मन की लहरें

15-11-2025

मन की लहरें

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 288, नवम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

मध्य प्रदेश के पर्यटन के दौरान
भोपाल से पचमढ़ी जाते हुए
रास्ते में विंध्य और सतपुड़ा की पर्वत शृंखलाएँ
क्षितिज को घेरती
पर्वत शिखरों को चिह्नित करती
तरंगित, वलयित रेखाएँ, 
 
विस्तृत सुनहरे मैदान
जिन से कट चुका था 
जीवन पोषक धान, 
और फिर
सतपुड़ा की पहाड़ियों के
सघन वन प्रांतर
मेरी दृष्टि में
मानो राम का वन-गमन उतर आया
कल्पना में मेरी विचरने लगे ‘राम’, 
जानती हूँ नहीं मैं
यह “दंडक वन” है या नहीं
परन्तु क्या वनों पर लिखे होते हैं नाम? 
वट, बेर, कीकर, पलाश
पीपल, बरगद, मधूक
यही तो है उन वृक्षों के नाम
जो लिखे हैं वाल्मीकि ने
अपनी ‘रामायण’ में
उगे थे वहाँ, जहाँ-जहाँ गए थे राम! 
चलते थे नग्न-पद
पीछे-पीछे लखन लाल
एक श्यामल, एक गौर वर्ण
दोनों चलते लिए धनुष, 
कंधे लगा तूणीर
जिसमें भरे थे
तीखे नुकीले कई तरह के बान, 
 
ढूँढ़ती थी नज़रें उनकी
जनक की दुलारी को
दशरथ की प्यारी पतोहू
मिथिला की राजकुमारी को, 
इन भिन्न-भिन्न वृक्षों, 
इन्हीं वनस्पतियों से, 
विरह-वेदना से होकर व्याकुल 
पूछा होगा
अपनी खोई हुई प्राण-प्यारी परिणीता का पता ठिकाना? 
दूर करने को क्लान्ति, 
पाने को विश्रांति
दो पल बिलमाए होंगे
क्या इन्हीं वक्षों की छाया में? 
ये सुदर्शन, सुदीर्घजीवी, सघन वन 
ले जाकर त्रेता युग में मुझे 
जोड़ आए उन पथों से मुझको, 
जहाँ पर कभी विचरे थे
सीता के पति राम
 
ये वन ही हमें जीवन देते, 
धरती को सजाते हैं
पर इन वृक्ष, इन वनस्पतियों में से हम 
कितनों के नाम भी जान पाते हैं? 
 
हम से अपरिचित, रह कर अनजान
दत्तचित्त हो कर हमारे लिए
उपजाते रहते हैं
औषधियाँ, 
भोजन और सबसे बढ़कर
देते हैं हमें स्वच्छ वायु, जीवित रखने को हमें, 
सुरक्षित रखने को हमारे प्राण, 
और हम मूढ़, अकृतज्ञ, कृतघ्न मानव
करते हैं दोहन इनका
तत्पर रहते हैं सदा लेने को इनके प्राण? 

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