नेक दिल
सरोजिनी पाण्डेय
मूल कहानी: बेला फ्रोन्टे; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (फ़ेयर ब्रो); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय
प्रिय पाठक,
हम में से अधिकांश यह सोचते हैं कि पश्चिम का दर्शन आत्मा-परमात्मा, पाप-पुण्य, पुनर्जन्म नहीं मानता। परन्तु यहाँ की कथाओं और जनश्रुति में भी आदिकाल से आत्मा ओर पुनर्जन्म के होने के प्रसंग के संकेत मिलते हैं। यहाँ प्रस्तुत कहानी में भी आत्मा और पुण्य कर्म का उल्लेख है।
आनंद लीजिए इस इतालवी लोक कथा का—
एक व्यापारी का बेटा जब स्कूली शिक्षा पूरी कर चुका, तब उसने अपने बेटे को बुलाया और कहा, “बेटा अब, जब तुम स्कूल की किताबें पढ़ चुके हो, तो व्यापारिक यात्रा करने का समय आ गया है। मैं तुम्हें इस काम के लिए कुछ पूँजी और एक जहाज़ दूँगा। तुम व्यापार करना सीखो। माल चढ़ाना, उतारना, ख़रीदना-बेचना कैसे होता है? लाभ-हानि क्या है? सब जानो। मैं चाहता हूँ कि तुम ईमानदारी और मेहनत से धन कमाओ।”
व्यापारी ने व्यापार करने के लिए बेटे को सात हज़ार अशर्फ़ियों की पूँजी और एक जहाज़ देकर यात्रा पर भेज दिया। कुछ समय की यात्रा के बाद युवक व्यापारी एक बंदरगाह पर पहुँचा। वहाँ के तट पर उसने देखा कि ताबूत में बंद एक शव रखा है और आने-जाने वाले लोग उसके पास कुछ धन दान कर रहे हैं। इस विचित्रता से उसे दुख हुआ। उसने वहाँ जाकर लोगों से कहा, “मृत शरीर को ऐसे रखना ठीक नहीं है, इसको तो तुरंत दफ़न कर देना चाहिए।”
“यह व्यक्ति जब मरा तो कुछ लोगों का क़र्ज़दार था,” उसे वहाँ के लोगों ने बताया, “इस जगह का रिवाज़ है कि क़र्ज़दार को तब तक दफ़न नहीं किया जाता, जब तक कि लोगों के क़र्ज़ की रक़म पूरी उतर न जाए। रक़म पूरी मिल जाने पर ही इसे दफ़न किया जाएगा।”
इस पर व्यापारी के बेटे ने कहा, “उसके सभी लेनदारों से कहो कि वह मेरे पास आ जाएँ। मैं इनका क़र्ज़ उतारने की कोशिश करूँगा, जिससे शव का अंतिम संस्कार जल्द से जल्द किया जा सके।”
शहर में इस बात की मुनादी करवा दी गई। मृतक को क़र्ज़ देने वालों को धन लौटाते-लौटाते युवक व्यापारी का हाथ ख़ाली हो गया, लेकिन मुर्दा दफ़न हो गया। लड़का ख़ाली हाथ अपने घर लौट आया।
उसे वापस आया देख व्यापारी ने पुत्र से पूछा, “तुम इतनी जल्दी कैसे आ गए और आए भी हो ख़ाली हाथ?”
बेटे ने धीरे से कह दिया, “मैं अभी समुद्र में पहुँचा ही था कि समुद्री डाकुओं ने हमला कर दिया, सारा धन लूट ले गए।”
व्यापारी ने स्नेह से कहा, “चिंता मत करो बेटा, ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है कि उन्होंने तुम्हें नहीं मार डाला, केवल धन ले गए! मैं फिर से तुम्हें पूँजी दूँगा। अब ध्यान रखना और उस तरफ़ दोबारा न जाना।”
एक बार फिर व्यापारी ने अपने बेटे को सात हज़ार अशर्फ़ियाँ देकर माल ख़रीदने को भेज दिया।
“पिताजी, आप विश्वास रखिए, अब मैं उधर नहीं जाऊँगा।” कह कर युवक फिर व्यापार सीखने निकल पड़ा।
बीच समुद्र में उसने तुर्कों के जहाज़ देख लिए। युवक ने सोचा, “इन ख़ूँख़ार तुर्कों से टकराना ठीक नहीं होगा। इन से दोस्ती ही कर लेनी चाहिए। मैं इन्हें अपने ज़हाज़ पर आने की दावत देने ख़ुद जाऊँगा।”
ऐसा विचार करके वह वह तुर्कों के जहाज़ पर चला गया और मुखिया के पास जाकर बोला, “आप लोग किस ओर से आ रहे हैं?”
उत्तर मिला, “हम पूर्व दिशा की ओर से आ रहे हैं।”
“कौन सा माल लेकर आ रहे हैं आप?”
“और कुछ नहीं, बस एक सुंदर युवती।”
“यह युवती कहाँ जा रही है?”
“हम इसे बेचने के लिए ले जा रहे हैं। यह हमारे सुल्तान की बेटी है। हम इसकी सुंदरता के कारण इसे उठा लाए हैं और जो अच्छा दाम देगा उसे बेच देंगे।”
“क्या मैं उसे देख सकता हूँ?” युवक ने पूछा।
युवती सचमुच अपूर्व सुंदरी थी। उसे देखते ही युवा व्यापारी का दिल उस पर आ गया . . . सोचने लगा कि यदि उसे बाज़ार में बेचा जाएगा तो वह न जाने किसके पल्ले पड़े और इस सुकुमारी को न जाने कितने दुख झेलने पड़ें। मन ही मन डरते हुए उसने तुर्कों से युवती का दाम पूछ लिया। डाकू तुर्कों के सरदार ने कहा, “सात हज़ार अशर्फ़ियाँ से एक भी कौड़ी कम हम नहीं लेंगे?”
इस बार युवक ने फिर अपनी सारी पूँजी उन तुर्क लुटेरे को देकर सात हज़ार अशर्फियों से उस युवती को ख़रीद लिया और अपने साथ ले आया।
एक बार फिर सारा धन ख़त्म हो गया था और कोई माल नहीं ख़रीदा गया था, लेकिन वह संतुष्ट था। वह अपने पिता के पास लौट आया।
इस बार फिर उसे बिना माल के देखकर पिता बोला:
“मेरा बेटा वापस आया
देखें वह क्या सौदा लाया?”
बेटे ने प्रसन्नता से कहा,
“प्यारे पापा ज़रा देखो इधर
लाया हूँ मैं कैसा रतन,
उसे देख आप होंगे मगन
जिसको बनाऊँगा अपनी दुलहन,
अकेली हसीना वो इस जहान की
बेटी है तुर्की के सुल्तान की,
दिलो-जान से हूँ मैं उस पर फ़िदा
वही तो है मेरा पहला सौदा।”
“जड़ बुद्धि! बस यही सौदा लेकर आया है!”
बड़े सौदागर ने ग़ुस्से में जलते हुए कहा और उन दोनों को घर से बाहर निकाल दिया।
बेचारा लड़का, देखते-देखते घर से बेघर हो गया। उसे कुछ समझ में नहीं रहा था कि क्या करे? कहाँ जाए? वह तो कौड़ी-कौड़ी को मोहताज हो गया था। ऐसे कठिन समय में सुल्तान की बेटी ने उसे ढाढ़स दिया और बोली, “तुम हौसला रखो, मैं चित्रकला जानती हूँ। मैं सुंदर चित्र बनाऊँगी और तुम उन्हें बाज़ार में बेचना, बस एक बात का ध्यान रखना कि किसी को यह ना मालूम हो कि चित्रकार कौन है।”
इधर तुर्की के सुल्तान ने अपनी बेटी की खोज में चारों दिशाओं में कुछ कुछ सैनिकों के साथ अपने नाविक भेजे।
दैवयोग से एक नाविक अपना पोत लेकर उस नगर में भी जा पहुँचा जहाँ व्यापारी का बेटा सुल्तान की बेटी के साथ रह रहा था।
शहर में नए लोगों को पोत से उतरते देखकर व्यापारी पुत्र बहुत ख़ुश हुआ। घर जाकर अपनी पत्नी से बोला, “बीवी नए चित्र बनाओ क्योंकि बहुत सारे नए-नए लोग शहर में आए हैं। चित्रों की बिक्री अच्छी होगी।”
सुल्तान की बेटी शहज़ादी ने बहुत मेहनत से कई नए चित्र बनाए। पति को बेचने के लिए देते समय बोली, “इनको बनाने में बहुत मेहनत लगी है, कोई भी चित्र बीस अशर्फियों से कम का मत बेचना।”
युवक चित्र लेकर बाज़ार गया और चौराहे पर बेचने लगा। कई तुर्क उधर से गुज़र रहे थे। जब उन्होंने इन तस्वीरों को देखा तो आपस में बातें करने लगे, “ऐसी सुंदर तस्वीर तो हमारे सुल्तान की साहबज़ादी ही बना सकती हैं। हो न हो यह सब उसी ने बनाए होंगे।”
वे चित्रों को और अधिक पास से जाकर देखने लगे। एक ने व्यापारी युवक से उनका दाम पूछा। व्यापारी के बेटे ने कहा, “यह चित्र थोड़े महँगे तो ज़रूर है लेकिन हैं नायाब, मैं किसी का भी दम बीस अशर्फ़ी से कम नहीं लूँगा।”
“ठीक है, हम ज़रूर खरीदेंगे! लेकिन कुछ तस्वीरें थोड़ी अलग तरह की भी बनाओ!”
“ठीक है आप घर आइए और मेरी बीवी से बात करिए सारे चित्र वही बनाती हैं। आपकी ज़रूरत के हिसाब से नए बना देंगीं।”
कुछ तुर्क व्यापारी युवक के साथ उसके घर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपने सुल्तान की बेटी को देखा। वे उसे तुरंत पकड़ कर, बाँधकर अपने साथ लेकर वापस तुर्की चले गए। बेचारा अकेला निहत्था युवक मन मसोस कर रह गया।
उसका दिल टूट गया था। वह हर ओर से भाग्य का मारा था, न घर, न धन, न बीवी और न ही कोई काम-धंधा!
वह रोज़ बंदरगाह जाता, इस आशा से कि कोई आता-जाता जहाज़ उसे नौकरी पर ले लेगा, पर रोज़ ही निराशा हाथ लगती।
ऐसे ही निराशा भरे दिनों में एक दिन उसने एक वृद्ध मछुआरे को अपनी छोटी सी नाव में बैठकर मछली पकड़ते देख उसके मुख से अचानक ही निकल पड़ा, “काका आप कितने भाग्यशाली हैं और मैं कितना अभागा!”
“ऐसा क्यों रहते हो बेटा?”
“मैं भी आपकी तरह मछलियाँ पकड़ना चाहता हूँ।”
“अगर सचमुच ही तुम मछलियाँ पकड़ना चाहते हो तो मेरे साथ, मेरी नाव पर चले आओ। तुम्हारी ताक़त और मेरी नाव मिलकर बहुत कुछ कर सकते हैं।”
इस तरह युवक उस वृद्ध की नाव पर सवार हो गया, समझौता हुआ कि जो कुछ भी मिलेगा, अच्छा या बुरा उसमें दोनों बराबर के हिस्सेदार होंगे। सबसे पहले तो उसी दिन बूढ़े मछेरे ने अपना भोजन युवक को आधा देकर स्वयं आधा खाया। खाना खा कर दोनों सो गए।
रात में अचानक बहुत तेज़ तूफ़ान आया। नाव तेज़ हवाओं में फँस गई। वह हिचकोले खाती, इधर-उधर न जाने कब तक भटकती रही और जब सब कुछ शांत हुआ तो नाव तुर्की के तट पर आ लगी थी।
तट के कर्मचारियों ने जब एक विदेशी नाव को तट पर देखा तो उसे पकड़ लिया और दोनों मछुआरों को सुल्तान के सामने पेश कर दिया। सुल्तान ने इन दोनों को अपने बग़ीचे में काम करने का हुक्म दिया। बूढ़ा मछुआरा सब्ज़ियों की क्यारियों की देखभाल में लगा दिया गया और युवक को फुलवारी में माली का काम करना था। इन दोनों क़ैदियों ने वहाँ के अन्य कर्मचारियों से मित्रता कर ली और सुल्तान की बग़िया में आराम से दिन काटने लगे।
अपने फ़ुर्सत के समय में बूढ़ा मछुआरा बाँस से बाँसुरी बनाता, लकड़ी से एकतारा और सितार बनाता और युवक उन पर धुनें बजाता और कभी-कभी गाता भी।
दिन तो बीतने ही थे सो बीत भी रहे थे।
एक बार महल से ग़ायब हो जाने के कारण शहज़ादी को भी एक ऊँची मीनार में अपनी दासियों के साथ क़ैदी की तरह रख दिया गया था। एक दिन जब उसने संगीत की स्वर लहरियाँ सुनीं तो उसे अपने पति की याद आ गई, स्वर उसे जाना-पहचाना लगा उसका ‘नेक-दिल’ पति भी तो इसी तरह सुरीली आवाज़ में प्रेम गीत गाता था! उसने अपनी नौकरानी, जो उसकी सहेली भी थी, उससे कहा, “जिस जवान ने मुझे डाकुओं से छुड़ाया था और फिर मुझसे ब्याह भी किया था, मेरा ‘नेकदिल’ (वह अपने पति को इसी नाम से बुलाने लगी थी) इसी तरह गाता था और धुनें बजाता था। यह बग़ीचे में कौन है जो गा रहा है?”
नौकरानी उसे मीनार की छत पर ले गई और जब शहज़ादी ने बग़ीचे में झाँका तो उसे लगा मानो वह अपने नेकदिल को ही साक्षात् देख रही है। वह उसे अपने पास बुलाने के उपाय सोचने लगी।
शहज़ादी के लिए रोज़ एक टोकरा भर फूल बग़ीचे से आते थे। अगले दिन जब नौकरानी टोकरा लेकर फूल लेने जाने लगी तो शहज़ादी ने उससे कहा कि वह नौजवान माली को फूलों की टोकरी में बिठा कर, फूलों में छुपा कर मीनार में ले आए! नौकरानियों को भी मस्ती सूझी, वे सचमुच माली को टोकरी में फूलों के अंदर छुपा कर मीनार में ले आईं। हिचकोले खाते टोकरे को जब उन लोगों ने धम्म से ज़मीन पर पटका तो युवक को झटका लगा वह अचकचा कर खड़ा हो गया और सामने अपनी पत्नी को खड़े देख हैरान रह गया। दोनों दौड़ कर एक दूसरे के गले लग गए। अब वहाँ से कैसे भाग निकलें, इस बात की योजना बनने लगी। शहज़ादी ने एक जहाज़ पर चुपके-चुपके सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात के गहने, धन, अशर्फ़ी एक जहाज़ पर लदवाने शुरू कर दिये।
कुछ दास-दासियाँ भी उसने वहाँ रख लिए और एक रात चोरी-चोरी जहाज़ का लंगर उठा वे समुद्र में निकल पड़े।
अभी जहाज़ खुले पानी में पहुँचा ही था कि व्यापारी युवक को अपने वृद्ध साथी मछुआरे की याद आई। उसने अपनी बीवी से कहा, “मेरी रानी, चाहे मेरी जान जाए या मैं पकड़ा जाऊँ पर मैं विश्वासघात नहीं कर सकता। मैंने बूढ़े काका से अच्छी-बुरी हर चीज़ की साझेदारी का वादा किया है। मैं उन्हें लेने जाऊँगा।”
जहाज़ को र तुरंत वापस मोड़ा गया। वृद्ध मछुआरा तट पर उनका इंतज़ार कर ही रहा था। उसे जहाज़ पर चढ़ाकर वे फिर समुद्र की ओर चल पड़े।
अब नेकदिल ने बूढ़े काका से कहा, “काका जैसा कि हम दोनों में क़रार हुआ था, जहाज़ पर लगी मेरी इस सारी धन-दौलत ने आपका आधा हिस्सा है और बाक़ी आधा मेरा है।”
“तुम्हारी बीवी पर भी वही बात लागू होगी!” बूढ़ा बोला, “आधी शहज़ादी तुम्हारी और आधी मेरी बीवी होगी, मंज़ूर है?”
अब युवक का गला भर आया। वह भरे गले से बोला, “मैं आपके एहसान के बोझ से दबा हूँ, वादे से हट नहीं सकता लेकिन एक विनती करता हूँ कि आप मेरी सारी धन-दौलत ले लें, लेकिन मेरी पत्नी सिर्फ़ मेरे लिए रहने दें।”
“तुम सचमुच नेक-दिल हो नेकदिल सचमुच तुम्हारे दिल में रहम और नेकी है! तुम्हें याद है तुमने एक बूढ़े के अंतिम संस्कार में अपनी सारी पूँजी लगा दी थी, मैं उसी की आत्मा हूँ। उसी पुण्य के कर्म से तुम्हें यह भाग्य मिला है।” यह कह कर बूढ़े ने उन दोनों को आशीर्वाद दिया और वहाँ से अंतर्धान हो गया।
कुछ ही समय में जहाज़ पानी पर तैरता हुआ बड़े व्यापारी के नगर के तट पर जा पहुँचा। वहाँ उसका स्वागत करने सारा नगर उमड़ पड़ा। पिता ने पुत्र को गले लगाया और पुत्रवधू को आशीष दिया।
“सौ बरस का जीवन उन दोनों ने जिया,
बस मुझ बेचारी को कभी कुछ ना दिया!”
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