बसंत से पावस तक

01-07-2025

बसंत से पावस तक

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 280, जुलाई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

इस धरा पर वसंत की ऋतु आने पर, 
कामदेव की तरकश से निकले तीरों के आघात पाकर, 
शिशिर-हेमंत का अलसाया सूर्य, 
नवजीवन पता है, 
अंग-अंग में उसके काम का उन्माद व्याप जाता है, 
 
धरती की ओर अब वह प्रेमोष्मित दृष्टि से ताकता है, 
अपनी प्रिया वसुधा को थाल भर-भर 
उपहार भिजवाता है—
गुलमोहर का लाल सिंदूर 
सेमल-टेसू की लाल चूनर
अमलतास के स्वर्णिम झूमर, झुमके 
कण्ठहार हौले-हौले हर ओर बिखराता है, 
 
प्रियतम सूर्य से पाकर
ऐसे अनोखे प्रेमोपहार, 
शीत से सकुचाई धरती भी 
उठती पड़ती है मानो जाग, 
प्रेमी को रिझाने को
स्नेह उसका पाने को
करती है वह सोलह सिंगार, 
  
ब्याह ने धारा को फिर 
लेकर अपने संग-साथ 
विद्युत लेखा की चमक
वारिद-घन का तीव्र नाद, 
वर-यात्रा सजता है सूर्य भी
मेघ मित्रों का लेकर दल-बल अपने साथ, 
पूर्वी-पवन पुरोहित बन
कराता है ग्रंथि-बंधन, 
पावन जलधार की साक्षी से
फिर एक बार होता है पूर्ण यह
युग युगांतर का शाश्वत परिणय-बंधन! 

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