चतुर चंपाकली
सरोजिनी पाण्डेय
मूल कहानी: ला कैंटाडिना फ़ुरबा; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (कैथरीन, स्लाई कंट्री लास); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय
प्रिय पाठक, जो लोककथा आज आपके लिए मैं लाई हूँ, वह इटली के टस्कनी प्रान्त की है। इसको पढ़ते हुए आपको अकबर-बीरबल के चुटकुले याद आ जाएँगे। इस कहानी में, मनुष्य की ‘बुद्धि विलास’ करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति का पता लगता है। शब्दों के नए-नए अर्थ निकालना मानव की सहज प्रकृति ही लगती है! तो लीजिए प्रस्तुत है इतालवी लोक कथा:
किसी समय की बात है, एक किसान था, उसकी एक बेटी थी, ख़ूब चालाक, ख़ूब चतुर और नाम था चंपाकली! एक दिन किसान अपने खेतों में गुड़ाई कर रहा था, अचानक उसकी कुदाल किसी ठोस चीज़ से टकराई। किसान ने उसे उठाया, झाड़ा-पोंछा तो समझ में आया कि वह तो ठोस सोने की बनी एक छोटी-सी ऊखल थी। किसान भोला-भाला और स्वामीभक्त था। उसने सोचा, ‘ऐसी क़ीमती चीज़ तो बस राजा के महल में ही होनी चाहिए। इसका मेरी झोपड़ी में क्या काम? मैं यह राजा साहब को ही भेंटकर दूँगा। शायद बदले में मुझे कुछ धन मिल जाए’।
ऊखल लिये जब वह घर आया तो सबसे पहले उसे चंपाकली ही दिखाई पड़ गई। किसान ने उसे राजमहल जाने का अपना इरादा बताया।
पिता की बात सुनते ही वह बोली, “पिताजी, इसमें कोई शक नहीं कि यह ओखली बहुत ख़ूबसूरत है, पर अमीर लोग तो नकचढ़े होते हैं!, राजा जी इसमें ज़रूर कोई न कोई खोट निकालेंगे। हो सकता है आपको लेने के देने भी पड़ जाएँ।”
“ज़रा बताना तो इसमें क्या खोट है? राजाजी इसमें क्या कमी पाएँगे? मेरी बुद्धू बिटिया रानी!”
“देखना पिताजी, राजाजी कहेंगे:
“ओखली यह सोने की,
बनी बड़ी सुंदर,
पर बोलो हे मूरखराज,
कहाँ है इसका मूसल?”
किसान ने अपने कंधे उचकाए और कहा, “हमारा राजा ऐसा कभी नहीं बोलेगा। तुम क्या उसे भी अपनी तरह बेअक्ल समझती हो?”
किसान ने ओखली एक थैली में डाली और चल पड़ा राज महल की ओर।
पहरेदारों ने पहले तो उसे रोका, लेकिन जब उसने राजा जी को उपहार देने की बात कही तो उसे दरबार में पहुँचा दिया गया।
दरबार में किसान ने राजा से कहा, “अन्नदाता, मुझे अपने खेत में गुड़ाई करते समय यह ठोस सोने की, सुंदर ओखली मिली है। मैं यह मानता हूँ कि यह केवल आपके महल में ही अच्छी लगेगी, इसलिए मैं यहआपको भेंट करना चाहता हूँ, आप मना मत करिएगा।”
राजा साहब ने ऊखल हाथ में पकड़ी। उसे हर ओर से घुमा-फिरा कर देखा। फिर अपना सिर हिलाते हुए बोले,
“ओखली यह सोने की
बनी बड़ी सुंदर
बताओ अब मुझको तुम,
कहाँ है इसका मूसल?”
हूबहू चंपाकली के ही शब्द राजा ने दोहरा दिए थे, बस किसान को ‘मूरखराज’ नहीं कहा क्योंकि राजा की भाषा में एक मर्यादा होती ही है।
किसान अपने पर क़ाबू न रख सका, उसने अपने माथे को ठोंकते हुए कहा, “हे भगवान! बिल्कुल वही शब्द! उसने भी तो यही कहा था।”
“किसने यही कहा था?” राजा ने उत्सुकता दिखाई।
“ग़लती माफ़ करें सरकार!” किसान बोला, “मेरी बेटी चंपाकली ने कहा था कि राजा साहब ऐसा ही कहेंगे। आपने एकदम वही कहा है! मैंने तो उसकी बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल ही दी थी।”
“ऐसा लगता है कि तुम्हारी है बेटी बहुत चालाक है,” राजा साहब ने कहा, “मैं उसे परखना चाहता हूँ कि आख़िर वह है कितनी चतुर!”
फिर राजा साहब ने एक मुट्ठी भर कपास की पुड़िया मँगवाई और उसे किसान को देते हुए बोले, “यह कपास अपने बिटिया के पास ले जाओ और उससे कहो कि जल्द से जल्द मेरी फ़ौज की एक टुकड़ी के लिए कमीज़ें, इस कपास से सूत कातकर, बुन कर, सिल कर भेज दे। फ़ौजियों को कमीज़ें जल्द से जल्द चाहिएँ!”
किसान को तो मानो काटो तो ख़ून नहीं। पर वह करता भी क्या? राजा साहब से ज़बानदराज़ी तो हो नहीं सकती थी!
उसने चुपचाप कपास की पुड़िया उठाई, राजा को सलाम ठोंका और घर की ओर चल पड़ा। ओखली के बदले किसी उपहार की आशा तो बेकार ही थी, सज़ा नहीं मिली यही बहुत था।
घर पहुँच कर वह बेटी से बोला, “बेटी चंपाकली, तुम्हारे बुरे दिन आ गए!”
ऐसा कह कर उसने कपास की पुड़िया उसे पकड़ा दी और सारी बात बता दी।
“पिताजी, आप तो बे-बात ही घबरा जाते हैं। थोड़ा सोचने तो दीजिए कि क्या करना है!” चंपाकली ने कपास की पुड़िया ली और उसमें से कपास निकालकर, पटक-पटक कर झाड़ने लगी। कपास चाहे कितनी भी कुशलता से ओटी (ओटना=रुई से बीज अलग करना) गई हो, एकाध बिनौले तो उसमें छूट ही जाते हैं।
इस समय भी कपास में से दो बीज नीचे गिर पड़े। चंपाकली ने उन्हें उठा लिया और पिता से बोली, “बापू, आप सीधे महल वापस जाइए और राजा से मेरा संदेशा कहिए। मुझे उनकी चुनौती स्वीकार है, बस मुश्किल यह है कि मेरे पास चरखा और करघा नहीं है। मैं सूत कैसे कातूंँगी, और कपड़ा कैसे बुनूँगी? इन बीजों के खोल से वे चरखा और करघा बनवा कर भेज दें। जैसे ही वे ये दोनों चीज़ें बनवा देंगे, उनका काम हो जाएगा।”
इतना कहकर उसने दोनों बिनौले अपने पिता को पकड़ा दिए।
बेचारे किसान की राज दरबार में जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी, पर चंपाकली उसके पीछे ही पड़ गई। झख मारकर वह दरबार में जा पहुँचा।
किसान की बातें और चंपाकली की माँग जानकर राजा की समझ में आ गया कि चंपाकली बहुत चालाक और बुद्धिमान है। उसने किसान से कहा, “तुम्हारी यह बेटी बहुत चतुर है। मैं उससे मिलना चाहता हूँ। तुम उससे राजमहल आने को कहो, मैं उसके साथ बातें करना चाहता हूँ। लेकिन याद रखना—जब वह महल में आए तो, वह न तो कपड़े पहने हो ना ही नंगी हो, न तो वह भूखी आए ना भरे पेट। न तो घोड़े पर और न ही किसी सवारी पर, और पैदल भी न हो, न तो रात में आए और न ही दिन में। यदि वह इन शर्तों को पूरी किए बिना आई तो, मैं तुम दोनों, बाप-बेटी, के सिर क़लम करवा दूँगा। याद रहे हर आज्ञा का पालन होना ही चाहिए!”
किसान बेचारा बड़े टूटे मन से घर लौटा, मौत उसकी आँखों के आगे नाच रही थी। जब चंपाकली ने पूरी बात सुन ली तो बड़ी बेफ़िक्री से बोली, “पिताजी मैं सब कर लूँगी। आप बस मेरे लिए एक मछली पकड़ने का जाल ले आइए!”
अगले दिन चंपाकली बड़ी सुबह ही उठ गई। उसने अपने को जाल में लपेट लिया, इस प्रकार वह न तो नंगी रही और न उसने कपड़े पहने। दो मुट्ठी चबेना खाया—न पेट भरा न भूखी ही रही। एक बकरी को बाड़े से निकाला और उसकी पीठ पर एक गद्दी रख कर इस तरह बैठी कि एक पैर ज़मीन पर लगा रहे और एक पैर ऊपर उठा रहे। इस प्रकार न व सवारी पर थी न घोड़े पर और नहीं वह पैदल जा रही थी।
इसी रूप में वह शाम के झुटपुटे में राजमहल पहुँच गई, जब न दिन था और न रात ढली थी। महल के पहरेदारों ने उसे पगली समझ कर रोकना चाहा, पर जब उन्हें मालूम हुआ कि वह राजा के हुकुम से ही इस तरह आई है तो उसे तुरंत भीतर तक पहुँचा दिया गया।
राजा के सम्मुख पहुँचकर चंपाकली बोली, “महाराज आपकी आज्ञा के मुताबिक़ में आपके सामने हाज़िर हो गई हूँ!”
चंपाकली को देखते ही राजा बेतहाशा हँस पड़े, और बोले, “चतुर चंपाकली, तुम तो बिल्कुल वैसी लड़की हो जिसकी मुझे तलाश थी। मैं तुमसे ही शादी करूँगा और तुम्हें अपनी रानी बनाऊँगा, बस एक शर्त तुम्हें माननी होगी कि तुम राज्य के मामलों में कभी दख़ल नहीं दोगी। बोलो क्या तुम्हें मंज़ूर है?” राजा समझ गया था कि चंपाकली उससे अधिक सयानी थी इसीलिए उसने ऐसी शर्त रखी थी।
जब अनुभवी, किसान पिता ने यह ख़बर सुनी तो बोला, “यदि राजा की इच्छा तुमसे शादी करने की है तो तुम उसका विरोध तो कर नहीं सकतीं, आख़िर वह राजा है! लेकिन तुम्हें हमेशा सावधान रहना होगा क्योंकि जो आदमी ‘मनचाहा’ तुरंत पाना चाहता है, वह ‘अनचाहा’ तुरंत छोड़ना भी तो चाहेगा। इसलिए तुम अपनी यहाँ की चीज़ों को ज्यों-का-त्यों रहने दो। न जाने कब तुम उन्हें ‘नापसंद’ हो जाओ, तो यही सब तुम्हारे काम आएगा।”
चंपाकली अभी कम उम्र थी, उसने पिता की बातों पर बहुत ध्यान नहीं दिया। राजा से शादी की हामी भर दी।
बहुत जल्दी ही पूरे राज्य में विवाह की धूमधाम मच गई। दूर-दूर से लोग शाही शादी की रौनक़ देखने आने लगे, सारी सरायें भर गईं। बहुत से लोगों को सड़कों के किनारे भी सोना पड़ा।
एक किसान अपनी गाभिन (गर्भवती) गाय को लेकर बेचने की इच्छा से उन्हीं दिनों राजधानी आया था। उसे किसी सराय में जगह न मिली। एक सराय मालिक को उस पर दया आ गई, उसने अपनी सराय के पास पड़े छप्पर के नीचे गाय को रात भर रखने की इजाज़त दे दी। किसान ने अपनी गाय के गले की रस्सी पास खड़ी एक गाड़ी के पहिए से बाँध दी।
भगवान की माया, सुबह सब ने देखा कि गाय ने रात में एक बछड़े को जन्म दिया था, जो लुढ़क कर गाड़ी के नीचे चला गया था। गाय का मालिक बहुत ख़ुश हुआ। उसने अपनी गाय और बछड़े को सँभाला और वापस घर जाने की तैयारी करने लगा। तभी गाड़ी का मालिक आया और कड़क कर बोला, “ख़बरदार, जो बछड़े को ले जाने की कोशिश भी की! कल रात तुमने मेरी गाड़ी के पहिए से गाय बाँधी थी, वह तुम्हारी है, पर बछड़ा मेरी गाड़ी के नीचे था, वह मेरा है।”
“पर बछड़ा तो गाय के पेट से बाहर आया है, गाय मेरी है तो बच्चा भी मेरा ही है,” गाय का मालिक बोला।
“तुमने गाय बाँधी थी, गाय खोल लो, वह तुम्हारी है, पर बछड़ा गाड़ी के नीचे था, गाड़ी मेरी है तो बछड़ा मेरा है न!”
बात तूल पकड़ गई। बहस, गाली-गलौज से बढ़ते-बढ़ते हाथापाई तक पहुँची और फिर लट्ठम्-लट्ठ तक जा पहुँची।
शोर-शराबे से राजा के संतरी भी वहाँ आन पहुँचे। दोनों दावेदारों को राज दरबार में न्याय के लिए पेश कर दिया गया।
उस राज्य का नियम कुछ समय पहले तक ऐसा था कि हर मुक़द्दमे का फ़ैसला राजा-रानी मिलकर ही किया करते थे। लेकिन अब, जब चंपाकली से राजा का विवाह हो गया था, तब राजा की शर्त के कारण चंपाकली को दरबार के मामलों में बोलने की मनाही हो गई थी। सो, इन दोनों किसानों का मामला राजा के सामने पेश हुआ। दोनों पक्षों की बात सुनकर राजा ने निर्णय दिया, “बछड़ा तो गाड़ी वाले का ही है क्योंकि वह गाड़ी के नीचे था, और बछड़ा इसी गाय का है इस बात का कोई चश्मदीद गवाह भी नहीं है।”
इस फ़ैसले से गाय वाले किसान को बहुत दुख और निराशा हुई। बेचारा करता भी क्या? राजा का निर्णय अंतिम था।
गाय के मालिक की निराशा और उसके दुख से सराय वाले को उस पर बड़ी दया आई। उसने उसे रानी के पास जाने की सलाह दी, क्योंकि पहले रानियाँ तो दरबार में आया ही करती थीं।
किसान राजमहल पहुँचा और वहाँ के दरबान को अपनी राम-कहानी सुना कर बोला, “भाई साहब, मैं बड़ा दुखी आदमी हूँ। क्या आप किसी तरह मेरी भेंट रानी जी से करवा सकते हैं?”
दरबान बोला, “मैं मजबूर हूँ भाई, राजा साहब ने किसी भी फ़रियादी को रानी से मिलने की सख़्त मनाही कर दी है!”
मरता क्या न करता!
किसान ने चोरी-चोरी महल के आसपास चक्कर लगाने शुरू कर दिए। उसे एक बग़ीचे में रानी चहलक़दमी करती दिखलाई पड़ गईं। फिर क्या था बग़ीचे की बाड़ फाँद कर, गाय वाला अंदर पहुँच गया। रानी के आगे गिड़गिड़ा कर अपने साथ हुए अन्याय की कहानी कह सुनाई।
चंपाकली ने थोड़ी देर विचार किया, फिर बोली, “मेरी बात ध्यान से सुनो, कल राजाजी शिकार खेलने जा रहे हैं। वह एक ऐसी जगह जाएँगे जहाँ एक तालाब इस मौसम में हमेशा सूखा रहता है। तुम अपने साथ मछली पकड़ने वाला एक जाल और बंसी लेकर वहाँ चले जाना। जब राजा साहब दिखाई पड़ें तो ऐसा अभिनय करना मानो तुम मछलियाँ पकड़ रहे हो। राजाजी तुमसे ज़रूर पूछेंगे कि तुम सूखे तालाब में मछलियाँ क्यों पकड़ रहे हो? तब तुम उनसे कहना कि यदि एक गाड़ी बछड़ा पैदा कर सकती है, तो क्या सूखे तालाब में मछलियाँ नहीं मिल सकती?”
अगले दिन किसान बंसी और जाल से लैस होकर सूखे तालाब पर पहुँच गया। सारी घटना वैसे ही घटी जैसा चंपाकली ने किसान को बताया था। किसान का उत्तर सुनते ही राजा हैरानी में पड़ गया। वह किसान से ज़ोर से बोला, “यह तुम किसकी बोली बोल रहे हो? तुम तो ऐसा कभी सोच भी नहीं सकते! सच-सच बताओ, क्या तुम रानी से मिले थे?”
किसान इनकार न कर सका। उसने तुरंत मान लिया कि ऐसा करने की सलाह उसे रानी से ही मिली थी। राजा जी ने तुरंत नया फ़ैसला सुनाया और बछड़ा गाय के मालिक को दिलवा दिया।
महल लौटते ही उन्होंने चंपाकली को बुलवाया और बोले, “मैंने शादी के समय जो शर्त रखी थी, तुमने उसे पूरा नहीं किया। तुमने मेरे किए फ़ैसले का विरोध किया। तुम्हें राजकाज के मामलों में नहीं पड़ना चाहिए था। अब इस राजमहल में जो भी चीज़ें तुम्हें अच्छी लगती हों, उन्हें अपने साथ लेकर, रात होने से पहले, अपने गाँव के घर वापस चली जाओ और एक किसान की बेटी की तरह ही सारी ज़िन्दगी बिताओ।”
चंपाकली ने सिर झुका कर जवाब दिया, “आप जैसा चाहते हैं वैसा ही होगा महाराज! बस! आपसे एक विनती है कि शाम के समय मुझसे जाने को न कहें। घर की लक्ष्मी को संध्या समय घर से निकालने पर आपकी प्रजा में आपकी बदनामी होगी।”
“ठीक है,” राजा ने कहा, “आज रात हम आख़िरी बार एक साथ खाना खाएँगे। कल सुबह तुम चली जाना।”
अब चतुर चंपाकली रसोई में गई और रसोइयों से तला-भुना, स्वादिष्ट और गरिष्ठ व्यंजन बनाने को कह दिया। भोजन के साथ पीने के लिए स्वादिष्ट और क़ीमती मदिरा निकलवाई।
सुस्वाद भोजन खाया भी अधिक जाता है और उसके बाद आलस्य भी अधिक आता है। राजा का मन कुछ खिन्न तो था ही सो मदिरा भी कुछ अधिक ही पी ली। परिणाम यह हुआ कि खाना ख़त्म होते न होते राजा साहब आलस्य और निद्रा में ऐसे डूबे कि वहीं अपनी कुर्सी पर ही ढेर हो गए।
रानी चंपाकली ने सेवकों को आज्ञा दी, “राजाजी के समेत कुर्सी उठायें और बिना ना-नुकुर किए जैसा कहा जाए वैसा करते चलें वरना. . .”
वह महल से निकली और राजधानी के रास्तों से होती हुई, देर रात अपने गाँव पहुँच गई।
घर पहुँच कर उसने आवाज़ लगाई, “पिता जी, दरवाज़ा खोलिए, आपकी बेटी आई है।”
बेटी की आवाज़ सुनकर वृद्ध पिता दौड़कर खिड़की के पास आया, “इतनी रात गए आई है बिटिया! मैंने पहले ही कहा था, ऐसे आदमी का कोई भरोसा नहीं है। तुम्हारा कमरा वैसा-का-वैसा ही है। आओ बेटी!”
“पिता जी जल्दी दरवाज़ा खोलिए,” चंपाकली बोली, “बातें हम बाद में करेंगे।”
किसान ने जब दरवाज़ा खोला तो देखा कि नौकर राजा साहब को कुर्सी में लिए खड़े हैं। चम्पाकली ने राजाजी को अपने कमरे तक ले जाकर, उनके जूते उतरवा कर, उन्हें बिस्तर में लिटवा दिया। सेवकों को वापस कर दिया और ख़ुद राजा जी के बग़ल में लेट गई।
कुछ देर बाद राजा जी की नींद टूटी, शायद बिस्तर महल के बिस्तर जितना नरम-मुलायम न था। उन्होंने करवट बदली तो उन्हें लगा कि उनकी पत्नी बग़ल में है। वह बोले, “चंपाकली, मैंने तो तुम्हें अपने गाँव के घर वापस चले जाने को कहा था। तुम गई नहीं?”
“जी हाँ! स्वामी, लेकिन अभी सुबह नहीं हुई है। आप सो जाइए,” चंपाकली का उत्तर था। राजा जी फिर सो गए।
सुबह उनकी नींद मुर्गे की बाँग और बकरियों की मिमियाहट से खुली। खिड़की से सूरज की रोशनी आ रही थी। उनकी नींद तुरंत भाग गई, वह उठ बैठे और रानी से बोले, “चंपाकली, आख़िर मैं हूँ कहाँ?”
चंपाकली बोली, ” महाराज, आपने ही तो मुझे महल से अपनी प्रिय वस्तुएँ साथ ले जाने के लिए कहा था। मैं आपको लेकर, सुबह-सुबह, अपने घर आ गई हूँ, क्योंकि महल में मेरे सबसे प्रिय आप ही हैं। अब मैं आपके साथ यहीं रहूँगी।”
राजा जी दिल खोलकर फिर हँसे और चंपाकली को अपनी बाँहों में भर लिया।
वे चम्पाकली को साथ लेकर महल में लौट आए। कहते हैं कि अभी भी वे महल में रहते हैं और चतुर चंपाकली को हर दिन अपने साथ दरबार में भी ले जाते हैं।
“बस आज के लिए इतना ही सही,
एक और कहानी फिर कभी।”
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