काठ की कुसुम कुमारी

15-01-2023

काठ की कुसुम कुमारी

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 221, जनवरी द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

मूल कहानी: मारिया डी लाग्नो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (वुडेन मारिया); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय


प्रिय पाठक, 

मनुष्य की अस्वस्थता दो प्रकार की होती है—शारीरिक और मानसिक। शारीरिक अस्वस्थता का निदान और चिकित्सा का इतिहास तो मानव की सभ्यता के इतिहास जितना ही पुराना होगा, परन्तु मानसिक विकारों को आज तक हम सहजता से स्वीकार नहीं कर पाए हैं। हमारी पौराणिक कथाओं में ब्रह्मा का अपनी पुत्री सरस्वती पर मोहित होना मानसिक विकार का द्योतक है, तो ग्रीक कथाओं में ईडिपस और इलेक्ट्रा के उदाहरण हैं। आज जो लोक कथा मैं आपके लिए लाई हूँ उसमें भी इसी प्रकार के मानसिक विकार का उदाहरण दिखाई पड़ता है, जो हमें इस प्रकार के विकार इसकी प्राचीनता और सार्वभौमिकता बताती है। आज के युग में मानसिक विकारों को सहजता से, रोग की भाँति स्वीकार कर उनकी चिकित्सा करवाने की आवश्यकता है। ख़ैर, कथा का आनंद लीजिए:

 

बहुत पुरानी बात है, एक राजा था और एक रानी और थी उनकी एक बेटी, पंखुड़ी-सी कोमल और फूलों सी सुंदर-नाम रखा गया था—कुसुम कुमारी। जब कुसुम कुमारी पंद्रह वर्ष की हुई तो अचानक रानी, कुसुम कुमारी की माता, इतनी बीमार हुई कि मृत्युशैया तक पहुँच गई। राजा-रानी का प्यार गहरा था। मरणासन्न रानी को अपने एकनिष्ठ प्रेम का विश्वास दिलाने के लिए राजा अक़्सर उसके पास बने रहते। जब पत्नी की अवस्था अधिक ख़राब हो गई तो एक दिन उन्होंने ने, मरणासन्न पत्नी के पास बैठकर क़सम खाते हुए कहा कि वह कभी दूसरा विवाह नहीं करेंगे और केवल उसी के होकर रहेंगे। परन्तु रानी को मरते हुए भी सांसारिकता का ज्ञान था, उसने राजा से कहा, “मेरे स्वामी, आपकी निष्ठा पर मुझे गर्व है, लेकिन अभी आप जवान हैं। आपके सामने लंबा जीवन और बड़ा करने, पालने के लिए एक बेटी है। बेटी को माँ की ज़रूरत रहेगी और आपको एक साथी की। मैं यह एक अँगूठीआपको दे रही हूँँ, जिस स्त्री की अंगुली में यह पूरी-पूरी आ जाए, आप उसी से विवाह कर लीजिएगा। आप और बेटी दोनों सुखी रहेंगे।” रानी इसके बाद अधिक दिनों तक जीवित न रही। 

रानी के अंतिम संस्कार के सारे कर्मकांड, रीति-रिवाज़ पूरे हो जाने के बाद रानी के कहे अनुसार राजा ने अपने लिए पत्नी की खोज आरंभ की। विवाह के लिए उत्सुक स्त्रियों का ताँता लग गया। परन्तु संयोग की बात कि बहुतों की उँगली में अँगूठी घुसी ही नहीं और बाक़ी जिनकी उँगली में घुसी, तो टिकी ही नहीं, हाथ हिलाते ही तुरंत सरक कर निकल गई। कुछ दिनों तक तो तलाश चलती रही पर कुछ समय बाद राजा ने थक कर तलाश बंद कर दी। उसने सोचा-इसका मतलब यही है कि अभी मुझे दूसरा विवाह नहीं करना चाहिए तो अब यह खोज इस समय के लिए बंद कर दी जाए। खोज बंद हो गई और अँगूठी सँभाल कर सुरक्षित स्थान पर रख दी गई। 

थोड़ा समय बीत गया। सयानी होती हुई राजकुमारी घर गृहस्थी में रुचि लेने लगी। एक दिन अलमारियों की देखभाल करते समय, गहनों की पिटारी में, उसे अपनी माँ की वही अँगूठी दिखाई पड़ी। उसने अँगूठी अपनी उँगली में पहननी चाही तो बड़े आराम से वह उसकी उँगली में आ गई। अब वह उसे उतारने लगी, लेकिन अँगूठी उसकी उँगली में ऐसी फँसी कि लाख कोशिश करने पर भी नहीं निकली। बेचारी कुसुम कुमारी परेशान हो गई। वह सोचने लगी कि अब मैं क्या करूँ? पिताजी क्या कहेंगे? घबराहट से उसका बुरा हाल हो गया, अँगूठी छिपाने के लिए उसने अपनी उस उँगली पर कपड़े की पट्टी बाँध ली। एक दिन जब पिता की नज़र बेटी की उँगली पर पड़ी तो उन्होंने पूछा, “बेटी अंगुली में क्या हुआ?” 

कुसुम कुमारी ने उत्तर दिया, “कुछ नहीं पिताजी, थोड़ी सी चोट लगी है, कुछ दिनों में ठीक हो जाएगी।” 

कुछ दिन और बीत गए। अँगूठी को नहीं उतरना था, तो नहीं उतरी, कुसुम कुमारी की उँगली पर पट्टी बँधी रही। 

एक दिन फिर पिता ने उँगली पर पट्टी को देखकर बेटी से कहा, “अरे, अभी तक चोट ठीक नहीं हुई? लाओ ज़रा देखूँ तो!” और जब पट्टी खोल कर देखी तो अंगुली में अपनी मृत पत्नी की अँगूठी देखते ही बोल उठे, “प्यारी कुसुम कुमारी, तुम्हें तो मेरी पत्नी बनना है!” इस तरह की विचित्र बात सुनकर कुसुम कुमारी हैरान, परेशान हो गई। पिता की नज़रों से छुपने के लिए पिता के सामने से भागकर अपनी दाई माँ की गोदी में जा गिरी। सारी कहानी सुनने के बाद दाई माँ ने उसे समझाते हुए कहा, “प्यारी बेटी, राजा के पास हर तरह का बल है। तुम उसकी इच्छा से बच नहीं पाओगी। अगर फिर से यह बात उठे, तो राजा से कहना कि तुम तैयार हो, लेकिन सगाई पर पहनने के लिए तुम्हें एक ऐसी पोशाक चाहिए जिसका रंग धरती पर फैली हरियाली का हो और उस पर सारी दुनिया में पाए जाने वाले फूलों के चित्र बने हों। ऐसी पोशाक तो जल्दी मिलेगी नहीं और तुम्हारी रक्षा हो जाएगी।”

जब राजा पिता को बेटी कुसुम कुमारी की शर्त का पता चला तो उन्होंने अपने सबसे विश्वासपात्र सेवकों को बुलाया। उन्हें एक थैली भरकर अशर्फ़ियाँ दीं, सबसे बढ़िया घोड़ा देकर धरती की हरियाली के रंग की, दुनिया के हर फूल की तस्वीर वाली पोशाक हर क़ीमत पर लाने को खुली दुनिया में भेज दिया। सेवक छह महीनों तक दुनिया के कई देशों की ख़ाक छानते रहे लेकिन वैसी पोशाक न पा सके। अंततः वे घुमंतू सौदागरों के एक शहर में पहुँचे, वहाँ अपनी ज़रूरत के कपड़े के बारे में बता कर, एक सौदागर से पूछा, “क्या आपके पास ऐसा कपड़ा मिल सकता है?” 

सौदागर बोला, “आख़िर आप कहना क्या चाहते हैं कि ऐसा कपड़ा मिलेगा? हम सारी दुनिया में घूम-घूमकर व्यापार करते हैं। हमारे पास इससे भी बेहतर कपड़े हैं!” जब कपड़ा मिल गया तो जल्दी ही पोशाक भी तैयार हो गई। अब कुसुम कुमारी क्या करे!! वह रोती हुई फिर अपनी दाई-माँ के पास पहुँची और सारा हाल बताया। दाई-माँ ने राजकुमारी को धीरज बँधाया और बोली, “हिम्मत न हारो बेटी, सगाई से पहले तो इस शादी की घोषणा की जाएगी न! तुम राजा से कहो कि उस अवसर के लिए तुम्हें ऐसी पोशाक चाहिए जिसका रंग समुद्र जैसा हो और उस पर सभी प्रकार के मछली, कछुए और अन्य सभी जल-जंतुओं के चित्र, सुनहरे तारों से क़सीदा किए गए हों!” 

कुछ महीने तो लगे, लेकिन फिर उन्हीं, देश-विदेशों में घूम-घूम कर व्यापार करने वाले व्यापारियों ने ऐसा कपड़ा भी दे दिया, जिसका रंग समुद्र जैसा था और सोने के तारों की कशीदाकारी से अनेक जलजंतुओं के चित्र उकेरे गए थे। 

अगली बार दाई-माँ ने राजकुमारी से विवाह के जोड़े के लिए हवा के रंग के झीने कपड़े पर चाँद, सूरज और ग्रहों-नक्षत्रों की सुनहरी कशीदाकारी के कपड़े की फ़रमाइश करवा दी। इस बार भी छह महीनों के अंदर फ़रमाइशी कपड़ा तैयार हो गया। 

अब राजा का धैर्य भी टूट रहा था, पोशाक देते हुए राजा ने राजकुमारी से कहा, “अब मैं और देर नहीं करना चाहता। एक सप्ताह के अंदर मैं तुमसे शादी करूँगा। विवाह की तिथि निश्चित हो गई है, तैयारियाँ आरंभ हो गईं हैं।”

इधर दाई-माँ ने अपनी प्यारी राजकुमारी के लिए चतुर बढ़इयों से एक ऐसा खोल बनवाया, जिसमें राजकुमारी पूरी की पूरी समा जाए, जिसे ज़मीन पर चलाया जा सके और लकड़ी से बनी होने के कारण जो पानी पर तैर भी सके। 

विवाह के दिन कुसुम कुमारी ने पिता से कहा कि वह स्नान करके तैयार होने जा रही है। इधर स्नान घर में रखे पानी के टब में रखकर, एक कबूतर का एक पैर पानी में बाँध दिया गया और दूसरा पैर, एक दूसरे कबूतर के पैरों से। जब दूसरा कबूतर हवा में उड़ने के लिए अपने पंख फड़फड़ाता था तो, रस्सी खिंचने के कारण, पानी में बँधा हुआ कबूतर भी अपने पंख फड़फड़ाता, इससे पानी की जो छप छपाहट होती उससे ऐसा मालूम होता मानो कोई नहा रहा हो। 

यह प्रबंध हो जाने पर राजकुमारी ने अपने को काठ के खोल में थोड़े भोजन और कपड़ों के साथ बंद कर लिया। उधर राजाजी सोचते रहे कि कुसुम कुमारी नहा रही है, स्नानघर से पानी की छप-छपाहट जो सुनाई दे रही थी! 

दाई-माँ ने काठ के खोल में बंद कुसुम कुमारी को समुद्र तक पहुँचा दिया। 

खोल में बंद राजकुमारी कई दिनों तक तरंगों पर तैरती-तैरती एक नए देश में जा पहुँची। संयोग से उस समय उस देश का राजकुमार सागर तट पर मछलियाँ पकड़ने आया था। जब उसने पानी में तैरता काठ का खोल देखा तो साथ के मछुआरों से उसे तट पर खींच लाने को कहा। मछुआरों ने जाल लगाया और खोल के साथ कुसुम कुमारी तट पर आ गई। काठ के खोल में बंद एक लड़की को देखकर राजकुमार हैरान हो गया, ऐसा अजूबा तो उसने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था। 

उसने लड़की से पूछा, “तुम कौन हो? और कहाँ से आई हो?” 

खोल में बंद कुसुम कुमारी ने जवाब दिया: 

“मैं काठ की कुसुम कुमारी 
 दूर देश से आई, 
 उड़ जाऊँ, पानी पर तैरूँ
 चतुराई से बनाई!”

आगे राजकुमार ने पूछा, “तुम क्या-क्या कर सकती हो?” 

कुसुम कुमारी बोली, “सब कुछ और कुछ नहीं!”

इस बातचीत के बाद राजकुमार उसे अपने महल में ले गया और वहाँ पली हुई बतखों की निगरानी और देखभाल का काम ‘काठ की कुसुम कुमारी’ को दे दिया। 

जब लोगों को पता चला की काठ की बनी हुई एक लड़की महल के पक्षियों की देखभाल करती है, तो लोग उसे दूर-दूर से देखने आते और उसे चरागाह में ज़मीन पर चलते और ताल-झीलों पर तैरते देख हैरान रह जाते। सप्ताह में एक दिन जब छुट्टी का मिलता तो कुसुम कुमारी अपना काठ का खोल उतारती, अपने बाल धोकर धूप में सुखाने के लिए पेड़ पर चढ़ जाती। वहीं वह अपने केश सँवारती थी, उस समय उसकी पाली हुई बतखें पेड़ के चारों ओर पहरा देतीं और घूम-घूम कर गातीं:

 “ऊपर बैठी जो सुंदर बाला, 
 लिए चाँद सूरज सी लुनाई
 या तो राजकुमारी है वह
 या है रानी? झूठ नहीं यह भाई!”

रोज़ शाम को कुसुम कुमारी दिनभर के अंडे इकट्ठे करके महल में देने जाती थी। एक शाम उसने देखा कि राजकुमार सज-धज कर किसी उत्सव में जाने की तैयारी कर रहा है। कुसुम कुमारी ने उसे थोड़ा छेड़ने के अंदाज़ में गाते हुए कहा: 

“राजा का बेटा, कहाँ जाता बता?” 

“मैं क्यों बताऊँ भला तुमको पता?” राजकुमार ने भी मुस्कुरा कर कहा। 

“जाता जहाँ, मुझे ले चल न साथ!” कुसुम ने फिर कहा। 

“भाग तू यहाँ से, नहीं मारूँगा लात!”

यह कहते हुए सचमुच राजकुमार ने उसे पैर से ठोकर मार दी और स्वयं उत्सव में चला गया। 

उस दिन नाच-गाने के उत्सव में एक बहुत सुंदर युवती आई, उसके जैसी सुन्दर और अलबेली पोशाक उस राज्य में कभी किसी ने देखी न थी, वह धरती के रंग की हरियाली और रंग-बिरंगे अनेक फूल-पत्तियों से सजी, नए ढंग की पोशाक थी। 

राजकुमार ने उस सुन्दरी को अपने साथ नाचने का आमंत्रण दिया और नाचते हुए धीरे से पूछा, “तुम कहाँ से आई हो और तुम्हारा नाम क्या है?” 

कुसुम कुमारी ने कहा, “मैं ठोकरगढ़ की युवरानी हूँँ।” इसके अलावा कुछ भी नहीं बोली। राजकुमार की बुद्धि चकरा रही थी, उसने ऐसा विचित्र नाम कभी सुना ही नहीं था! वहाँ इकट्ठे हुए लोगों में से किसी ने उसे कभी देखा भी नहीं था। 

राजकुमार उस अजनबी सुंदरी के प्रेम में मानो दीवाना सा हुआ जा रहा था। उसने अपने कपड़े में लगे एक सोने के बटन को निकालकर अजनबी राजकुमारी को भेंट कर दिया। युवती नृत्य समाप्त होते ही खिलखिलाती हुई वहाँ से निकल गई। राजकुमार ने अपने साथ आए सेवकों को उस सुंदरी का पीछा करने को कहा, लेकिन जाते हुए सुंदरी ने मुट्ठी भर सोने के सिक्के उछाल दिए, पीछा करने वाले सेवक उन सिक्कों को बीनने और आपस में लड़ने में लग गए, युवती चली गई। 

अगली शाम को राजकुमार आशा-निराशा के झूले में झूलता हुआ, नाच-गाने की महफ़िल में शामिल होने के लिए तैयार होने लगा, तभी अंडे पहुँचाने के लिए आई हुई कुसुम कुमारी उधर आई। आज भी उसने राजकुमार से पूछा, “राजकुमार क्या आज भी आप उत्सव में जा रहे हैं?” 

“मुझे परेशान मत करो, मेरे दिमाग़ में और भी बहुत कुछ चल रहा है,” राजकुमार बोला। 

इस पर कुसुम कुमारी फिर बोली, “मुझे भी संग ले चलिए न।”

राजकुमार पहले से ही चिढ़ा हुआ-सा था, पास में एक छड़ी पड़ी थी उसी से एक सटाका कुसुम कुमारी पर जड़ दिया। 

काठ की कुसुम कुमारी बतखों के दड़बे में लौट आई। आज उसने अपनी सागर के रंग और जल जंतुओं की क़शीदे वाली पोशाक पहनी ओर नाचघर चली गई। वहाँ राजकुमार तो मानो निहाल हो गया और कुसुम कुमारी के साथ ही नाचता रहा। नाचते-नाचते बोला, “आज तो बता दो कि तुम कौन हो?” 

इस पर कुसुम कुमारी ने कहा, “मैं सटाक सुंदरी हूँ!” और फिर मौन हो गई। आज राजकुमार ने उसे अपनी हीरे की अँगूठी भेंट कर दी। पिछली रात की तरह ही आज भी उसने अपने सैनिक राजकुमारी का सुंदरी का पीछा करने के लिए भेजे पर वे सिक्कों के लालच में बौरा गए। 

राजकुमार का प्यार उस अजनबी सुंदरी के लिए और गहरा हो गया। 

संयोग कुछ ऐसा हुआ कि अगली शाम को जब उत्सव में जाने के लिए राजकुमार अपने घोड़े को रास पहना रहा था, तभी कुसुम कुमारी ने महल में अंडे पहुँचाने जाते हुए, उसे देख लिया और पास आकर साथ चलने की बात कही। राजकुमार बहुत अनमना था। उसने घोड़े की रास से ही कुसुम कुमारी की पीठ पर मार दिया। नृत्यशाला में आज अजनबी, परम सुंदरी सूरज-चाँद-सितारों वाली पोशाक पहनकर थिरक रही थी। उसके साथ नृत्य के बाद राजकुमार ने उसका नाम पूछा तो वह बोली, “मैं रसीली कुमारी हूँँ।” 

आज राजकुमार ने उसे अपने चेहरे की छाप वाली सोने की एक मोहर भेंट में दे दी। 

उस शाम भी कुमार के लालची अंगरक्षक अजनबी सुंदरी का पीछा ना कर पाए। 

उत्सव समाप्त हो चुका था और राजकुमार सुन्दरी के प्रेम में पागल!! धीरे-धीरे उसका खाना-पीना छूट गया। उसने बिस्तर पकड़ लिया। अब भला प्रेम रोग का इलाज वैद-हकीम कभी कर पाए हैं जो उसका कर लेते? 

बस एक माँ थी, जो अपनी कोशिश नहीं छोड़ रही थी। दिन में कई-कई बार राजकुमार के पास जाती और उससे कुछ भी खा लेने का निवेदन करती, फुसलाती। एक दिन भगवान ने उसकी सुन ली। राजकुमार ने कहा, “माँ मेरा कचौरी खाने को मन है, लेकिन तुम अपने हाथ से बनाकर खिलाओ तभी!”

रानी माँ रसोई में बेटे के लिए कचौरियाँ बनाने गई तो वहाँ पर काठ की कुसुम कुमारी मौजूद थी। उसने रानी माँ से कहा, “आप चिंता ना करें, मैं आपकी सहायता करूँगी।” ऐसा कहकर वह काम में लग गई। वह आटा गूँधना, कचौरियाँ भरना आदि-आदि करने लगी। 

रानी माँ गरमागरम कचौरी लेकर बेटे के पास पहुँच गई। राजकुमार ने कई दिन की भूख-प्यास के बाद खाना शुरू किया, पहला निवाला खाकर उसने माता से स्वादिष्ट कचौरी की तारीफ़ की। अगले निवाले में उसके दाँतों के नीचे कोई ठोस चीज़ आ गई, निकाल कर देखा तो यह सोने का वही बटन था, जो राजकुमार ने अजनबी रूपसुंदरी को नृत्योत्सव में दिया था। 

उसने माँ से पूछा, “माँ कचौरी किसने बनाई है?” 

माँ बोली, “क्यों? क्या बात है? मैंने ही तो बनाई है “

राजकुमार बोला, “नहीं माँ सच-सच बताओ किसने बनाई है?” 

अब रानी माँ बोली, “मदद तो कुसुम कुमारी ने की है।”

“ठीक है, माँ मैं और कचौरियाँ खाऊँगा,” राजकुमार ने कहा 

रसोईघर से दूसरी कचौड़ी भी आ गई। उसमें से हीरे की अँगूठी निकली। अब राजकुमार को पक्का भरोसा हो गया कि काठ की कुसुम कुमारी को उस अजनबी सुंदरी के बारे में अवश्य ही कुछ मालूम है, जिसके प्रेम का रोग उसे लगा हुआ है। उसने कहा, “मैं अभी एक कचौरी और खाऊँगा।”

जब तीसरी कचौड़ी में उसे अपनेचे हरे की छाप वाली सोने की मोहर मिल गई तो वह दौड़ता हुआ बतखों के दड़बे की तरफ़ चला गया। 

वहाँ क्या देखता है, कि एक पेड़ के इर्द-गिर्द घूमते हुए सारे पक्षी गा रहे हैं: 

“ऊपर बैठी जो सुंदर बाला
 चाँद-सूरज की लिए लुनाई
 या तो राजकुमारी है वह
या है रानी? झूठ नहीं यह भाई!”

और जब ऊपर देखा तो वही अजनबी सुंदरी डाली पर पत्तियों के बीच अपने काठ के खोल के बाहर बैठी बाल सँवार रही है!! 

राजकुमार को देखकर वह धीरे से पेड़ से नीचे उतर आई। उसने अपनी पूरी रामकहानी राजपुत्र को सुना दी। 

बहुत जल्दी ही दोनों की शादी हो गई और वे सुख से रहने लगे। 

हो गई काठ की कुसुम कुमारी की कहानी पूरी। 

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