वधू-प्रवेश
सरोजिनी पाण्डेयपिछली रात ही परिणय सूत्र में बँधी कुसुम, अपने नए नवेले, दूल्हा बने पति नरेश के साथ, ससुराल के घर के मुख्यद्वार के सामने कार में बैठी थी। उसकी चूनर का छोर अभी पति के पटके (कमर में बाँधा जाने वाला पुरुषों का दुपट्टा) के साथ विवाह सूचक सौभाग्य ग्रंथि से बँधा था। घर में वधू-प्रवेश की गहमागहमी थी, अभी उस शुभ मुहूर्त के आने में कुछ समय बाक़ी था। विवाह के कई दिनों पहले से चलने वाले उत्सवों की थकान, सजावटी भारी कपड़ों-गहने, उसपर मई के महीने की गर्मी, इन सब को मिलाकर कुसुम परेशान हो रही थी। साथ बैठे नरेश ने उसकी परेशानी को समझ लिया पर करता क्या? रूढ़िवादी उसके परिवार में बिना शुभ मुहूर्त के कुसुम को गाड़ी से उतारना सम्भव न था। उसने हाथ बढ़ा कर अपना और कुसुम की तरफ़ का कार का दरवाज़ा खोल दिया, कुछ हवा आई तो आराम मिला।
घर के अंदर से उत्साह और आनंद भरे स्त्री-बच्चों के स्वर सुनाई दे रहे थे, नरेश की माँ को तीन बेटियाँ विदा करने के बाद अब एक बहू उतारने का मौक़ा जो मिला था! तीन बेटियों को दिए गए दहेज़ की लगभग भरपाई कुसुम के अमीर पिता ने नरेश जैसा सुयोग्य दामाद पाने के लिए कर दी थी। घर के अंदर से आने वाली आवाज़ों में नरेश की दादी का स्वर शायद सबसे ऊँचा था, जो अपने इकलौते बेटे के इकलौते बेटे की, अपनी पौत्र वधू घर में देखने वाली थीं।
नरेश और कुसुम कार में चुपचाप बैठे उस शुभ घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब सारे विधि-विधान के साथ नई बहू का स्वागत करके उसे परिवार में अपनाया जाएगा। तभी नरेश ने देखा कि उसकी सबसे छोटी बहन बिन्नी सजी-सँवरी, अपनी छह महीने की छोटी बिटिया को गोद में लिए घर से बाहर आ रही है। नरेश ने आवाज़ देकर बिन्नी को बुला लिया और उसकी गोद से अपनी गुलगोथनी-सी भाँजी को हाथों में लेकर दुलराने लगा। शुभ घड़ी की प्रतीक्षा में थकान, गर्मी, पसीने से व्याकुल कुसुम का भी मन उस प्यारी बच्ची को देख आनंद से भर गया। उसने धीरे से बच्ची को नरेश के हाथों से ले लिया और अपनी गोदी में बिठा कर पुचकारने लगी वह बच्ची को पुचकार रही थी और नई-नई माँ बनी बिन्नी अपनी नई भाभी को अपनी दुलारी बिटिया की ‘शिशु कलाओं’ के बारे में बड़े गर्व से बता रही थी।
तभी वधू प्रवेश की शुभ घड़ी आने का संकेत देता हुआ शंख का स्वर गूँज उठा। घर का मुख्य द्वार जो भत्तिचित्र, रंगोली और फूल मालाओं से सजा था, वहाँ आरती की थाली लिए नरेश की माताजी खड़ी थीं। परिवार की स्त्रियाँ-बच्चे उत्सुकता से नई दुलहन के घर में आने की राह देख रहे थे, कुछ स्त्रियाँ मंगलगीत गाने में मगन थीं, चौखट के पास हल्दी रोली मिले पानी से भरी थाली रखी थी। नरेश की माँ के पीछे दादी जी कशीदाकारी वाली सफ़ेद रेशमी साड़ी पहने, हाथ में छड़ी लिए सभी क्रियाओं का निर्देशन, संपादन, और निरीक्षण कर रही थीं। वधू का स्वागत कर उसके गृह प्रवेश की पूरी तैयारी हो चुकी थी। दादी का निर्देश आया, “नरेश दुलहिन का बायाँ हाथ पकड़कर उसे उतारो, उसके साथ जुड़ी गाँठ के साथ आगे-आगे चलते हुए द्वार तक आओ।”
दादी का स्वर सुनकर बिन्नी ने झुक कर अपनी नई भाभी की गोद से अपनी बेटी को उठा लिया। कार पर दृष्टि गड़ाए खड़ी दादी ने उसे ऐसा करते हुए देख लिया। सहसा, मानो उनकी ख़ुशियों पर वज्रपात हो गया, उनका विक्षोभ से भरा स्वर कुसुम के कानों में पड़ा, “हे राम, सत्यानाशी बिन्नी! क्या तेरी मति मारी गई है, अभी तो घर में बहू ने प्रवेश भी नहीं किया और तूने उसकी गोद में लड़की दे दी है। उसकी गोद में लड़का देना था! लगता है अब यह भी तेरी माँ की तरह पहले बेटियाँ ही जनेगी और मैं बिना परपोते का मुँह देखे सिधार जाऊँगी! हे कृष्ण, मेरा तो परलोक बनने से पहले ही बिगड़ गया!”
कुसुम कुछ पल के लिए जड़ हो गई, यह कैसा स्वागत? यह कैसा वधू-प्रवेश?
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