कहानी और मैं
सरोजिनी पाण्डेय1.
कैसे होते हैं वह लोग
जो कहानियाँ लिख पाते हैं?
दूसरों के भोगे हुए क्षणों को वे
अपना निजी बना पाते हैं,
समेट करके छोटे-बड़े बीजों को
भावों का वे उनके ऊपर गूदा चढ़ाते हैं,
अपूर्व कौशल से वे इस गूदे में,
शब्दों की व्यंजना से
स्वाद, गंध और रूप-रंग मिलाते हैं
इन चतुर, जीवन के चितेरों के श्रम से
हम कभी झरबेरी, कभी जामुन
और कभी रसीले आमों जैसी
कहानियों का स्वाद पाते हैं,
कुछ कहानियाँ मेरे हृदय में अपना स्वाद
बरसों-बरस बसाए रखती हैं,
कुछ कहानियाँ ऐसी बेस्वाद होती हैं,
कि खाते ही बरबस थूकनी भी पड़ती हैं,
आम, अमरूद, जामुन, रसभरी-सी
हर कहानी, अलग स्वाद वाली होती है,
खाने वाले के स्वादानुसार —
बेचारी कहानी अच्छी और बुरी भी होती है,
कुछ को करील-सी कड़वी कहानियाँ प्रिय लगती है,
मुझ-सी साधारण जनता,
तो बस मकरंद प्रेमी होती है!!
2.
चाहती हूंँ कि मैं भी कहानी लिखूंँ,
अपनी न सही,
किसी और की ही ज़ुबानी लिखूंँ,
‘कहानी’ बनेगी तो, ‘कही’ ही तो जाएगी!
‘कही’ गई तो फिर ‘सुनी’ भी ज़रूर जाएगी!
इस कहने-सुनने में ही हो गई
ग़र किसी से ‘कहा-सुनी’,
तो मेरी बेचारी कहानी तो ‘अनसुनी’ ही रह जाएगी!
कहने से पहले, ‘कहा-सुनी’ होने का डर,
मेरे मन में निराशा उपजाता है,
कहानी ‘कह’ने का मेरा मनोरथ
इसी भय से सदा अधूरा रह जाता है!!
2 टिप्पणियाँ
-
अच्छी कविता।
-
कहानी की कविता या कविता की कहानी आपकी जुबानी 'सुन' कर अच्छी लगी, और मैंने अपनी बात 'कही'... बिना कहानी के भी "कहा - सुनी" हो ही गयी... हा.. हा... हा ...
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