क़लम और मैं
सरोजिनी पाण्डेय
मैं न तो कवयित्री हूँ न कहानीकार, लेखक ही लेकिन न जाने क्यों मुझे क़लम से बेहद प्यार है, कहीं भी सफ़ेद काग़ज़ का एक छोटा टुकड़ा भी देख लूँ तो इच्छा होती है कि मेरे हाथ में क़लम आ जाए तो इस पर कुछ लिख दूँ। ऐसा क्यों है, मैं नहीं जानती, हो सकता है कि यह कोई मनोरोग हो या मन की किसी विकृति का परिवर्तित रूप, यह तो कोई मनोरोग चिकित्सक ही बता सकेगा। तथ्य चाहे जो हो लेकिन मेरे लिए यही सत्य है कि मैं अपनी लेखनियों से अलग नहीं होना चाहती, उन्हें सँभाल कर अपने पास ही रखना चाहती हूँ और जब तक मेरी साँसें चलें तब तक मैं लेखनी का प्रयोग कर पाने योग्य बनी रहूँ—यह इच्छा रखती हूँ। इस परिवर्तनशील संसार में मिलना बिछड़ना तो लगा ही रहता है परन्तु जो यादें क़लम की मेरे मन में है उनसे मैं आज भी आनंदित होती रहती हूँ।
जब विद्यारंभ किया तब संठे की क़लम को दुद्धी (पानी मिली खड़िया) में डुबोकर लकड़ी की पट्टी पर ‘क’ अक्षर लिखना सीखा था। जब वर्णमाला का मौखिक अभ्यास कराया जाता तो आरम्भ से अ आ इ जैसे स्वर ही सीखे, परन्तु पट्टी पर लिखने के अभ्यास में क अक्षर लिखना सबसे पहले सीखा था। ‘पट्टी पुजाई’ (विद्यारंभ का स्थानीय नाम) में माता-पिता और पंडित ने ऊँ अक्षर लिखा या लिखवाया रहा होगा, हाथ पकड़ कर! यह मुझे याद नहीं रह गया है लेकिन मेरे छोटे भाई-बहनों के साथ यही हुआ तो अवश्य ही मेरे साथ भी हुआ होगा!
तो सफ़ेद संठे की दो गाँठों के बीच के भाग को निकाल कर तेज़ चाकू से एक गाँठ की तरफ़ छीलकर ' क़लम, बनाई जाती थी, दूसरे छोर की गाँठ बनी रहती थी। शायद इसी क्रिया के कारण शिरोच्छेदन को ‘सर क़लम कर देना’ भी कहते हों?
क़लम जब बन जाती तो उसकी नोक पर थोड़ा सा तिरछा करके, चाकू रखा जाता और ऊपर से मुट्ठी या फिर तख़्ती के किनारे से प्रहार किया जाता जिसे ‘ख़त काटना’ कहा जाता था, यह बड़ी कुशलता का काम होता क्योंकि ख़त यदि अधिक तिरछा कट जाए तो क़लम बेकार हो जाती थी और फिर से बनानी पड़ती थी। ख़त कट गया तो फिर उसमें एक छोटी सी गहराई सी बना दी जाती थी जो दुद्धी को रोक रखती थी। संठे की मक्खनी रंग की चिकनी क़लम को पकड़कर, मिट्टी के बुदके में घुली सफ़ेद खड़िया मिट्टी की दुद्धी में डुबोकर तख़्ती पर क ख ग लिखने का अभ्यास करती तो हृदय प्रसन्नता से भर जाता और अपने बड़े होने का गर्व होने लगता। धार्मिक पुस्तकों में जो चित्र देखती थी उनमें पक्षियों के पंख लेखनी के रूप में ऋषि-मुनियों की अंगुलियों में देखती थी, अपनी लकड़ी की पट्टी पर क़लम-दुद्धी से पट्टी पर अक्षर लिखते समय मेरा बाल-मन स्वयं को उनके समक्ष ही मानने लगता था। क़लम के प्रति मेरे मन में आज भी वही आदर और प्रेम बसा है।
स्कूल तो शायद पट्टी लेकर कभी गई नहीं, स्लेट पर ‘बत्ती’ से लिखा, पर बत्ती से लिखने में वह आनंद कहाँ? एक ओर अँगूठे-तर्जनी के बीच पकड़ी गई, मध्यमा का आलम्ब लेती, चिकनी, चमकदार क़लम और कहाँ खुरदुरी सी कई पहल वाली, अधिक दबाव से चलने वाली बत्ती? तख़्ती पर लिखने का एक आनंद यह भी था कि उसको काला करने के लिए कभी टॉर्च की बेकार सेल को तोड़कर कालिख निकली जाती, कभी चूल्हे पर चढ़ी पतीली के पीछे से। गीले कपड़े से पट्टी पर यह कालिख लगाने के बाद चिकनी शीशी की तली से उसको देर तक रगड़-रगड़ कर चमकाया जाता, इस प्रक्रिया का नाम तख़्ती पर “घुटारा-पुतारा” करना कहलाता था। मैं इसकी तुलना सदैव अपने नहाने-कपड़े बदलने और बाल सँवारने की क्रिया से करती थी। जैसे मेरी माता मेरे लिए यह सब करती थी ठीक उसी स्नेह और सावधानी से मैं अपनी तख़्ती का घुटारा-पुतारा करती थी। ऐसा आनंद भला स्लेट-बत्ती से कहाँ मिलता? उसे तो बस गीले कपड़े से पोंछ दो, बहुत हुआ तो पानी से धो दो और स्लेट चमक जाती थी। अच्छा तो यह था कि इस स्लेट पर बस सवाल लगाने पड़ते थे, कॉपी, लिखने के लिए अब किलिच की क़लम और शीशे की दावत में रोशनाई मिलने लगी थी।
जब कक्षा चार की पढ़ाई करने लगी तब क़लम की जगह होल्डर मिलने लगा। होल्डर के निब पीतल और तांबे के होते थे। कुछ बच्चे जो अपनी लिखावट को बहुत अच्छा समझते थे, वे होल्डर की निब में भी क़लम की तरह ख़त काटते थे। हिंदी और अंग्रेज़ी लिखने के लिए अलग-अलग निब आती थी, अंग्रेज़ी लिखने वाली निब को ‘जी निब’ कहते थे क्योंकि उस पर अंग्रेज़ी का G अक्षर छपा रहता था। होल्डर की रंग बिरंगी सतह पर अपना नाम कुरेद कर लिखना एक कला हुआ करती थी। ऐसा कर लेने से होल्डर के चोरी होने का ख़तरा ख़त्म हो जाता था। रोशनाई बनाने के लिए एक टिकिया मिलती थी, जिस पर अंग्रेज़ी का K अक्षर लिखा रहता था। टिकिया पानी में घुल कर स्याही बनाती थी, इसे बनाने के लिए भी सावधानी की ज़रूरत होती थी यदि पानी अधिक पड़ गया तो फीकी स्याही बन जाती और काग़ज़ पर बहने लगती थी, यदि बहुत कम पानी हो तो काग़ज़ पर होल्डर से अक्षर ही सही नहीं बनते थे। मित्रों के बीच में स्याही का आदान प्रदान मित्रता को गहरा बनाने का माध्यम हुआ करता था, दावत लुढ़ककर स्याही का गिर जाना या मित्रों द्वारा स्याही की चोरी कर लेना दिन की महत्त्वपूर्ण घटना होती, जो संध्या समय माता-पिता को विस्तार से सुनाई जाती थी। स्याही के उपयोग भी कई हुआ करते थे जैसे कि आगे की क़तार में बैठे अपने सहपाठियों के कपड़ों पर छिड़कना, स्कूल में होली खेलना, चोट लगने पर स्याही को दवा की तरह घाव पर लगाना या फिर परीक्षा के समय अपनी कॉपी पर गिराकर पर्चा अच्छा होने का संकेत समझ लेना।
छठी कक्षा में पहुँचने पर पेन रखने की आज़ादी मिल गई। क़ीमती पेनों में तो स्याही की थैली को दबाने के लिए क्लिप होते थे, परन्तु सस्ते क़लम में स्याही की थैली को दबाने के लिए हाथ का ही प्रयोग करना होता था जो बड़ा मनोरंजन भी था। नवीं कक्षा में मुझे पहला ऐसा पेन मिला जो ‘इरीडियम टिप्ड’ था जिसके पॉकेट क्लिप पर “बहादुर” अंग्रेज़ी अक्षरों में लिखा था, इस क़लम को मैंने विवाह होने तक सँभाल कर रखा हालाँकि गिरने, कई बार खोने के कारण वह क्षत-विक्षत हो चुका था। दसवीं कक्षा में मंच पर अभिनय करने के पुरस्कार स्वरूप ‘प्रेसिडेंट’ मिला जिसका उन दिनों हमारे क्षेत्र में बड़ा फ़ैशन था। इस प्रेसिडेंट पेन को पिचर पेन कहा जाता था क्योंकि इसमें स्याही सीधे पेन के नीचे के मुख्य, खोखले भाग में भर दी जाती थी और पेन मोटा भी ख़ूब होता था।
दसवीं की बोर्ड की परीक्षा में प्रथम श्रेणी पाने पर पिताजी ने पुरस्कार स्वरूप ‘क्लिपर’ फ़ाउंटेन पेन दिया, जिसके ढक्कन पर चाँदी चढ़ी थी और निब भी चाँदी की थी परन्तु यह पेन बहुत कम समय तक मेरे पास रहा रसायन शास्त्र की प्रयोगशाला में मेरे काउंटर से वह पेन किसने उठाया उसका पता कभी नहीं चल पाया। परन्तु उस अनजाने चोर या चोरनी ने मेरी कितनी गालियाँ और कितने श्राप पाए होंगें उसकी गिनती नहीं है। आज भी उस काले-रुपहले पेन की छवि मेरी आँखों में बसी है। फ़ाउंटेन पेन के बाद ज़माना आ गया बॉल पॉइंट पेन का परन्तु काफ़ी समय तक हमें विद्यालय में बॉल पॉइंट पेन से लिखने की मनाही थी ऐसा माना जाता था कि इन पेनों के इस्तेमाल से हस्तलेख बिगड़ जाता है। इन क़लमों के आ जाने से ‘इंक नहीं क्विंक कहिए’ जैसे विज्ञापन बंद हो गए। वाटर मैन, स्वान, चेलपार्क जैसे पेन की स्याहियों के नाम सुनाई देने बंद हो गए। जब तक रोशनाई भरने वाले पेन इस्तेमाल करते रहे तब तक साप्ताहिक कामों में एक काम पेन की सफ़ाई भी होता था, जब पेन को खोलकर गुनगुने पानी से उसके हर अंग को साफ़ किया जाता। यदि सफ़ाई ना हो तो पेन की निब और ‘जीभ’ के बीच में स्याही सूख जाती थी और बहाव बाधित होता था।
कुछ सालों तक फ़िल्टर टिप पेन का भी प्रचलन रहा, जिसकी स्याही दुकान से ही भरवानी पड़ती थी।
कहाँ से निकली कहाँ बात कहाँ तक पहुँच गई!! अब तो समय ऐसा है कि दो रु. से लेकर पाँच रु. तक के सस्ते पेन ख़रीद लो, इस्तेमाल करो और फेंक दो। लेकिन बचपन से पड़ी क़लम सँभाल कर रखने की अपनी ‘लत’ का मैं क्या करूँ? जब पेन की स्याही ख़त्म हो जाती है तो मैं जगह-जगह स्टेशनरी की दुकान खोजती हूँ और पेन के रिफ़िल ख़रीदना चाहती हूँ। आजकल रिफ़िल मिलने ही जैसे बंद हो गए हैं। कभी-कभी तो कुछ दुकानदार मुझे अर्थशास्त्र भी समझने लगते हैं कि रिफ़िल से सस्ते पेन पड़ेंगे! उन्हें कैसे समझाऊँ कि मैं उन ‘अपनों’ से बिछड़ना नहीं चाहती जिन्होंने मेरी उँगलियों को लिखने की शक्ति दी! और अब बिगड़ते, दूषित होते पर्यावरण को बचाने के लिए भी मेरा रिफ़िल खोजने का निश्चय दृढ़ से दृढ़तर होता जा रहा है। यदि रिफ़िल मिल जाता है, तो चाहे दो ग्राम ही सही प्लास्टिक के पेन का ‘कचरा’ तो कम होगा केवल रिफ़िल को ही फेंका जाएगा। इस सृष्टि में क्या मेरा अस्तित्व उस दो ग्राम के कूड़े से अधिक महत्त्व रखता है? मेरे लिए तो मेरा अस्तित्व अत्यंत मूल्यवान है क्योंकि मैं इसी क्षुद्र-नगण्य अस्तित्व से ईश्वर की बनायी इस सृष्टि का आनंद लेती हूँ, इसलिए हर दो ग्राम का कचरा कम कर पाने पर मैं परम संतुष्ट होती हूँँ, कि मैं अपने हिस्से का प्रकृति संरक्षण कर पायी।
1 टिप्पणियाँ
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बचपन की धूमिल हो गईं स्मृतियों को तरो-ताज़ा करने के लिए आभार। और फिर प्रदूषित होते पर्यावरण को बचाने के लिए आपका दृढ़ निश्चय दो ग्राम के प्लास्टिक पैन के आगे अमूल्य है। यह आपका आपकी ' क़लम' से अटूट प्रेम भी दर्शा रहा है। साधुवाद।
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