मैं धरा दारुका वन की
सरोजिनी पाण्डेय(द्वारिका धाम:
भारत की जनता को एकजुट करने के लिए आदि शंकराचार्य ने देश की चार दिशाओं में चार मठ स्थापित कर, उन्हें धामों का नाम दिया। वे हैं—पूर्व में जगन्नाथ पुरी, दक्षिण में रामेश्वरम्, पश्चिम में द्वारिका और उत्तर में बद्रीनाथ धाम। सनातन हिंदू धर्मावलंबियों की यह इच्छा होती है कि जीवनयात्रा पूर्ण होने से पहले इन चार धामों की यात्रा कर पाएँ। धार्मिक दृष्टि या मोक्ष की इच्छा से ही न सही अपितु अपने देश की विविधता और सुंदरता का अनुभव करने की दृष्टि से भी यह एक अति उत्तम संकल्पना रही है।
मैंने भी इन चार धामों की यात्रा की है। उस दौरान जब हम द्वारिका दर्शन को गए, तब मालूम हुआ कि द्वारिका धाम में जल का दान सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि उस क्षेत्र में धरती के नीचे जल नहीं है, केवल कंटीली, मरुस्थल में पाई जाने वाली वनस्पतियाँ वहाँ उगती हैं। द्वारकाधीश का मंदिर और श्री कृष्ण का आवास जो 'बेट द्वारिका' कहलाता है, देखा। साथ ही रुक्मिणी का मंदिर भी देखा। इन स्थितियों पर आधारित, एक दंतकथा, वहाँ के पंडे यात्रियों को सुनाते हैं। उसी दंतकथा पर आधारित एक कविता लिखी है। इस कविता का आनंद लें और अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएँ)
मैं धरा दारुका वन की
द्वापर युग में मैं सुनती थी
मानव बनकर हैं प्रभु आए,
एक दिन मैंने यह बात सुनी
द्वारिका नगर माधव आए
अपने संग यादव कुल लाए
छोड़ी नगरी वृंदावन की,
मैं धरा दारुका वन की
मैं धन्य हुई, हर्षित-पुलकित
सजला-सफला धन-धान्य हरित
बन चली द्वारिका सोने की
मैं धरा दारुका वन की
फिर केशव ने रुक्मणी को हरा,
मग में दुर्वासा क्षेत्र पड़ा
माधव ने संग चलने को कहा
मन में थी चाहती आशीषों की।
मैं धरा दारुका वन की
दुर्वासा मुनि थे अति क्रोधी
संग चलने की इक शर्त कही
"इस रथ को तुम दोनों खींचो
है नहीं ज़रूरत घोड़ों की"
मैं धरा दारुका वन की
माधव ने मुनि का मान किया
आज्ञा को उनकी शीश लिया
हय बनकर रथ को खींच चले
जिस तरफ़ द्वारिका नगरी थी
मैं धरा दारुका वन की
रुक्मिणी कोमल सुकुमारी थी,
आख़िर वह राजकुमारी थी!
श्रम से व्याकुल वह व्यथित हुई
कर उठी माँग शीतल जल की
मैं धरा दारुका वन की
लख रुक्मिणि की यह करुण दशा
माधव श्री का मन भर आया
मुझ पर कर डाला नख प्रहार
फूटी धारा शीतल जल की
मैं धरा दारुका वन की
केशव जल अंजलि में भरकर
रुक्मिणी के मुख तक ले आए
जल पीकर भामिनी तृप्त हुई
बन गई बंदिनी प्रियतम की
मैं धरा दारुका वन की
मनमोहन का यह कृत्य देख
मुनि की क्रोधाग्नि भड़क गई
मन-जिह्वा से संयम छूटा
मुख से कठोर वाणी कड़की
मैं धरा दारुका वन की
बोले, "मेरा अपमान हुआ,
तुमसे यह पाप महान हुआ
केशव! मैं अतिथि तुम्हारा था
जल मुझको अर्पित करने का
पहला कर्तव्य तुम्हारा था,
जिसको पा, मुझको भूल गए
ना उसे संग रख पाओगे
यदि उसे निकट रक्खा तुमने
द्वारिकापुरी को गँवाओगे,
जिस धरती से यह जल फूटा
वह भी बंध्या हो जाएगी
ना तरु होंगे ना खेत कोई
यह अन्न नहीं उपजाएगी
प्यासों को ना दे पाएगी
एक बूँद कभी मीठे जल की।"
मैं धरा दारुका वन की
यह सुनकर मैं स्तब्ध हुई
ऋषिवर ने यह क्या कर डाला?
अपराध हुआ था केशव से
रुक्मणी को दंडित कर डाला?
प्रेमिका गई थी मोहन की
मैं धरा दारुका वन की
वे तो बचपन से रसिया थे
रुक्मिणि थी भोली, एकनिष्ठ,
उसके तो केवल केशव थे !
थे विवश द्वारिका वासी भी
सहने को यह अन्याय विकट
यह सोच-सोच फटा था उर
मुझको न रही सुधि तन -मन की
मैं धरा दारुका वन की
"हे ऋषि! तुम मत गर्वित होना
यह बंजर तन, तव श्राप नहीं
मेरी पीड़ा की तेजी है,
जो धधक रही है ज्वाला-सी
यह ज्वाला सुखा रही प्रतिपल
तरलाई मेरे अंतर की
मैं धरा दारुका वन की
युग बीत गया है द्वापर का
पर अब तक सब वैसा ही है
निर्दोष सिद्ध होने पर भी
नारी लाँछित-अवमानित है
अब तक समाज ना दे पाया
नारी को जगह सही उसकी,
मैं धरा दारुका वन की
मेरे उर की दहकी ज्वाला
तो शांत तभी हो पाएगी
जब जन -मन दुखी नहीं होगा,
नारी न सताई जायेगी
जब होगा हिय-संताप दूर
विश्रांति हृदय में आएगी,
अंतर्मन से एक स्नेह सरित
ऊपर के तल तक आएगी
मृदजल की धार बहेगी तब,
चहुँ दिशि हरियाली छाएगी,
उर्वर उस दिन हो जाएगी
बंजर धरती दारुक वन की
मैं धरा दारुका वन की॥
सरोजिनी पाण्डेय्
4 टिप्पणियाँ
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अति सुंदर रचना सरोजनी भाभी जी आपने तो सारा वृतांत बहुत ही सुंदर शब्दो में कविता के माध्यम से बतादिया।
-
खोज परक... उत्तम
-
सरोजिनी पांडेय जी पिछली टिप्पणी में आपका नाम ग़लत लिखा था । क्षमा प्रार्थी हूँ ।
-
वाह सरिता जी पहले तो बधाई । बहुत ही सुंदर । नई बात जानने को मिली । वैसे तो हरि कथा और हरिनाम अमृत तुल्य है सर्वकाल सर्वावस्था में आनंद प्रदाता है लेकिन आपकी कविता ने नए राज खोले । द्वारिका तो हम भी गए लेकिन यह जल दान की जानकारी नहीं थी । बहुत बधाई आपको और आपकी लेखनी को नमन।
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