मंत्रित महल
सरोजिनी पाण्डेयमूल कहानी: इल् पलाज़ो इनकैनटाटो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो; अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द एंचांटेड पैलेस);
पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स; हिन्दी में अनुवाद: ‘मंत्रित महल’
बहुत पुराने समय की बात है, एक राजा का एक बेटा था, जिसका नाम था ज्ञानेंद्र। जैसा उसका नाम वैसा ही स्वभाव, बस दिन रात किताबें पढ़ता रहता। अपने कमरे में बैठकर हरदम अपनी आँखें-नाक किताबों में घुसाए रखता। जब आँखें थक जातीं तो अपनी जगह से उठकर कमरे की खुली खिड़की के बाहर झाँक कर कभी महल की फुलवारी को निहारता और कभी दूर पर दिखलाई पड़ने वाले जंगल को घूरता हुआ कुछ सोचता रहता।
एक दिन एक नवयुवक विशेष शिकारी राजा के पास आया। यह बचपन में राजकुमार के साथ खेलता-कूदता था क्योंकि दोनों हमउम्र थे। शिकारी युवक ने राजा से कहा, “महाराज क्या मैं राजकुमार से मिल सकता हूँ? उनको तो देखे हुए भी बहुत दिन हो गए।”
राजा ने तुरंत कहा, “क्यों नहीं? तुम्हारा आना तो मेरे प्यारे बेटे को भी बहुत अच्छा लगेगा, उसका मन बदलेगा।”
जब शिकारी युवक राजकुमार के कमरे में पहुँचा तो उसे देखकर राजकुमार ज्ञानेंद्र बोला, “तुम अपने इन भारी-भरकम बूटों में ही महल में कैसे आ गए?”
“मैं राजा का शिकारी हूँ!” नवयुवक बोला। फिर बड़ी देर तक वह ज्ञानेंद्र के साथ जंगल में शिकार करने के क़िस्से, तरह-तरह के जानवरों की बातें, पक्षियों के स्वभाव आदि के बारे में बतियाता रहा। यह सब सुनकर ज्ञानेंद्र की कल्पना जाग उठी। वह अपने बालसखा से कह बैठा, “सुनो दोस्त, मैं भी अपना हाथ शिकार करने पर आज़माना चाहता हूँ, लेकिन यह बात मेरे पिताजी से तुम नहीं कहोगे। इससे वह समझेंगे कि मैं तुम्हारे कहने में आ गया हूँँ। किसी दिन मैं ही उनसे शिकार पर जाने की बात कहूँगा।”
“मित्र, जैसा तुम चाहोगे वैसा ही होगा,” नवयुवक शिकारी बोला।
अगली सुबह नाश्ते के समय ज्ञानेंद्र ने अपने पिता से कहा, “पिताजी, कल मैं जंगल और शिकार के बारे में एक किताब पढ़ रहा था। वह इतनी मज़ेदार थी कि मैं स्वयं भी जंगल में शिकार करने के लिए जाना चाहता हूँँ। क्या मुझे आप जाने की आज्ञा देंगे?”
“शिकार करना एक ख़तरनाक खेल है बेटा,” राजा बोले, “फिर तुम तो जंगल से अनजान ही हो, लेकिन मैं तुम्हें रोकूँगा नहीं क्योंकि तुम अपनी इच्छा से यह कला सीखना चाहते हो। हाँ, मैं यह ज़रूर चाहूँगा कि तुम अपने साथ एक सहायक रखो। मेरे अपने शिकारी को तुम साथ ले जा सकते हो। वह तुम्हारा बचपन का साथी भी है। तुम पहली बार शिकार करने जा रहे हो इसलिए अपने दोस्त को अपनी आँखों से ओझल न होने देना। उसे जंगल की बहुत जानकारी है।”
अगले दिन सुबह-सवेरे ही ज्ञानेंद्र और राजा का नवयुवक शिकारी अपनी बंदूकें कंधों पर कसकर तैयार हुए, घोड़े पर चढ़े और घोड़े कुदाते चल पड़े जंगल की ओर। वहाँ पहुँचकर जिस भी चिड़िया, ख़रगोश पर नज़र पड़ती उस पर शिकारी निशाना लगता और मार गिराता। बेचारा ज्ञानेंद्र कोशिश तो बहुत कर रहा था, पर हर बार उसका निशाना चूक जाता।
दिन ढलते-ढलते शिकारी का झोला तो भर गया लेकिन ज्ञानेंद्र के हिस्से में कोई चिरैया का पूत भी ना आया था।
शाम के घिरते धुँधलके में ज्ञानेंद्र को झाड़ी में छुपा एक नन्हा-सा खरहा दिखाई दिया। उसने उस पर निशाना लगाया लेकिन फिर उसने सोचा कि खरहा इतना नज़दीक और इतना छोटा है कि वह उसे तो अपने हाथों से ही पकड़ लेगा। वह झाड़ी के निकट पहुँचा, ख़रगोश सरपट भागा और पीछे-पीछे ज्ञानेंद्र भी भागने लगा। वह तेज़ी से दौड़ता और ज्ञानेंद्र पीछा करता। इस दौड़-पकड़ में ज्ञानेंद्र राजा के शिकारी से बहुत दूर निकल गया। वह अब किधर जाए? यह समझ में नहीं आ रहा था, बेचारा इस बियाबान जंगल में रास्ता भटक गया था। उसने कई बार आवाज़ लगायी पर कोई जवाब न मिला। इधर ख़रगोश भी ग़ायब हो गया था और अँधेरा घिर आया था, थककर राजकुमार ज्ञानेंद्र एक पेड़ के नीचे बैठ गया। जब अँधेरा और घिर आया तो सहसा उसे पेड़ों के बीच में कहीं दूर रोशनी दिखाई पड़ने लगी। वह उठा और धीरे-धीरे झाड़ियाँ को काटता आगे बढ़ने लगा। थोड़ी ही देर में वह एक महल के सामने खड़ा था, महल भी ऐसा वैसा नहीं, उसने पहले कभी ऐसा महल देखा नहीं था। मुख्य द्वार खुला था। ज्ञानेंद्र ने पुकारा, “क्या कोई सुनता है?” जवाब में गहरा सन्नाटा! यहाँ तक कि उसकी आवाज़ की प्रतिध्वनि भी उसके कानों तक न पहुँची। ज्ञानेंद्र अंदर चला गया।
वह एक बड़े से कमरे में पहुँचा, जहाँ अंगीठी में आग जल रही थी, मेज़ पर कई तरह के शरबत रखे थे। ज्ञानेंद्र कुर्सी पर बैठ गया और आग सेंकने लगा, प्यासा था, तो उसने शरबत भी पी लिया। देह तरोताज़ा हुई तो वह दूसरे कमरे देखने लगा।
उसे एक कमरे में मेज़ पर दो लोगों के लिए परोसा गया खाना दिखाई पड़ा, थालियाँ, चम्मच, गिलास सब सोने के, परदे, गाव-तकिए रेशम के कपड़े और ज़री-मोतियों की कशीदाकारी वाले थे। छत से जगमगाता बड़ा सा झाड़फ़ानूस भी लटक रहा था। उसे आसपास कोई दिखाई न पड़ा तो ज्ञानेंद्र खाने की मेज़ के पास जा बैठा। अभी निवाला मुँह में डालने की सोच ही रहा था कि उसे कपड़ों की सरसराहट सुनाई दी, जो सीढ़ियों की तरफ़ से आ रही थी। उसने सिर घुमा कर देखा, एक रानी अपनी बारह दासियों के साथ आती दिखाई दी। रानी नवयुवती थी और सुडौल शरीर वाली, लेकिन उसका चेहरा घूँघट में छिपा था। वह जाकर ज्ञानेंद्र के पास ही बैठ गई और भोजन करने लगी। खाना खाते हुए न तो रानी एक शब्द बोली न घूँघट हटाया और ना रानी की दासियों। ने ही मुँह खोला। ज्ञानेंद्र और रानी आमने-सामने बैठे चुपचाप खाना खाते रहे और दासियाँ परोसती रहीं। खाना खाते हुए भी रानी का घूँघट नहीं हटा।
खाना खाकर रानी अपनी दासियों के साथ ऊपर चली गई और ज्ञानेंद्र महल में टहलने लगा। टहलते-टहलते वह एक ऐसे कक्ष में जा पहुँचा जहाँ सोने के लिए बिस्तर तैयार था। राजकुमार ने शिकार वाले कपड़े उतारे और किसी को आसपास न देख बिस्तर में जा घुसा। कमरे में परदों के पीछे एक छोटा सा गुप्त द्वार था, जो थोड़ी देर में खुला और अपनी दासियों के साथ रानी उधर से कमरे में आ गई। ज्ञानेंद्र अभी सोया न था वह अपनी कोहनी के सहारे लेटा सारा नज़ारा देख रहा था। रानी के चेहरे पर अभी घूँघट पड़ा हुआ था। दासियों ने रानी के कपड़े बदलवाए, घूँघट ज्यों का त्यों चेहरे को ढके रहा। बिना कुछ बोले उन्होंने रानी को ज्ञानेंद्र के ही बिस्तर में सुला दिया और चली गईं। ज्ञानेंद्र को लगा कि रानी अब अवश्य कुछ बोलेगी, अपना मुँह खोलेगी। वह कुछ देर रानी की साँसों के साथ उठते-गिरते घूँघट के पर्दे को देखता रहा और फिर न जाने कब ख़ुद भी नींद के आग़ोश में चला गया।
सुबह तड़के ही रानी की दासियाँ आ पहुँची। उन्होंने रानी को सजाया, सँवारा और साथ ले गईं, न जाने कहाँ!
ज्ञानेंद्र भी उठा नहाया-धोया, भरपेट नाश्ता किया और सीधे घुड़साल में चला गया। घोड़ा दाना खा रहा था। ज्ञानेंद्र ने रकाब में पैर डाले, घोड़े पर सवार हुआ, ऐड़ लगायी और घोड़े को कुदाता हुआ जंगल में ऐसी राह ढूँढ़ने लगा जो उसे बाहर निकाल ले जाए।
वह दिन भर भटकता रहा और साँझ होते-होते फिर इस महल के सामने आ खड़ा हुआ। वह भीतर गया उसके साथ फिर वही सब कुछ घटा जो पिछली बार हुआ था। लेकिन जब वह अगले दिन जंगल में भटक रहा था तब उसे अपना मित्र शिकारी मिल गया जो पिछले दो दिनों से उसे खोज रहा था। दोनों साथी राजमहल लौट आए। जब शिकारी मित्र ने ज्ञानेंद्र से पिछले दो दिनों की बातें जाननी चाहिए तो ज्ञानेंद्र ने इधर-उधर की बातें में उलझा कर उससे असलियत छुपा ली।
अपने घर पहुँचने के बाद राजकुमार ज्ञानेंद्र एकदम बदल गया। वह किताबें पढ़ने के लिए खोलता लेकिन उसकी आँखें जंगल और वहाँ के उस विचित्र महल को सपनों में खोजती रहतीं, ना उसे खाने पीने की सुध रहती ना किसी और काम में उसका दिल लगता। रानी माँ ने जब बेटे का यह हाल देखा तो वह उससे बार-बार पूछने लगी कि उसकी इस बेचैनी और बेख़्याली की भला वजह क्या है? जब ज्ञानेंद्र अपने को न सँभाल सका तो उसने अपनी माँ को सारी बातें बता दी। यहाँ तक कि उस पर्दा नशीं रानी के प्रेम में डूबने और उससे ब्याह करने की अपनी इच्छा भी माँ से न छुपाई। अब समस्या यह थी कि उसने उस रानी का चेहरा नहीं देखा था और न उसकी आवाज़ ही सुनी थी।
सब बातें सुन-समझ कर रानी माँ ने उससे कहा, “बेटा तुम एक बार फिर उस महल में जाओ, उस के साथ खाना खाओ। जब तुम दोनों खाना खा रहे हो तो कुछ ऐसा करो कि उसके हाथ से चम्मच छूट कर नीचे गिरे। जब वह चम्मच उठाने के लिए झुके तो तुम चालाकी से उसका घूँघट उलट दो। उस समय वह ज़रूर कुछ बोलेगी।”
ज्ञानेंद्र को यह उपाय समझ में आया। उसने तुरंत अपना घोड़ा मँगवाया और फिर जंगल में उसी महल में जा पहुँचा। वहाँ उसका स्वागत पहले की तरह ही हुआ। जब वे दोनों खाना खाने लगे तो राजकुमार ज्ञानेंद्र ने घूँघट में छिपी राजकुमारी को कुछ इस तरह से अपनी कोहनी से ठहोका दिया कि उसके हाथ से चम्मच छूट कर नीचे जा गिरा। जब वह उसे उठाने के लिए झुकी तब ज्ञानेंद्र ने उसका घूँघट उलट दिया।
अब उसके सामने सूरज की किरण सी जगमगाती, चाँदनी जैसी सुकुमारी सुंदर राजकुमारी थी, “उतावले राजकुमार!” वह चिल्लाई, “अगर और एक रात तुम्हारे साथ, बिना तुमसे कुछ बोले, बिना अपना चेहरा खोले, मैं सो लेती तो इस मायाजाल से मुक्त हो जाती। तुम मेरे पति हो जाते। तुमने अपने उतावलेपन से सब ख़त्म कर दिया। अब मुझे यहाँ से परमपुरी जाना होगा, जहाँ मैं एक सप्ताह रहूँगी। फिर वहाँ से परतापुर चली जाऊँगी। और—वहाँ तो मैं उसे दे दी जाऊँगी जो खेलों में जीतेगा। ना जाने किसके पल्ले मुझे बँधना होगा। भगवान जाने मेरे भाग्य में कौन है? हाय, मैं प्रेम नगर की रानी हूँ।” अचानक उस रोती रानी की बात ख़त्म होते न होते महल, दासियाँ सब ग़ायब हो गए। ज्ञानेंद्र हक्का-बक्का रह गया उसने अपने को घने जंगल में झाड़ियाँ के बीच खड़ा पाया। अपने घर की राह खोज पाना उसके लिए आसान न था लेकिन एक बार जब वह घर पहुँच गया तो उसने बिना देर लगाए परमपुरी जाने की तैयारी कर ली। घोड़े कसवाए, अपने शिकारी मित्र को बुलवाया, बटुओं में धन भरा और दोनों मित्र चल पड़े परमपुरी की ओर।
वे बिना रुके, बिना थके जा पहुँचे प्रसिद्ध नगरी परमपुरी, जहाँ एक सराय में उन्होंने डेरा डाला। थोड़ा आराम कर लेने के बाद राजकुमार ने इस बात का पता लगाने की कोशिश शुरू की कि उसकी प्यारी रानी अभी इस शहर में है या चली गई।
सराय के मालिक से उसने पूछा, “तो भैया आजकल तुम्हारे शहर की बड़ी ख़बर क्या है?”
सराय मालिक बोला, “कुछ ख़ास तो नहीं हो रहा है! वैसे तुम बताओ कैसी ख़बर जानना चाहते हो?”
ज्ञानेंद्र बोला “ख़बर तो ख़बर है, हर तरह की ख़बर, जलसों की, त्योहारों की, आने-जाने वाले बड़े-बड़े लोगों की, सब तरह की ख़बर जानना चाहता हूंँ।”
सराय वाला बोला, “आने जाने वालों की बात से मुझे याद आया, अभी चार-पाँच दिन पहले यहाँ प्रेमनगर की रानी आई है। वह बहुत-बहुत सुंदर है पढ़ी-लिखी और विद्वान है। नई और अजूबा चीज़ों की तलाश में शहर का कोना-कोना छानती फिरती है। अगले एक-दो दिन में वह वापस चली जाएगी। इधर से भी वह एकाध बार अपनी बारह दासियों के साथ गुज़री है।”
“क्या उसे देखा जा सकता है?” ज्ञानेंद्र ने पूछा।
“क्यों नहीं, जब वह सड़कों पर घूमती है तो सभी उसे देख सकते हैं!”
“बहुत अच्छा,” ज्ञानेंद्र बोला, “अब आप खाना खिलावाइए हम भूखे हैं।”
जब ज्ञानेंद्र इस सराय में पहुँचा था, तब एक और घटना हुई थी। सराय-मालिक की एक जवान बेटी थी जो अपने लिए आए विवाह के हर प्रस्ताव को ठुकराती जा रही थी। उस दिन जब उसने ज्ञानेंद्र को घोड़े से उतरते देखा तभी वह उसके प्रेम में पड़ गई। मन ही मन उसने सोच लिया कि विवाह करेगी तो बस इसी से वरना . . . और यह बात उसने अपने पिता को भी बता दी।
जब सराय मालिक ज्ञानेंद्र से बातें करने लगा तभी उसने उससे कहा, “अब आप हमारे परमपुरी की सैर करिए और लगे हाथों अपने लिए एक दुलहन भी खोज लीजिएगा।”
“मेरी दुलहन,” ज्ञानेंद्र बताने लगा, “तो दुनिया की सबसे सुंदर लड़की बनेगी। मैं उसका पीछा पूरी दुनिया में घूम-घूम कर करूँगा।”
पिता और ज्ञानेंद्र की बातचीत बेटी छुपकर सुन रही थी, ज्ञानेंद्र के प्रेम में पड़ी हुई लड़की दिल ही दिल में सुलग उठी। उसने निश्चय कर लिया कि उसे क्या करना है।
जब ज्ञानेंद्र और उसके मित्र को स्वादिष्ट भोजन और शरबत परोसा गया, तब उसने शरबत में अफ़ीम मिला दी। खाना खाकर दोनों दोस्त शहर घूमने निकले। कुछ देर बाद ही दोनों पर अफ़ीम का नशा छाने लगा। रास्ते के किनारे लगी बैंचों पर दोनों दोस्त बेसुध होकर सो गए।
परमपुरी घूमने निकली, प्रेमपुरी की रानी भी कुछ समय बाद उधर के रास्ते से गुज़री। उसने सड़क के किनारे सोते हुए ज्ञानेंद्र को पहचान लिया। रानी ने ज्ञानेंद्र को छुआ, हिलाया, बुलाया उसे झझकोरा भी लेकिन वह तो अफ़ीम के नशे में ऐसा धुत्त था कि उसकी नींद ना खुली। हार कर रानी ने अपनी अंगुली से हीरे की एक अँगूठी निकाली, उसे ज्ञानेंद्र के माथे पर रखा और वहाँ से चली गई।
यह सारी लीला पास की एक झोपड़ी में रहने वाला साधु देख रहा था। जब रानी अपनी राह चली गई तो साधु अपनी झोपड़ी से निकला, दबे पाँव जाकर उसने ज्ञानेंद्र के माथे पर से अँगूठी उठाई और वापस अपनी झोपड़ी में जा घुसा।
जब अफ़ीम का असर कम हुआ तब ज्ञानेंद्र को होश आया। उसे यह जानने में थोड़ा समय लगा कि वह कहाँ है? चैतन्य होकर उसने अपने मित्र को भी जगाया। रात हो गई थी वह अपने को कोसने लगा कि उसकी कुंभकर्णी नींद के कारण प्रेम नगर की रानी को देख पाने का मौक़ा उनके हाथ से निकल गया है।
अगले दिन उन्होंने बहुत कम मिर्च मसाले वाला हल्का भोजन मँगवाया जिससे कि खाने के बाद आलस अधिक ना आए लेकिन सराय मालिक की बेटी ने उसमें भी अफ़ीम मिला दी। दोनों मित्र फिर सड़क के किनारे की बेंचों पर सोते रह गए।
उस दिन भी जब प्रेमनगर की रानी ज्ञानेंद्र को जगाते-जगाते हार गई तब उसने अपने बालों की एक लट काटकर ज्ञानेंद्र के माथे पर रख दी और चली गई। उसके जाते ही साधु फिर अपनी झोपड़ी से बाहर आया और बालों की लट उठाकर चल गया। रात गहराने पर जब दोनों मित्र जागे तो उन्हें कोई ख़बर न थी कि उनके सोते समय वहाँ क्या हुआ।
जब दो दिन वह शाम से ही नींद से व्याकुल होने लगा तब ज्ञानेंद्र को अपनी गहरी और विचित्र नींद के बारे में आशंका होने लगी। समाचारों के अनुसार प्रेम नगर की रानी का परमपुरी से लौटने का समय आ गया था। उसके वापस चले जाने से पहले उसे देख पाने का केवल एक दिन बाक़ी था।
अगले दिन उसने निश्चय किया कि वह खाना नहीं खाएगा, केवल पानी पीकर घूमने निकल पड़ेगा शायद ख़ाली पेट नींद ना आए। उधर सराय वाली लड़की ने अभी भी हार नहीं मानी थी। आज उसने पानी में ही अफ़ीम मिला दी।
आज जब ज्ञानेंद्र और उसका मित्र घूमने निकले तब ज्ञानेंद्र ने अपनी जेब में दो पिस्तौल रख लीं और अपने शिकारी दोस्त से बोला, “प्यारे मित्र, मुझे मालूम है कि तुम मुझे प्यार करते हो मेरे बचपन के दोस्त हो और कभी मुझे धोखा नहीं दोगे। फिर भी आज मैं तुम्हें चेतावनी दे रहा हूँ कि अगर आज तुम भी सो गए तो इन दोनों पिस्तौलों की गोलियाँ मैं तुम्हारे सीने में उतार दूँगा। मुझसे दया की उम्मीद ना रखना और मुझे भी सोने न देना।”
यह कहकर राजकुमार ज्ञानेंद्र नशे में बेसुध हो सो गया। शिकारी कभी अपने को चिकोटी काटकर, कभी झापड़ मार कर जागते रहने की कोशिश करता रहा। धीरे-धीरे उसके ऊपर भी अफ़ीम का नशा हावी होने लगा और वह बेचारा भी सो गया। नशे के आगे प्राणों का भय भी उसे जगाए न रख सका। थोड़ी ही देर में वह खर्राटे लेने लगा।
प्रेम नगर की रानी आज फिर वहाँ आ पहुँची। उसने हिला कर, थप्पड़-घूँसे मार, आलिंगन-चुंबन सब करके ज्ञानेंद्र को जगाना चाहा, लेकिन सब बेकार, उसका नशा न टूटना था न टूटा!
अब बेचारी फूट-फूट कर रोने लगी। वह इतनी दुखी-बेबस थी कि उसकी आँखों से आँसू की जगह ख़ून की बूँदें टपकने लगीं। उसने अपने रुमाल से ख़ून भरे आँसू पोंछे और वह रुमाल ज्ञानेंद्र के चेहरे पर रख दिया। फिर उठी और अपनी गाड़ी में जा बैठी और निकल पड़ी सीधे परतापुर की ओर, जहाँ प्रतियोगिताएँ होने वाली थीं और वह जीतने वाले पुरुष को दे दी जाने वाली थी।
उधर रानी के चले जाने के बाद साधु अपनी झोपड़ी से बाहर आया, रुमाल को उठा लिया और वहीं यह देखने के लिए बैठ गया कि आगे क्या होता है। जब राजकुमार ज्ञानेंद्र जागा और उसे समझ में आया कि अपनी प्रिया रानी को देख पाने का मौक़ा आज भी उसके हाथ से निकल गया है तब वह दुख, निराशा और पाश्चाताप से बौखला उठा। उसने अपनी दोनों पिस्टलें उठायीं और सोते हुए शिकारी के सीने पर तान दी, तभी साधु ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला, “रुको बेटा, उस बेचारे की कोई ग़लती नहीं है, यह सारा किया-धरा सराय मालिक की बेटी का है, जो रोज़ तुम्हारे खाने और पानी में अफ़ीम मिला देती है।”
“आप भी क्या बात करते हैं? भला वह ऐसा क्यों करेगी?” ज्ञानेंद्र ने पूछा, “आप यह सब कैसे जानते हैं?”
अब साधु बोला, “सराय वाली लड़की तुमसे शादी करना चाहती है इसीलिए तुम्हें अफ़ीम खिलाती है कि तुम किसी और लड़की से मिल ही न पाओ। मेरी झोपड़ी यहीं पेड़ों के पीछे है। मुझे वहाँ से सब कुछ साफ़ दिखाई देता है। पिछले तीन दिन से प्रेम नगर की रानी रोज़ यहाँ आ रही है और तुम्हें जगाने की भरपूर कोशिश करती है। वह तुम्हारे लिए हीरे की अँगूठी, बालों की लट और ख़ून के आँसुओं से भीगा एक रुमाल छोड़ गई है।”
“और यह चीज़ कहाँ है?”
“मैंने उन्हें सँभाल कर रखा है क्योंकि मुझे डर था कि तुम्हारे देखने से पहले ही कोई उन्हें उठा न ले जाए। यह तीनों चीज़ें तुम्हारी अमानत हैं। तुम्हारे काम आएँगी। शायद तुम्हारा भाग्य चमक जाए।”
“अब मैं करूँ तो क्या करूँ?”
“प्रेम नगर की रानी यहाँ से परतापुर गई है,” साधु बताने लगा, “वहाँ उसे जीतने वाले को इनाम की तरह दे दिया जाएगा। जो जवान अँगूठी, लट और रुमाल लेकर मैदान में उतरेगा, वह किसी से हारेगा नहीं, वही विजेता होगा।”
ज्ञानेंद्र को अब और कुछ जानने की ज़रूरत नहीं थी।
वह परतापुर की तरफ़ चल पड़ा, दंगल में शामिल होने के लिए। उसने अपना नाम भी वहाँ लिखवा लिया, लेकिन अपने असली नाम के बदले दूसरा नाम लिखाया।
दंगल में बहुत दूर-दूर के देशों से भी रानी से विवाह करने के इच्छुक लोग आए हुए थे। उन सभी के माल-असबाब, घोड़े-गाड़ी और नौकर-चाकरों की रेल-पेल पूरे परतापुर में मची थी। शहर के बीचों-बीच के मैदान में दंगल के खेलों का आयोजन होने वाला था। प्रेम नगर की रानी को पाने के लिए घुड़सवारों के बीच में बाज़ियाँ लगने वाली थीं। मैदान दर्शकों से खचाखच भरा था। पहले दिन के खेलों में ज्ञानेंद्र चेहरे पर नक़ाब पहनकर खेला और जीत गया। उसने अपनी बरछी पर रानी की दी हुई हीरे की अँगूठी लगा रखी थी।
दूसरे दिन की प्रतियोगिता में वह रानी के बालों की लट को जेब में रखकर जीता और तीसरे दिन ज्ञानेंद्र के गले में बँधे रानी के रुमाल ने उसे विजय दिला दी। उसके सामने कोई घुड़सवार टिक न सका, किसी का घोड़ा बिदक गया, कभी घुड़सवार के हाथ से बरछी छूट। गयी और कोई तो घोड़े की पीठ से नीचे ही गिर पड़ा।
जब प्रतियोगिताओं के परिणाम की घोषणा हो गई और ज्ञानेंद्र को प्रेम नगर की रानी का दूल्हा घोषित कर दिया गया, तब ज्ञानेंद्र ने अपने चेहरे से नक़ाब उतारा। जब रानी ने ज्ञानेंद्र को देखा तो उसका उदास चेहरा और आँसू से भरी आँखें ख़ुशी से चमक उठीं। वह तो मानो ख़ुशी के सातवें आसमान पर जा पहुँची।
ज्ञानेंद्र प्रेम नगर की रानी से ब्याह करके अपने माता-पिता के पास लौट चला। उसका शिकारी मित्र भी साथ-साथ चला। माता-पिता को अपनी दुलहन दिखाते हुए वह बोला, “माँ-पिताजी, यह वही नन्हा ख़रगोश है जिसका पीछा मैं कर रहा था। यही वह घूँघट में छिपी सुंदरी भी है, जो गूँगी लग रही थी। मैं प्रेम नगर की रानी को माया जाल से आज़ाद कराकर ब्याह लाया हूंँ।”
जय हो!!!
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