अथ मम व्रत कथा
सरोजिनी पाण्डेय
प्रिय पाठक, आप इस शीर्षक को पढ़कर कुछ चौंक-से गए होंगे क्योंकि ‘श्री सत्यनारायण व्रत’ कथा ‘श्रीमद् भागवत कथा’, ‘करवा चौथ व्रत कथा’ आदि अनेक कथाओं के नाम तो आपने अवश्य ही सुने होंगे, एक नहीं अनेक बार सुने होंगे, परन्तु इस व्रत कथा का नाम तो आप पहली बार ही सुन रहे हैं न, यह कथा है भी तो मेरे एकदम अपने व्रत करने की कथा!! तो आगे पढ़िए यह ‘मम व्रत कथा’:
सन् 1965 ई. में जब भारत पाकिस्तान का पहला युद्ध छिड़ा, तब मैं नई-नई किशोरी हुई थी, और भारत अभी खाद्यान्न उपजाने में आत्मनिर्भर नहीं था। हरित क्रांति तो बाद में आई, जब भारत में खाद्यान्न विदेशों से आना बंद हुआ। सीमा पर तैनात देश की रक्षा करने वाले सैनिकों को खाद्यान्न की कमी न होने पाए इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री, श्री लाल बहादुर शास्त्री ने देश के नागरिकों का आह्वान किया कि स्वस्थ लोग सप्ताह में यदि केवल एक दिन का (उपवास) व्रत करें, तो आयातित खाद्यान्न पर निर्भरता कम हो जाएगी और सीमा पर भेजने के लिए पर्याप्त अन्न हमारे पास सदैव उपलब्ध रहेगा, आयात में यदि विघ्न भी आए, जैसा कि युद्ध काल में होने की सम्भावना बनी रहती है, तब भी सैनिकों के लिए कमी न होगी।
किशोरावस्था वह आयु होती है जब मनुष्य आदर्शों से बहुत जल्दी प्रभावित होता है और उनके लिए प्राण त्यागने तक को तत्पर हो जाता है। तो बस उसी समय से सोमवार का ‘विजय व्रत’ (शास्त्री जी द्वारा दिया गया नाम) करना आरंभ कर दिया! सारा दिन उपवास और रात के भोजन में केवल आलू खाना निश्चित किया। लगभग दो माह तक दोनों देशों के बीच आमने-सामने का युद्ध होता रहा और भारत विजयी हुआ, यह बात अलग है कि ताशकंद समझौते में भारत को अपनी जीती हुई ज़मीन पाकिस्तान को वापस देनी पड़ी और श्री लाल बहादुर शास्त्री की अत्यंत संदिग्ध स्थितियों में ताशकंद में ही मृत्यु भी हो गई।
युद्ध समाप्त हो गया और व्रत का आह्वान करने वाला नेता भी संसार में नहीं रहा। परन्तु मेरा व्रत चलता रहा क्योंकि इस बीच भविष्य को लेकर आँखों में सपने भी तो आने लगे थे। यूँ तो कभी डॉक्टर, कभी अध्यापिका, कभी लेखिका बनने के सपने आँखों में चलचित्र की तरह तैरते परन्तु उनमें कोई भी फ़्रेम जीवनसाथी के बिना नहीं होता था, उम्र का तक़ाज़ा था न।
हिंदू सनातनियों में मान्यता है कि सोमवार शिव जी का दिन है और यदि शिव प्रसन्न रहें तो मन चाहा जीवनसाथी, हर जन्म में, मिलता है, जैसे शिव और पार्वती हर जन्म में साथ रहते हैं। तो अब सोमवार का व्रत करते रहने के पीछे यह भी कारण हो गया, देश प्रेम तो था ही। जीवन-साथी अच्छा मिले इसके लिए ईश्वर की कृपा आवश्यक थी क्योंकि मैं स्वयं ऐसा कर पाऊँगी इसकी उस ज़माने और हमारे परिवार में तो सम्भावना शून्य ही थी। तो सोमवार का व्रत तो चलता ही रहा परन्तु उसका अभीष्ट बदल गया। वैसे तो गीता का सार, निष्कर्ष कर्म करने का ही है परन्तु उस वय में यह आध्यात्मिक ज्ञान कितनों के पास होता है?
अब वह व्रत का प्रभाव हो, ईश्वर की कृपा या मेरा भाग्य, साथ-साथ जीवन निभा लेने लायक़ जीवनसाथी भी मिल गया, (यह बात मैं आज 50 वर्ष बाद विश्वास और श्रद्धा के साथ कह पा रही हूँ) जीवन के साथ-साथ सोमवार के व्रत का क्रम निरंतर चलता रहा। मैं विवाहित हुई गृहणी बनी और दो संतानों की माता भी, परन्तु व्रत निरंतरता से चलता रहा, हाँ इसके द्वारा प्राप्त होने वाले फल की कामना आवश्यक बदलती रही।
विवाह के बाद पति की दीर्घायु और सुखी दांपत्य के लिए और संतानों को जन्म देने के बाद शारीरिक गठन को बनाए रखने के लिए इस व्रत को माध्यम बनाती रही, क्योंकि मेरी डॉक्टर और स्वास्थ्य सम्बन्धी लेखों की भी यही चेतावनी रहती थी कि मातृत्व पाने के समय शरीर में हार्मोनों की जो उथल-पुथल होती है, उससे शरीर में मेद की मात्रा अधिक हो जाती है और मोटापा चढ़ सकता है, इसलिए विशेष सतर्कता की आवश्यकता होती है। हम सब जानते हैं कि वज़न बढ़ने और भोजन की मात्रा में गहरा सम्बन्ध है, और उपवास करने से बढ़कर भोजन की मात्रा पर नियंत्रण करने का और भला क्या उपाय हो सकता था? अतः मित्रों, जीवन के साथ-साथ व्रत भी चला रहा हाँ, अवस्था के अनुसार अभीष्ट फल का रूप अवश्य बदलता रहा!
कुछ समय बाद परिवार में थोड़ी-सी समस्या आई। मुझसे छोटी तीन बहनें थीं। उस काल में पुत्री का विवाह समय से करना पिता की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी मानी जाती थी। स्नेह-दुलार से पाली गई बेटियों के लिए अपनी इच्छा अनुसार योग्य वर तलाश लेना सहज नहीं होता था। वर की योग्यता, कुल, आर्थिक स्थिति, दान-दहेज़ का परिमाण, सब में सामंजस्य स्थापित करना कोई हँसी खेल नहीं था। इस ज़िम्मेदारी के कारण पिता कुछ अधिक ही चिन्तित रहते थे। उन्हीं दिनों एक देवी ‘संतोषी माता’ की उत्तर भारत में बड़ी धूम रहती थी कि उनके नाम से यदि शुक्रवार का व्रत कर लिया जाए तो हर इच्छा पूरी होती है। मैं पिता की परेशानी दूर करने के लिए और कुछ तो कर नहीं सकती थी, सोचा कि चलो शुक्रवार के संतोषी माता जी के व्रत ही कर लूँ। शायद इस व्रत की महिमा से पिता की परेशानी कम हो जाए और मेरी बहनों के विवाह अच्छे घरों में और समय से हो सकें। तो मैंने शुक्रवार का व्रत भी आरंभ कर दिया।
उधर व्रत के मामले में एक और प्रगति यह हुई कि मेरे पति, हमारी दूसरी संतान के जन्म के बाद पिता होने की ज़िम्मेदारी का अहसास बड़ी तीव्रता से करने लगे और उन्होंने इस दायित्व को सफलता से निभा पाने के लिए मन की दृढ़ता और संबल के लिए महावीर बजरंगबली हनुमान जी का, मंगलवार का, उपवास करना शुरू कर दिया।
अब हमारे छोटे-से नाभिकीय (न्यूक्लियर) परिवार में सप्ताह में तीन दिन 25% सदस्यों का उपवास रहने लगा।
इधर हमारी संतानें बड़ी हो रही थीं। उनका सामाजिक दायरा बढ़ रहा था। उन दिनों हम मुंबई महानगर में रहते थे, जहाँ भारत के अनेक प्रदेशों, के विविध सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, विभिन्न भोजन रुचियों वाले लोग बसते हैं। वे विद्यालय में टिफ़िन खाते हुए अपने मित्रों के डिब्बों में देश के विभिन्न प्रान्तों के विविध व्यंजन देखते थे। घर आकर वे मुझसे भी उन व्यंजनों को बनाने और खिलाने की फ़रमाइश करते। बच्चों को घर का बना स्वास्थ्यप्रद भोजन खिलाना मुझे अपना धर्म लगता और पाक कला में मेरी स्वाभाविक रुचि भी है। परन्तु उन दिनों मैं कभी “पापा का व्रत है, जिस दिन वे भी खाएँगे तब बनाऊँगी!” और कभी “मेरा व्रत है, आज तो नहीं बन सकता!” कह कर टाल देती थी। बच्चे उदास हो जाते।
कुछ दिनों यही चलता रहा परन्तु बाद में दोनों ने दल बनाकर विद्रोह करना शुरू किया, “हमारे घर में तीन दिन तो ठीक से खाना ही नहीं मिलता!”
यह बात धीरे-धीरे बच्चों के दादा-दादी और नाना-नानी तक भी पहुँच गई! मुझ पर उधर से भी दबाव पड़ने लगा।
अब बताइए भला, घर की 50% जनता यदि विद्रोह कर रही हो तो गृहस्थी की गाड़ी कैसे चलेगी?
उन दिनों मेरे पति का सागर-तल में खनिज तेल का अनुसंधान करने का कार्य था, अतः वे लंबे समय तक घर के से बाहर भी रहते थे, और जब पति बाहर हों तो भला एक ‘पतिव्रता स्त्री’ पकवान कैसे बना सकती थी? तो इन बातों का सारांश यह कि डट कर खाने की उम्र, ‘भरे-बचपन’ में, हमारी संतानें नए-नए व्यंजनों से वंचित रह रही थीं और इसका वे पुरज़ोर विरोध भी कर रही थीं। मेरी स्थिति तो विशेष कष्टप्रद थी। दो नावों में पैर जो थे, बच्चों के प्रति स्नेह और अन्य सांसारिक संबंधों के बीच सामंजस्य स्थापित करना कठिन लग रहा था।
ईश्वर की कृपा शीघ्र ही हुई और मेरी बहनों के विवाह हो गए। इधर मेरे भीतर भी माता के कर्त्तव्य से च्युत होने की भावना घर कर रही थी। अतः मैंने शुक्रवार का व्रत करना बंद कर दिया। इस प्रकार अब तीन के बदले सप्ताह में दो दिन के ही। व्रत रहने लगे। लेकिन इस नए परिवर्तन से बच्चों का साहस बढ़ गया और वे नित्य सुझाव देने लगे कि यदि माता-पिता एक ही दिन व्रत कर लें तो स्थिति और अच्छी हो जाएगी।
यह सुझाव मुझे भी सही लग रहा था।
स्वादिष्ट और मनोनुकूल भोजन का अधिकार तो बढ़ते हुए बालक-बालिकाओं का मूल अधिकार होना ही चाहिए, इस बात से हम पति-पत्नी दोनों सहमत भी थे। मैंने पति के सामने प्रस्ताव रखा कि वे मंगलवार का व्रत ना करके सोमवार का ही उपवास करें तो बच्चों की माँग पूरी हो जाएगी। परन्तु हमारे देश का पुरुष आसानी से पत्नी की बात मान ले तो ‘जोरू का ग़ुलाम’ न हो जाएगा?
इधर मैं भी नारी मुक्ति आंदोलन की समर्थक, आधुनिक भारत की नारी, भला आसानी से पुरुष से समझौता कैसे करती? तो यथा स्थिति बनी ही रही!
शिव जी का सोमवार का व्रत स्त्रियाँ करती है पुरुष नहीं और मंगलवार का व्रत बजरंगबली का है जो कि आजीवन ब्रह्मचारी हैं अतः स्त्रियाँ उनका व्रत नहीं कर सकती यह तर्क भी अपने स्थान पर पुष्ट था। दोनों अपनी-अपनी आन पर अड़े थे, उधर बच्चे “हमारी माँगें पूरी करो वरना . . .” का नारा लगाते विरोध का झंडा लहराते रह रहे थे।
कुछ महीने ऐसे ही बीत गए। मैं ठहरी माँ, भोजन जैसी बात पर बच्चों का ‘अनबोला आंदोलन’ मुझे अच्छा नहीं लग रहा था! पति-पत्नी के इस ‘आन’ के प्रश्न को कैसे सुलझाया जाए कि साँप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे यह मैं सोचती रहती थी!
आपको मैं पहले बात ही चुकी हूँ कि हम उन दिनों मुंबई में रहते थे। एक दिन मेरी एक स्थानीय सहेली ने बताया कि यदि कोई स्त्री पाँच मंगलवार का व्रत करते हुए दादर उपनगर स्थित ‘सिद्धि-विनायक जी’ के दर्शन कर ले तो उसकी सारी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। यह सुनकर मेरा प्रश्न था, “क्या मंगलवार का व्रत स्त्रियाँ करती हैं?” सहेली ने उत्तर में समझाया, “अरे गणेश जी तो ‘मंगल’ मूर्ति हैं उनका व्रत तो मंगलवार को ही होता है, जिसे स्त्री-पुरुष सभी करते हैं।” यह सुनकर तो मैं ख़ुशी से झूम उठी। निश्चय कर लिया कि अब मैं सोमवार के बदले मंगलवार का ही व्रत करूँगी! स्वतंत्र विचारों की स्त्री हूँ, हनुमान जी को पति पूजते रहें। मैं गणेश जी को अर्पित करके के सबके कल्याण की भावना से मंगलवार का व्रत करूँगी। हनुमान जी को तो मैं यह कह कर मना लूँगी कि “महाराष्ट्र में तो मंगलवार का दिन गणेश जी का दिन है और वह भी जानते हैं कि जब आप ‘रोम में हो तो आप को रोम के लोगों जैसा ही व्यवहार करना चाहिए’, हमारे यहाँ भी तो,“जैसा देश वैसा भेष” रखने की सलाह दी जाती है। जब हम दोनों का सप्ताह में केवल मंगलवार का ही दिन उपवास का रह गया तब बच्चों को एक और ख़ुशी यह मिली कि मैं मंगलवार को उन लोगों के लिए केवल उनकी पसंद का तला भुना या गरिष्ठ भोजन बना देती जो सामान्य अवस्था में हम दोनों पति पत्नी नहीं खाना चाहते थे। अब मंगलवार का दिन मेरी दोनों संतानों के लिए अति स्वादिष्ट भोजन का ‘त्यौहार’ होने लगा और सप्ताह का एक दिन, मंगलवार 50% जनता का ‘व्रतवार'।
इस निश्चय और निर्णय को किए हुए तीन से अधिक दशक बीत गए हैं। बच्चे बड़े होकर पंख लगाकर उड़ गए हैं। अपने-अपने घोंसले बनाकर उनमें अपने चूज़ों को चुग्गा खिला रहे हैं, आज भी हम पति-पत्नी मंगलवार का व्रत करते हैं, वह बजरंगबली से संसार-सागर में तैरने का बल माँगते हुए और मैं ‘मंगल मूर्ति’ से परिवार और संसार के मंगल की कामना करते हुए! यह बात अलग है कि अब उसमें स्वास्थ्य और विश्व कल्याण संबंधी पक्ष भी जुड़ गया है। पुरानी कहावत है ना ‘कम खाना और ग़म खाना’ सदैव मंगलकारी होता है!
मंगलवार या किसी भी अन्य व्रत के दिन यदि अन्न का त्याग कर उसके स्थान पर साग सब्ज़ी या मौसमी फल खाएँ तो यह क़दम विश्व की भोजन संबंधी समस्या को हल करने में भी सहायक हो सकता है क्योंकि अन्न उगाने में जल, भूमि और समय अधिक लगता है जबकि सब्ज़ियाँ उससे कम जल, समय और भूमि में उत्पन्न होकर अधिक लोगों का पेट भर सकतीं हैं।
तो व्रत-उपवास का सिलसिला परिवर्तित अभीष्ट के साथ निरंतर चल रहा है।
इतना समय सुख से बीत जाने पर यह भी लगता है कि बजरंगबली को मेरे ‘मंगलवार-व्रत’ करने से तनिक भी असुविधा नहीं है, आख़िर हैं तो वे भी ‘संकट मोचन’ ही!
सभी के व्रत सब के लिए मंगलकारी हों।
‘इति मम व्रत कथा’
2 टिप्पणियाँ
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अति उत्तम
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हिंदू धर्म में व्रत उपवास की परंपरा है।आपकी व्रत कथा पढ़कर पुराने दिन याद आए। मराठी में एक कहावत है " एकादशी, दुप्पट खाशी" अब उपवास के चोचले भी बढ़ गए है।उपवास के दिन न जाने कितने व्यंजन का जन्म हुआ है।
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