वृक्ष और मैं

15-12-2021

वृक्ष और मैं

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 195, दिसंबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

भारतीय संस्कृति में वृक्षों का विशेष महत्त्व है, हो भी क्यों न, मानवता के विकास में वृक्षों का योगदान नकारा नहीं जा सकता और भारतवर्ष की सभ्यता प्राचीन सभ्यताओं में से एक है। 

मेरे पिता खेतिहर परिवार के थे और स्वभाव से प्रकृति प्रेमी। आजीविका के लिए वे राज्य सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था में अधिकारी थे, परंतु अपना प्रकृति-प्रेम वह कभी न छोड़ पाए। जो सरकारी आवास उनको मिलते उनके आसपास की खुली ज़मीन में पुष्प-वाटिका बनाना और सब्ज़ी-तरकारी उगाना उनका शौक़ हमेशा रहा, जिसमें वह अपने हाथों से कार्य करते थे। हम बच्चों का परिचय वे भिन्न-भिन्न फल-तरकारियों, अनाजों से करवाते रहते। रेलगाड़ी से यात्रा करते समय दूर से दिखाई पड़ने वाले पेड़ों को आकृति से पहचानना सिखाते, धान और गेहूँ की फ़सल में अंतर करना सिखाते, ज्वार-बाजरे की फ़सल की बालियों को देखकर उनकी पहचान करना सिखाते आदि-आदि। उनकी बताई बातें आज भी जब याद आती हैं तो हृदय आनंद से भर आता है। 

उन्होंने भारत देश के वृक्षों से जो मेरा परिचय करवाया उसके अनुसार मेरे हृदय में हर वृक्ष का एक चरित्र अंकित हो गया है। आज भी वृक्ष मेरे लिए मात्र 'पेड़' नहीं एक विशिष्ट व्यक्तित्व के स्वामी हैं! 

शायद नीम के पेड़ से ही व्यक्ति के रूप में मेरा पहला परिचय हुआ था। गाँव के घर के सामने ही नीम का पेड़ बड़ा सा पेड़ था। नीम की पतली टहनी को दातुन बनाकर दाँत साफ़ करना भी संभवत चार-पाँच वर्ष की आयु में आरंभ हो गया था। नीम के कोंपल की तरकारी बसंत ऋतु में सारे परिवार को खानी पड़ती थी। उसकी कड़वाहट के कारण खाने से मना करने या मुँह बिचकाने पर कड़वी सब्ज़ी के साथ पिता की डाँट भी खानी पड़ती थी, 'कड़वी औषध बिन पिए मिटै न तन को ताप' के साथ उपदेश भी सुनना पड़ता। छुट्टियों में गाँव जाते तो गाँव के बाहर ही नीम के तने को घेरकर बने गोल चबूतरे पर 'भवानी माई का थान' दिखाई पड़ता, जहाँ तरह-तरह के मिट्टी के बने सुंदर घोड़े, हाथी, बैल इत्यादि दिखाई पड़ते। कभी-कभी स्त्री-पुरुषों का दल भी दिखाई पड़ता जो भवानी माई की पूजा करने के लिए आए होते। भोग बन रहा होता। 

गर्मी के मौसम में जब शरीर घमौरियों से भर जाता तो नीम के पत्ते पानी में उबालकर उससे नहलाया जाता और दो-तीन दिन में दाने साफ़ भी हो जाते। बरसाती फोड़े-फुँसी से राहत के लिए नीम की छाल जलाकर उस राख को तेल में मिलाकर, फुँसियों में लगाया जाता। छोटे भाई का मुंडन हुआ तो मालूम हुआ कि उसके सिर की खाल पर रूसी के चकत्ते भरे हुए हैं। बेचारे के सिर पर रोज़ ही नीम के पत्ते पीसकर उसका लेप लगाया जाता। उस समय उस बालक पर बड़ी दया आती परंतु इलाज मुफ़ीद था। 

इन सब बातों के कारण नीम का वृक्ष मेरे मन में सदैव के लिए चिकित्सक के व्यक्तित्व का स्वामी हो गया, जो अत्यावश्यक तो है परंतु साथ ही अप्रिय और भयकारी भी! 

आज भी जब चमकती पत्तियों वाले हरे-भरे नीम के वृक्ष को देखती हूँ तो मन ही मन सफ़ेद कोट पहने गले में आला लटकाये चिकित्सक से उसकी तुलना कर बैठती हूँ, जो तन और मन दोनों का इलाज कर सकता है। 

नीम की सहृदयता के बारे में माँ का तो यहाँ तक कहना था कि कभी-कभी नीम के वृक्ष से रस स्राव होता है और उस वर्ष कोई महामारी जैसे चेचक प्लेग, हैजा आदि होने की आशंका होती है। यह स्राव वास्तव में नीम के आँसू होते हैं, तो नीम का वृक्ष मेरे लिए सहृदय दयालु और पीड़ाहारी चिकित्सक के व्यक्तित्व वाला वृक्ष है तो क्या कोई अचरज है? 

आम का वृक्ष मुझे सदैव अपने मित्र जैसा ही लगा। यह वृक्ष अपने बौरों के बीच कोयल को आश्रय देता है, जो मीठे गीत गाती है। जिसके बोलने की नक़ल हम बचपन में करते और आनंदित होते थे। कच्ची अमियों को मित्रों के साथ नमक-मिर्च के साथ चटकारे लेकर जिसने नहीं खाया, उसने अपने बचपन का मज़ा क्या ख़ाक उठाया! गर्मी की छुट्टी को आनंद में बनाने का सारा श्रेय तो इसी रसाल वृक्ष को ही जाता है, जिसका नाम ही 'रसाल' हो उसके रसमय होने में भला संदेह कैसा! यहाँ तक कि जिस दिन आम के पेड़ के नीचे से सूखी लकड़ियाँ बीन कर लाने का आदेश घर के बड़ों से मिलता तो समझ में आ जाता कि आज घर में हवन-पूजा होगी और खाने को स्वादिष्ट प्रसाद और भोजन मिलेगा। अब भला आप ही बताइए उल्टी सुराही के आकार के दिखाई पड़ने वाले, सैकड़ों क़िस्मों वाले, इस वृक्ष को मित्र ना समझूँ तो और क्या समझूँ? जो सदा आपको आनंद ही आनंद देने को तत्पर हो वह मित्र के अतिरिक्त और हो भी क्या सकता है! 

मेरे गाँव का पुराना पीपल का पेड़ मुझे सदैव एक संन्यासी के समान लगा, जो गाँव के पास बहने वाली छोटी सी नदी, 'आमी', के किनारे खड़ा था। वही पीपल का पेड़ पहला पीपल का पेड़ था जिससे मेरा परिचय पिता ने करवाया। इसी इसी वृक्ष के पास एक छोटा-सा मंदिर था, जो पूरे गाँव में सफ़ेद चूने से पुताई किया हुआ 'पक्का' भवन था, अन्य सभी घर खपरैल अथवा फूस की छाजन वाले थे। इस भवन और पीपल के सफ़ेदी लिए हुए तने के कारण शायद मेरे मन ने उसमें पवित्रता का भाव मान लिया। गाँव से बाहर नदी के किनारे एकांत के कारण भी उसके एकाकी तपस्वी होने का भाव मन में उदय हुआ होगा। शायद किंवदंती ही हो, परंतु बाद में सुना कि पीपल के पत्ते सबसे अधिक ऑक्सीजन देते हैं, तो संन्यासी वाली छवि और अधिक गहरी हो गई। सच्चे संन्यासी का हृदय तो सदैव पवित्र और सेवा भाव से ओतप्रोत होता है! 

मेरे जन्म से वर्षों पूर्व ही मेरे नाना-नानी और दादा-दादी जी का देहांत हो चुका था। जब मेरा परिचय बरगद के वृक्ष से हुआ तो उसके सुदीर्घ तने और उसकी जटाओं के कारण वह मुझे अपने पूर्वज जैसा लगा। दूर-दूर तक फैल कर छाया देता, जगह-जगह अपनी जड़ें जमाता यह वृक्ष आज भी मुझे केवल अपना ही नहीं, संपूर्ण मानवता का पूर्वज जैसा लगता है। अब तक के जीवन में एकड़ों में फैले कई वटवृक्ष देख लिए हैं जो मेरी इस धारणा को निरंतर पुष्ट करते जाते हैं। 

बचपन में हम एक पहेली बूझते और बुझाते थे—

"एक संदूक काँटों से जड़ी
जब खोलो तो सोने की कली"

इसका उत्तर होता कटहल, कटहल की तरकारी बहुत स्वादिष्ट लगती है और कटहल के मीठे-मीठे कोए लोगों को ख़ूब पसंद आते हैं। इस फल को देने वाले वृक्ष को जब पहचानना सीखा तो एक धनवान राजा के प्रभावशाली व्यक्तित्व के अतिरिक्त कोई अन्य कल्पना मेरे मन में न आई। थोड़ी गोलाई लिए हुए चमकदार, चिकने पत्ते, तने से लटकते छोटे-बड़े सैकड़ों काँटेदार संदूक, जिनमें भरे हुए गोल-गोल सोने-चांदी के सिक्के जिनकी सुरक्षा का भार इन काँटों के ऊपर रहता! तो भला ऐसे ख़जाने वाले संदूकों का स्वामी राजा के सिवा और कौन हो सकता है? आप ही बताइए कटहल के वृक्ष की तुलना राजा से करना कहीं भी अतर्कसंगत है? 

एक और वृक्ष जो मुझे बचपन से बहुत ही आकर्षित करता था वह है, महुआ, संस्कृत में मधूक। मेरे गाँव के आसपास यह वृक्ष बहुतायत से पाया जाता था। आमी नदी के एक तट पर गाँव की आबादी थी और दूसरे तट पर महुआ के वृक्षों के बड़े-बड़े बाग़। बचपन में यह वृक्ष मुझे 'विवाह के मौसम का पेड़' लगता था क्योंकि वसंत ऋतु के आसपास उन दिनों शादी विवाह का मौसम शुरू होता था। खेती के व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए गर्मी का मौसम उत्सव और विवाह आदि के लिए अधिक उपयुक्त होता है क्योंकि कृषिकार्य अधिक नहीं रहता। उन्हीं दिनों में महुए के चटक पीले रंग के फूल टपकते हैं, जो स्वाद में मीठे होते हैं और जिनके किण्वन से मदिरा भी बनती है। इन पीले फूलों का रंग मुझे नववधू की चुनरी जैसा लगता और मदिरा का नाम तो आनंद से सम्बन्धित है ही। इसी के पत्ते में लपेटकर पनवाड़ी उन दिनों पान का बीड़ा दिया करते थे। पान बाल्यकाल में केवल शादी के उत्सव से ही जुड़ा था, आगे-पीछे इसे खाने की अनुमति न थी। मदिरा का आनंद (बड़ों के लिए ), पीली चुनर का रंग और पान से लाल मुँह और ज़ुबान सब मिलाकर इसे शादी वाला पेड़ बना देते थे। थोड़ी बड़ी हुई तो पुरोहित जी ने बताया कि पूजा में महुआ के पत्तों का प्रयोग वर्जित है क्योंकि इसके फूल से शराब बनती है। उस बाल्यावस्था में तो मन ने इस तर्क को मान लिया पर अब सोचती हूँ कि चावल, गन्ने, जौ आदि से भी तो मदिरा बनती है फिर इन वस्तुओं को पूजा में क्यों प्रयोग किया जाता है? 

छोड़िए इस तर्क–वितर्क को, मैं तो बात कर रही हूँ पेड़ों की और वह भी महुआ की! तो पाठको, आम के पेड़ों की होती है 'अमराई' और महुआ की होती है ’महुआरी’! लोकगीतों में यदि ’अमवा की डाली बोले काली कोयलिया’ तो ’सासु की बीनी डलरिया हो, महुआ बीने जाऊँ’ भी गाते हैं, दोनों ही बसंत में फूलते-बौराते हैं और दोनों ही मेरे बचपन के साथी कहलाते हैं। 

गर्मी में ही में ही फल देने वाला एक और वृक्ष है ’जामुन’, जो मेरा बचपन का साथी है। बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण ने जब गाँव को छोटा करना शुरू किया तो इस वृक्ष की आबादी पर भी संकट छा गया। आम की फ़सल के आस-पास ही इसकी फ़सल तैयार होती है। इसके पके फल ज़मीन पर गिर कर फट जाते हैं। इन फलों का स्वाद लेने के लिए सामूहिक प्रयास करना पड़ता था, दो-तीन बच्चे कोई चादर या बड़ा कपड़ा फैला कर उसके कोने पकड़कर, पेड़ के नीचे खड़े हो जाते, दो बच्चे पेड़ पर चढ़कर डाल को हिलाते, पक्के, रसीले, गहरे जामुनी फल चादर में टपा-टप गिर पड़ते, तब जाकर हम पक्के रसीले जामुनों का स्वाद ले पाते। हमारे गाँव में नदी के तट पर इसकी झाड़ियाँ होती थीं, नीम की कड़वी दातुन ना करनी पड़े इस कारण हम बच्चे जामुन की टहनी को दाँतों से कुचलकर कूँची बनाते और दाँत साफ़ कर लेते। एक अजब कसैला खट्टा सा स्वाद मुँह में भर जाता और बड़ी देर तक मुँह बकबका-सा बना रहता, पर नीम की कड़वाहट से तो बच निकलते थे हम! बचपन में जब सुनती गंगा जी का पानी सफ़ेद और जमुना जी का नीला है तो जामुन के बैंजनी फल और जमुना जी में गहरा सम्बन्ध लगता। परंतु यह राज़ कभी समझ में नहीं आया कि जामुन का नाम पहले पड़ा या जमुना जी का! बाद में कभी बड़ी होने पर जब जमुना जी के दर्शन हुए तब इतनी बुद्धि आ चुकी थी कि नदी के पानी को नीला न देखकर निराशा होती, पर जामुन खाने के बाद ज़ुबान का नीला रंग आज भी मन में कौतुक जगाता है और एक आध बार दर्पण के आगे जीभ निकालकर देखने को विवश कर ही देता है। 

पंचतंत्र की कथाओं ने तो जामुन के पेड़ को अमर कर दिया है। शहरीकरण और औद्योगीकरण भी जामुन से उसकी अमरता नहीं छीन सकते, भला किस बच्चे को वह चालाक बंदर याद नहीं रहेगा जो अपना 'कलेजा' जामुन के पेड़ पर छोड़ आया था? और अब, आजकल की जीवन-शैली की बीमारियों में एक प्रमुख बीमारी मधुमेह है, जिसका इलाज इसी प्राचीन जामुन के फल की गुठलियों में माना जाता है। 

यों तो और भी अनेक वृक्ष है जिन से मेरा परिचय और मित्रता बचपन से ही है, परंतु इस समय इन सातों से ही आपका परिचय (शायद दोस्ती भी ) करवा रही हूँ। यदि आपको प्रिय लगे तो फिर अपने अन्य मित्रों-वनस्पतियों से आपको मिलवाऊँगी, तब तक के लिए आज्ञा दें! 

1 टिप्पणियाँ

  • 10 Dec, 2021 09:56 AM

    वाह । वृक्ष संपदा पर आपकी लेखनी अद्भुत और रोचक । बहुत सुंदर । बहुत बधाई आपको । सच आज भी जामुन खाकर जब तक जीभ देख न लें चैन नहीं पड़ता ।बहुत सुंदर ।

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