सूरज की चिंता
सरोजिनी पाण्डेयएक संध्या को जब थक के
'सूरज' घर को वापस आया,
माँ ने बेटे का मुख देखा
कुछ थका हुआ, कुछ मुरझाया,
पास आकर के वह बैठ गई
धीरे से माथा सहलाया,
बोली, “क्यों हो तुम बुझे-बुझे?
चेहरा लगता है मुरझाया?
यदि बात बता दोगे मुझको
मन कुछ हल्का हो जाएगा
यदि होगी समस्या कोई तो
उसका हल ढूँढ़ा जाएगा!”
बोला सूरज लेकर उसाँस,
“माता मैं तुमसे क्या बोलूँ?
अपनी संतति के संकट में
तुम को चपेट में क्यों ले लूँ?”
“क्या बात कही बेटा तूने,
तेरी संतान पराई है?
मैं दादी हूँ उन सबकी ही
यह बात ध्यान में ना आई है?”
माता से पाकर आश्वासन
सूरज को कुछ हिम्मत आई,
अपनी इकलौती बेटी की
यह व्यथा कथा तब बतलाई,
“हे मात! तुम्हें तो मालूम है
हैं सात-सात बेटे मेरे,
और पुत्री पृथ्वी अकेली है
यह परम भाग्य ही हैं मेरे
यह आठों प्यारे हैं मुझको
सब सबको मैं निकट ही रखता हूँ
पर अपनी प्यारी बिटिया को
मैं स्नेह विशेष ही करता हूँ,
मन उसका करुणा का सागर
और धैर्य है उसका पर्वत-सा,
साँसें है प्राणवायु उसकी
जिसको पाकर 'जीवन' उपजा,
इस धैर्य-दया के कारण ही
जीवों को धारण करती है,
माँ जैसा हृदय मिला उसको
वह सब का पोषण करती है,
सारे प्राणी और सब अवयव
मिलजुल कर जीवन जीते थे,
’वसुधा’ का नाम सभी मिलकर
सचमुच में सार्थक करते थे,
देखा जब पृथ्वी पर जीवन
बेटी पर हुआ गर्व मुझको,
सब रहें सुरक्षित फूलें-फलें
सो 'रक्षा-कवच' दिया उसको
अब तक तो सब कुछ सुंदर था
पर अब चिंता कुछ होती है,
'सर्वोत्तम पृथ्वी की कृति' ही
निर्बुद्ध सिद्ध अब होती है,
अपना प्रभाव दिखलाने को
वह कुछ ऐसा कर जाता है,
घायल हो जाती है पृथ्वी
उस पर संकट गहराता है,
उसके दुष्कर्मों के कारण
’ओज़ोन-कवच’ छिद्रित होता
असहाय देखकर पुत्री को
यह पिता हृदय में है रोता,
अब तुम्ही कहो माता मेरी!
क्या मेरी सोच निरर्थक है?
मेरी बेटी की समस्या का
क्या कोई हल भी सम्भव है?
मैं विवश प्रकृति के आगे हूँ
ना अपना ताप घटा सकता
वरना बेटी की रक्षा हित
मैं शीतलता अपना लेता।”
“मत दोषी समझो अपने को,
जो करता है वह भरता है,
आ जाता जिसका अंत निकट
उसको तो मतिभ्रम होता है,
पृथ्वी की रक्षा करने का
पूरा दायित्व 'मनुज' का है
यदि सँभल नहीं वह पाया तो
उसका ही अंत सुनिश्चित है,
जो हनन कर रहा माता का
क्या वह सुख से रह पाएगा?
अपने पापों की वेदी पर
वह स्वयं हवि बन जाएगा!!”
“मानव!! मैं तुमसे पूछ रही
पृथ्वी रक्षण कर पाओगे?
सूरज की बेटी के हित में
'तृष्णा' पर रोक लगाओगे?
2 टिप्पणियाँ
-
गहरा अन्वेषण, सुन्दर प्रस्तुति
-
बहुत संदेशात्मक । कितना भी गूढ़ चिंतन का विषय हो ,सरल शब्दावली ही स्थाई प्रभाव डालती है और भाषा की दुरुहता ,अनावश्यक अलंकार संप्रेषण में बाधा उत्पन्न करती है । यह आपने सिद्ध कर दिया है महोदया । सरल शब्दों में सुंदर संदेश दे दिया है ।
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