पुराना दोस्त

01-12-2024

पुराना दोस्त

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

भोपाल से दिल्ली आते
‘शताब्दी’ एक्सप्रेस की खिड़की से
बाहर की ओर ताकते हुए, 
आज बहुत अरसे बाद, 
सूरज से मुलाक़ात हो गई, 
 
फ़सल की कटाई के बाद
ख़ाली हो गए धान के खेतों से होकर, 
ऊँचे पेड़ों, छोटी झाड़ियाँ को फलाँगते हुए
वह मेरे पास, मेरी खिड़की में आया था, 
मुझसे बतियाने को शायद उसका मन हो आया था!, 
 
मेरा और उसका परिचय तो बहुत पुराना था, 
बालपन में उससे रोज़ का ही मिलना-मिलाना था, 
लेकिन जीवन की भाग-दौड़
महानगरी के निवास
वहाँ के प्रदूषण के कारण
मेरी स्मृतियों में उसका चेहरा कुछ धुँधलाया था, 
 
पर आज इस पल, रेलगाड़ी की
मेरी खिड़की का सूरज चमाचम चमकता, 
मुझे बचपन के साथी की याद दिलाता था, 
ट्रेन की खिड़की से, खेतों में दौड़ 
लगाते, 
पेड़ों पर उछलते
सयाने सूरज का सिंदूरी, गोल, पहचाना चेहरा 
मेरी आँखों में जगमगाता था, 
 
उसने पूछा मुझसे, 
दौड़ते ही दौड़ते, 
“कैसी हो? अब तो जल्दी नज़र नहीं आती, 
अपने माँ-बाप से छिपकर, 
मुझसे क्यों नज़रें नहीं मिलातीं?” 
मुझे नंगी आँखों से ताकने पर 
अब तो किसी से डाँट नहीं खातीं! 
 
मैंने भी उसे छोड़ा नहीं, शिकवा सुना दिया, 
“तुमने ही जल्दी-जल्दी
आकाश की यात्रा कर
दिन-दिन करते, मेरी उम्र को क्यों बढ़ा दिया? 
कहो तो ज़रा कैसे खेलती तुम्हें देखकर, 
पाल रही थी बच्चे, 
करती थी गृहस्थी जी-जान जो लगाकर!”
 
बचपन का मेरा वह साथी मुँहज़ोर था
चुप नहीं रह पाया, 
बात को उसने ही फिर से आगे बढ़ाया, 
“बच्चे तुम्हारे बड़े हुए
गृहस्थी हुई पुरानी, 
अब तक तुम बन चुकी हो दादी और नानी, 
नींद भी अब तुमको थोड़ी कम ही है आती
फिर क्यों रोज़ छत पर मुझसे मिलने नहीं आतीं?” 
 
मैं भी भला चुप रह कर कैसे सुन लेती? 
शिकायत का जवाब तुरत कैसे नहीं देती? 
“अपनी भी सोचो सिर्फ़ मेरी क्यों कहते हो? 
मेरे शहर में तो तुम भी घबराए से ही रहते हो! 
प्रदूषण के कारण आकाश में नहीं आते, 
छत पर हम आएँ भी तो तुम्हारे दर्शन नहीं पाते! 
विंध्य-सतपुड़ा के बीच की
स्वच्छ हवा तुमको ख़ूब भायी है? 
इसलिए ही तुमने मुझसे यहाँ मिलने के लिए
यह लंबी दौड़ लगाई है! 
दोस्त, तुम्हारी सूरत तो
बिल्कुल नहीं बदली, 
पर देखो तो ज़रा मुझको! 
मेरे बालों में सफ़ेदी उतर आई है, 
रोज़ छत पर जाना क्या इतना आसान है? 
देखते तो तुम भी हो 
वह बहुमंज़िला मकान है, 
घुटनों में इतनी जान कहाँ 
जो कई बार छत पर आऊँ? 
धुँधलाये से तुम भी रहते हो, भला
नज़रें कैसे मिलाऊँ?” 
इतना कहकर मैं मौन हो गई 
बीते हुए समय की यादों में खो गई, 
 
गाड़ी ने दिशा बदली
मेरी खिड़की का सूरज भी भाग गया 
आगे आने वाली पीढ़ियों से दोस्ती बढ़ाने के लिए
न जाने किस देश, किस गाँव को चला गया। 

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