समय की अबूझ गति
सरोजिनी पाण्डेय
“सुख-दुख दोनों रहते जिसमें
जीवन है वह गाँव,
कभी धूप तो कभी छाँव!”
“कभी घी-घना, कभी मुट्ठी भर चना।”
“तक़दीर धरावै तीनि नाम
परसू, परसोतम, परशुराम”
उपर्युक्त सभी और इसके जैसे अनेक मुहावरे हमारी बोली, भाषा और साहित्य में भरे पड़े हैं जो समय की परिवर्तनशीलता को उजागर करते हैं, कठिनाई के समय मनुष्य को धैर्य धारण करने की शिक्षा देते हैं।
आज बैठे-बैठे अनायास ही समय की इस परिवर्तनशीलता पर ध्यान उस समय चला गया, जब दूरदर्शन पर प्रयागराज में महाकुंभ स्नान की इच्छा से आए हुए श्रद्धालुओं का जमघट देखा।
पिछले डेढ़ महीने से केवल भारत में ही नहीं विश्व में करोड़ों निगाहें इस ‘जनसमुद्र’ पर लगी हुई है, जहाँ विश्व के कोने-कोने से आए हुए श्रद्धालु, त्रिवेणी में एक डुबकी लगाकर अपना जीवन धन्य करना चाहते हैं!
एक छोटे से शहर, प्रयागराज में वैश्विक जन समुदाय का एकत्रित होना मुझे 4 वर्ष पहले ई. 2021 के इन दिनों की याद दिलाने लगा, जब सड़कें वीरान लगती थीं। ट्रेन, हवाई जहाज़, बसें और कारें चलना बंद हो गई थीं। छोटे से लेकर बड़े तक अपने घरों में क़ैद थे। सारा विश्व ‘करोना काल की तालाबंदी’ के कारण मानों ‘मृत’ सा ही हो गया था। विटामिन सी की गोलियाँ खाकर, गिलोय का पानी पीकर, मास्क पहन कर भी हर घर में लोग काल के गाल में समा रहे थे। कितनों की साँसें घुट रही थीं, जिनकी साँसें चल भी रही थीं, वे भी मौत के साए में ही जी रहे थे कि न जाने कब किसके गले पर काल अपने पंजे टिकाकर साँसें घोंट दे! हर घर से शव निकलते थे।
वैज्ञानिक प्रयोगशाला में जान की बाज़ी लगाकर अनुसंधान में लगे थे कि कैसे जल्दी से जल्दी इस प्राणघाती रोग पर नियंत्रण पाया जा सके। राजतंत्र इस जनहानि का दोषी क़रार दिया जा रहा था।
न जाने कितने व्यापार बंद हो गए थे लोगों की जीविका छूट गई थी, अपने घर-गाँव वापस जाने के लिए सवारी का मिलना दुश्वार हो गया था। आजीविका के अवसर बंद हो जाने से लोग भुखमरी तक के शिकार होने की सीमा तक पहुँच गए थे। सरकार द्वारा मुफ़्त अनाज और धार्मिक संस्थाओं द्वारा सदाव्रत चलाए जा रहे थे। और आज के समाचारों में पढ़िए कि दातुन बेचकर एक दिन में हज़ारों रुपए कमाए जा रहे हैं। शहर के पास के एक खेत को पार्किंग के लिए देकर एक किसान ने महीने के लाख रुपए कमा लिए क्रोना काल में समाचार पत्र ऐसे समाचार दे रहे थे मानो यह प्रलय का संकेत हो। सृष्टि का विनाश, नव सृजन की आहट! और आज की स्थिति देखिए, मात्र चार वर्ष के अंतराल में ही ‘काल’ की गति कैसी बदली है!
इस पृथ्वी पर हमारे देश में विश्व का सबसे वृहद् जनसमूह एकत्रित हुआ है। न लोगों ने मास्क पहने हैं, न टीके लगवाए है, न सैनिटाइज़र की व्यवस्था है और न ही सरकारों को ऑक्सीजन के सिलेंडर की व्यवस्था करने का भय सता रहा है!
(मुझे याद आता है कि आज से 62-63वर्ष पूर्व हरिद्वार के कुंभ स्नान में मेरे पिताजी अपने परिवार के साथ स्नान के लिए जाना चाहते थे। इसके लिए पूरे परिवार को हैजे का टीका लगवाना अनिवार्य था। मेला क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले हर यात्री के टीकाकरण का प्रमाण पत्र देखा जाता था और यदि टीका न लगा हो तो यात्रियों को वहीं पर टीके भी लगाए जाते थे। इस टीके के बाद सामान्य रूप से एक-दो दिन बुख़ार भी आता था और उसके बाद ही रोग से प्रतिरोध की क्षमता शरीर में उत्पन्न होती थी।)
शायद अब किसी को हैजा (कॉलरा) का रोग होता ही नहीं होता या फिर जनता ने स्वच्छता को इतना अपना लिया है कि हैजा जैसा संक्रामक रोग फैलने नहीं पाता! यह भी तो समय का परिवर्तन ही है, कम से कम मैं तो यही मानती हूँ।
कहाँ 4 वर्ष पहले का करोना की दूसरी लहर का सन्नाटा, मृत्यु का नग्न-नृत्य कहाँ प्रयागराज, काशी, विंध्यवासिनी देवी, अयोध्या इत्यादि तीर्थ स्थलों पर सागर की लहरों की तरह उमड़-उमड़ कर हिलोरें मारता जनसमुद्र! कहाँ तो करोना काल की निष्प्राण, एकाकी, स्दपंदनहीन सड़कें, कहाँ तीर्थ स्थलों के आसपास 300 किलोमीटर का जाम! काशी, प्रयाग, अयोध्या आदि नगरों में दिखलाई पड़ती पूरे भारत के राज्यों की गाड़ियाँ! हर दिन नयी चलायी जाने वाली, यात्रियों के लिए विशेष गाड़ियाँ, उन में भरे हुए स्त्री, पुरुष, बालक, बालिकाएँ, युवक-युवतियों, वृद्ध-शिशु, कहीं कोई तुलना हो सकती है?
यदि कहीं कुछ समझ में आता है तो विरोधाभास! विरोधाभास का भी परम चरम शीर्ष।
क्या सचमुच पूर्वजों ने जीवन का परम सत्य हमें समझाया है?
“समय बड़ा बलवान और काल की गति विचित्र!”
“रहिमन चुप ह्वै बैठिए, देखी दिनन को फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनात न लगि है बेर॥”
और जब बुरे दिनों में मन अधीर हो तो हृदय से गाइए:
“मन रे तू कहे न धीर धरे”
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