सकता कि मुझे अपनी प्रियतमा को इतना बड़ा दुख देना पड़ा और उसकी पीड़ा देखनी पड़ी। निराश और हताश होकर अलका ने मुझसे सभी सम्बन्ध तोड़ लिए। मैं था भी तो इसी लायक़! 

“उधर मेरे पिताजी मेरे विवाह की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से कर रहे थे। उन्होंने मेरे विवाह मंडप में प्रवेश करने के लिए तीन द्वार बनवाए—एक राज परिवारों के लिए एक सहायिकाओं-दासियों के लिए और एक दास-भृत्यों के प्रवेश के लिए।

“जब मेरा विवाह हो रहा था तब वेदी पर बैठी दुलहन ने मेरी बेचैनी भाँप ली। उसने मुझसे धीरे से कहा, ‘सुनिए यदि आपकी इच्छा मुझे विवाह करने की नहीं है तो मैं अभी ख़ुशी-ख़ुशी बेदी से उठ जाऊँगी।’ मैंने कहा, ‘नहीं, नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, मेरा स्वभाव ही उदासीन-सा है’ और हमारा विवाह हो गया। विवाह होने के लिए बाद जब मैं दरबार में अपनी पत्नी के साथ सिंहासन पर बैठा तब राजद्वार से राजपरिवारों के लोग, परिचारिका द्वार से सेविकायें-दासियाँ और तीसरे द्वार से सेवक-दास पंक्ति-बंद होकर दरबार में आ कर हमें बधाई और उपहार देने लगे। अंत में एक किशोर हाथों में बड़ा-सा फूलों का गुलदस्ता लिए सिंहासन के पास आया। उसने झुक कर अभिवादन किया और फूलों का गुच्छा रानी को देने के लिए उनके पास तक चला गया। पलक झपकते ही उसने फूलों में छुपाया एक ख़ंजर निकाला और मेरे देखते ही देखते रानी के सीने में गहरा घोंप दिया। वह अनुचर अंगरक्षकों द्वारा तुरंत पकड़ लिया गया और मेरे पिता के सामने लाया गया। ज्योंही वह पिताजी के सामने पहुँचा, उसने अपने कपड़ों में से दूसरा ख़ंजर निकाला और अपने सीने में गाड़ लिया। जब उसे बचाने की कोशिश की जाने लगी तब पता चला कि वह पुरुष नहीं बल्कि एक स्त्री थी। मैंने उसके पास जाकर देखा तो तुरंत पहचान गया कि वह तो अलका थी, मेरी प्रिया, मेरी बाल सखी जो अब तक निष्प्राण हो चुकी थी। मैं बहुत दुखी था। मैंने अपने पिता को इस भयंकर घटनाचक्र का कारण बता दिया। 

“कठोर और अनुशासन प्रिय पिता ने जब मेरी कहानी सुनी तो वह क्रोध और क्षोभ से सुलग उठे। उन्होंने मुझे तुरंत एक मीनार में क़ैद करवाकर, उसके ताले की चाबी नदी में फिंकवा दी। मैं उसे क़ैद में केवल तब तक रहा जब तक की एक लंबे मोटे रस्से की सहायता से मीनार से नीचे नहीं सरक आया। मैं न जाने कब तक जंगल में भटकता रहा। अंत में एक बड़े, घने पेड़ के कोटर में भूख प्यास थक होने के कारण बेहोशी की नींद सो गया। कब तक सोया, कितना सोया, मालूम नहीं। एक सुबह को यहाँ के मालिक इन दो पशुपालकों ने मुझे देख लिया और दया करके मुझे यहाँ ले आए। तबसे वे मेरी देखभाल अपने बेटे की तरह कर रहे हैं।”

यह कहानी सुनकर रानी और पुष्प नगर का राजकुमार दोनों समझ गए कि उन दोनों के भाग्य चक्र ने उन्हें कैसे नचाया और मिलाया है। 

अब राजकुमार बोला, “सुनो हमारे दुर्भाग्य के कारण हम दोनों अपने-अपने जीवन साथी खो चुके हैं। क्यों ना हम दोनों विवाह कर लें? और तुम्हारे पिता के राज्य अजबपुर चलें?” 

इस बात के लिए राज़ी हो गई। उसने अपने शरणदाता गड़रियों से दो घोड़ों का प्रबंध करने को कहा, साथ ही अपने राज्य अजबपुर पहुँचने के बाद उन्हें उन्हें उपाधियाँ देने का भी वचन दे दिया। 

घोड़े मिल जाने पर पुष्प नगर के राजकुमार ने अपने साथ रानी के बेटे को भी अपने घोड़े पर बिठा लिया। रानी दूसरे घोड़े पर सवार हो गई। उन्होंने पशुपालकों का हार्दिक आभार प्रकट किया और चल पड़े। 

रास्ता पहाड़ी, सँकरा और ऊबड़-खाबड़ था क्योंकि उधर से कोई आवाजाही नहीं रहती थी। अचानक रानी का घोड़ा डरकर बिदक गया, एक क़दम आगे बढ़ाया तो नीचे की खाई में जा गिरा। यह देखकर राजकुमार का कलेजा फट गया वह बेबस, रानी के बेटे को लेकर अजबपुर की ओर बढ़ता रहा। उसका हृदय रानी के दुर्भाग्य पर रोता रहा। हाय रे भाग्य! 

इधर रानी मरी नहीं थी। जब घोड़ा गिर रहा था तब वह ढाल पर उगे एक पेड़ की डालों के बीच फँसकर वहीं अटक गई थी। चोटें-खरोंचें उसे बहुत आई थीं परन्तु जान बच गई थी। 

होश आने पर उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। पेड़ों के झुरमुट में उसे एक झोपड़ी जैसा कुछ दिखाई दिया। वह उस ओर ही बढ़ चली। पास पहुँचकर उसने कुटिया को साफ़ देखा। हिम्मत करके दरवाज़ा खटखटा दिया। कोई उत्तर न मिला। रानी कुछ देर इधर-उधर घूम कर आसपास देखती रही, फिर उसने वहीं रुकना ठीक समझा और झोंपड़ी के पास ही बैठ गई। जब अँधेरा घिरने लगा तब एक पुरुष जिसके शरीर और सिर के बाल बहुत लंबे-लंबे थे, अपनी पीठ पर मरे हुए जानवर लादे हुए वहाँ आया। रानी को देख कर वह बोला, “तुम यहाँ क्या कर रही हो?” 

“मैं रात गुजा़रने के लिए आसरा खोज रही हूँ,” रानी बोली। 

अब उस लम्बे रोओं और बालों वाले जंगली पुरुष ने द्वार खटकाया और एक स्त्री ने द्वार खोला भी। रानी अँधेरे में ही घर में घुसी। उन दोनों ने रानी को सोने के लिए एक कोना दे दिया। 

सुबह होते ही पुरुष शिकार करने के लिए जंगल में चला गया। 

उजाला होने पर स्त्री शोरबा बनाकर रानी के पास लेकर आई। उसे देखते ही रानी चौंक उठी, “अरे, भानुमति तुम!”

उस स्त्री ने कहा, “हाँ, मैं भानुमती ही हूंँ” यह तो रानी की अपनी निजी परिचारिका थी, जिसे लोमश जंगली पुरुष ने उस पेड़ से बँधा हुआ पाया था, जहाँ लुटेरे उसे छोड़कर गए थे। वह उसे अपने घर ले आया, दिन भर वह घर में बंद रखी जाती थी। शाम को जब जंगली पुरुष आता तो दिन भर के शिकार किए गए जानवर लेकर आता। इन जानवरों की खाल उतारने का काम भानुमती का था। भानुमती ने बड़े दुख के साथ रानी को बताया कि वह जंगली आदमी उस के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता था क्योंकि भानुमती उसे अपने नज़दीक नहीं आने देती थी, ना तो उसके साथ शादी करना चाहती थी। रानी और उसकी प्रिय दासी एक दूसरे से मिलकर बहुत ख़ुश हुईं। दोनों ने अपनी ज़िन्दगी के क़िस्से एक दूसरे को सुना डालें। अब समस्या यह थी कि इस जंगली शिकारी से छुट्टी कैसे पाई जाए? अचानक भानुमती से रानी ने पूछा, “क्या तुम्हारे पास थोड़ी अफ़ीम है?” 

भानुमती ने उत्तर दिया, “हाँ थोड़ी तो मिल सकती है, यह जंगली कभी-कभी उसका भी नशा करता है।” 

अगली रात जब जंगली लौटा तो इन दोनों ने उसकी शराब में चुपके से ख़ूब सारी अफ़ीम मिला दी। जब वह गहरे नशे में बेहोश होकर सो गया तो दोनों स्त्रियों ने मिलकर उसे मार डाला और उसकी लाश। ज़मीन में गड्ढा खोद कर दबा दी। 

उस जंगली शिकारी ने के मुख से भानुमाती ने कई बार एक ऐसे गुप्त दर्रे की बात सुनी थी जो सीधा अजबपुर को जाता था। दोनों ने चलते-चलते उस दर्रे को खोज निकाला और वे जल्दी ही रानी के पिता के राज्य अजबपुर पहुँच गईं। 

अजबपुर के लोग जिस राजकुमारी की मौत की बात दो बार सुन चुके थे, उसको साक्षात्‌ जीता-जागता देखकर बहुत प्रसन्न हुए। सारे शहर में आनंद की लहर दौड़ गई जगह-जगह उत्सव समारोह मनाए जाने लगे। राजकुमारी के माता-पिता का तो आनंद सातवें आसमान पर था। 

राजकुमारी के पिता पुष्प नगर के राजकुमार के साथ जो, राजकुमारी पुत्र के साथ पहले ही यहाँ पहुँच चुका था, करने को राज़ी हो गए। परन्तु इस विवाह से पहले वह झिंझिंनापुरी में राज्य कर रहे दो विश्वासघाती भाइयों को सबक़ सिखाना चाहते थे, जिन्होंने उनकी बेटी और दामाद की हत्या का षडयंत्र रचा था। 

उन्होंने अपने प्रस्ताव के साथ दूतों को पुष्पनगर भेजा। उत्तर में पुष्प नगर के राजा ने दूतों के साथ एक बड़ी सेना उनकी सहायता के लिए भेज दी। युद्ध में जाने से पहले अजबपुर और पुष्प नगर के सेनानायक राजकुमारी के पिता के सामने अपनी निष्ठा दिखाने के लिए दरबार में उपस्थित हुए। सिंहासन के बग़ल में वाग्दत्त जोड़ा, पुष्प नगर का राजकुमार और अजबपुर की राजकुमारी, खड़े थे। अजबपुर के सेना नायक के बाद राजा का अभिवादन करने की बारी पुष्पनगर के सेनानायक की थी। तभी एक विचित्र घटना हो गई-राजकुमारी लड़खड़ाती हुई पुष्प नगर के सेनानायक की ओर बढ़ी, उसके गले में बाँहें डाली उसे चूमा और फिर सेनानायक और राजकुमारी दोनों अचेत होकर गिर पड़े। 

कुछ उपचार के बाद जब दोनों को होश आया, तो मालूम हुआ कि पुष्प नगर का सेनानायक और कोई नहीं झिंझिनापुरी का वह राजा था, जिसे उसके दो छोटे भाइयों ने महल की आग में जलाकर मार डालने की कोशिश की थी। उस समय राजा अपने एक विश्वासपात्र सेवक की सहायता से बच निकला था और छद्मनाम से पुष्प नगर की सेना में भर्ती हो गया था। युद्ध कला में कुशल होने के कारण वह शीघ्र ही नायक के पद तक भी पहुँच गया था। अब अजबपुर की राजकुमारी ने पुष्प नगर के राजकुमार से कहा “आप देख रहे हैं मेरे पति जीवित हैं, मैं आपसे विवाह नहीं कर सकती। लेकिन मेरी प्रधान सेविका भानुमती रूपवती, गुणवती और सिंहगढ़ के राज परिवार से है। वह आपकी पत्नी होने योग्य है। यदि आप चाहें तो उससे आपका विवाह हो सकता है।” राजकुमार इस सम्बन्ध के लिए तैयार हो गया। पुष्प नगर के राजा के पास संदेश भेजा गया कि उनका सेना-नायक अचानक बीमार पड़ गया है। राजा आए, यहाँ जब उन्होंने अपने उस बेटे को सही सलामत पाया जिसे वह ग़ायब हुआ मान चुके थे, तब उनकी प्रसन्नता का परावार न रहा। इस ख़ुशी के साथ ही उन्हें यह पछतावा भी हुआ कि अपने ही बेटे को मीनार में क़ैद किए जाने की सज़ा उन्होंने ही दी थी। 

झिंझिनापुरी पर हमला किया गया, दोनों विद्रोही षड्यंत्रकारी भाइयों को युद्ध में ही मार डाला गया। 

झिंझिनापुरी का राज्य अब बड़े भाई के हाथ में आ गया था। वह फिर से राजा हुआ और उसका बेटा युवराज भी घोषित हुआ। भानुमती का विवाह पुष्प नगर के राजकुमार के साथ हो गया। 

सबके दुर्भाग्य की अवधि पूरी हो गई थी, भाग्य ने करवट बदल ली थी। 

जैसे इन सब के दिन बहुरे, सबके बहुरें, ईश्वर सबका भला करें॥

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