दासी माँ

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

मूल कहानी: ला माद्रे शियावा; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो; अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द स्लेव मदर); 
पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स; हिन्दी में अनुवाद: ‘दासी माँ’

 

एक समय की बात है, पाँच बेटों वाला एक किसान परिवार एक बड़े ज़मींदार की खेती-बाड़ी सँभालता था और सुख चैन से रहता था। 

शाम के समय किसान की पत्नी खेतों में काम करने गए अपने पति और बेटों के लिए जब चूल्हे पर खाना पकाने को चढ़ा देती तो स्वयं घर की चौखट पर बैठकर माला जपती रहती और खेत से लौटने वालों का इंतज़ार भी करती। एक दिन जब वह माला के मनकों को आँखों से लगाकर, जाप पूरा करने ही वाली थी कि उसे एक उल्लू की आवाज़ सुनाई दी, “किसान की बीवी, ओ किसान की बीवी, तुम जवानी में धनवान होना चाहती हो या बुढ़ापे में?” 

यह आवाज़ सुनकर ‘हे भगवान’ कहते हुए किसान की बीवी ने अपने कानों को हाथ लगा लिया। शाम को सब घर आ गए और खाना खाने बैठे। सब प्रेम से खा रहे थे लेकिन औरत कुछ परेशान-सी लग रही थी। पति और बेटों ने कारण उसकी उदासी का कारण जानना चाहा तो तबीयत बहुत अच्छी न होने की बात कह कर उसने सबको चुप करा दिया। 

अगले दिन जब वह माला फेरने लगी तब फिर उसने सुना, “तुम बुढ़ापे में धनवान होना चाहती हो या जवानी में!”

“देवी माँ रक्षा करें, लगता है कुछ गड़बड़ है,” कहती हुई वह सीधे अपने पति के पास जा पहुँची। पति ने उसे समझाया, “देखो अगर फिर ऐसा ही हो तो तुम कहना कि तुम्हें बुढ़ापे में धन चाहिए, क्योंकि तब शरीर कमज़ोर हो जाता है, मेहनत नहीं हो पाती। जवानी में तो मेहनत-मशक़्क़त से काम चल ही जाता है।”

अब तीसरे दिन भी शाम को उल्लू ने वही प्रश्न पूछा। आज किसान की बीवी बोली, “तुम फिर आ गए? तो सुनो, मुझे मुझे बुढ़ापे में आराम करने के लिए धन चाहिए। समझ गए ना।”

दिन बीतते रहे। एक दिन की बात है, कई दिनों से एक जैसा खाना खाते-खाते किसान के बेटों ने फ़रमाइश की, “माँ कल हमारे लिए घुटा हुआ साग बनाओ न!” 

अगले दिन गृहणी ने टोकरी और हंसुआ लिया और सरसों-बथुआ-मेथी की हरी पत्तियाँ खोजने निकल पड़ी। नदी के ऊँचे किनारे की ओर हरे-भरे खेत थे, वहाँ अच्छा साग मिल सकता था। वह उसी ओर चल पड़ी वहाँ की हरियाली देख वह ख़ुश हो गई और झुक-झुक कर अपनी पसंद का नरम पालक बथुआ मेथी निकल ही रही थी कि तभी ना जाने कहाँ से लुटेरे आ धमके। उन्होंने उसे पकड़ा और खींच कर नीचे ले गए। वहाँ नदी में इंतज़ार करती नाव में धकेला और नाव चला दी। वह बेचारी चीखती चिल्लाती रह गई, किसी ने उसकी आवाज़ न सुनी न कोई मदद को आया। नाव चल पड़ी अनजान दिशा की ओर। 

इधर खेतों में काम करके शाम को जब किसान अपने बेटों के साथ घर लौटा तो क्या देखता है कि जिस दरवाज़े पर रोज़ाना गृहणी उनकी राह देखती खड़ी रहती थी, वहाँ ताला लगा था। उन लोगों ने दरवाज़ा पीटा, आवाज़ लगाई, आसपास घूम-घूम कर देखा पर कुछ पता नहीं चला। हार कर उन्होंने दरवाज़ा तोड़ डाला जब वहाँ कहीं वह न मिली तो पड़ोसियों से भी पूछा। कई लोगों ने उन्हें बताया कि उन्होंने किसान की पत्नी को टोकरी लेकर कहीं जाते तो देखा पर लौटते हुए किसी ने नहीं देखा। 

रात होने लगी थी हाथों में लालटेन ले वे बेटे माँ-माँ की आवाज़ लगाते देर तक घूमते रहे लेकिन उत्तर में कोई आवाज़ कहीं से ना आयी सब आँखों में आँसू लिए लौट आए। अगले दिन से लोग गृहणी के खो जाने पर अफ़सोस ज़ाहिर करने आने लगे। कई दिन तक यह सिलसिला चलता रहा। लेकिन आख़िर कब तक? कुछ दिनों बाद उनको काम पर जाना ही पड़ा। 

देखते देखते दो साल बीत गए। 

अब ज़मींदार का एक नया खेत बुवाई के लिए तैयार करना था। बाप-बेटे मज़दूरों को साथ ले उस खेत की जुताई करने लगे। अचानक किसान के हल का फल कहीं फँस गया। उसने बहुत कोशिश की लेकिन फल नहीं निकला। उसने अपने बड़े बेटे को बुलाया। दोनों ने पूरा दम लगाकर कई बार फल को निकालने की कोशिश की तो पता लगा कि हल का फल एक लोहे की ज़ंजीर में फँस गया है। जब दोनों ने ज़ोर लगाकर वह ज़ंजीर खींची तो पता लगा उससे एक पत्थर की पटिया बँधी है। जब पत्थर की पटिया हटी तो उसके नीचे ख़ाली जगह दिखाई दी। लड़का उछल पड़ा, “बापू, बापू देखो तो नीचे क्या है? मैं तो नीचे जा रहा हूंँ।”

लेकिन पिता ने समझाया, “अभी सब ऐसा ही रहने दो। आज रात को हम सब यहाँ एक साथ आएँगे और तब देखेंगे कि मामला क्या है।”

शाम को जब वे घर लौटे तो साथ काम करने वाले सभी मज़दूरों को शराब पिलाई और भरपेट खाना खिलाकर आराम करने के लिए छोड़ दिया। जब वे सब खर्राटे भरने लगे तब किसान ने अपने पाँचों बेटों को साथ लिया और खेत पर जा पहुँचा। उन्होंने मिलकर पत्थर की पटिया हटायी तो जो नीचे दिखाई दिया उससे सबके मुँह खुले के खुले रह गए। वहाँ सात मटके सोने के सिक्कों से भरे रखे हुए थे। पहले तो थोड़ी देर तक सब मुँह बाए एक दूसरे का मुँह ताकते रहे, जब कुछ सम्हले तो किसान ज़ोर से बोला, “यहाँ खड़े-खड़े एक दूसरे का मुँह कब तक देखते रहोगे, झटपट जाकर गाड़ी ले आओ!”

लड़के भाग कर गाड़ी लाये, सिक्कों से भरे मटकों को गाड़ी पर लादा और ले जाकर कहीं छुपा दिया। 

अगले दिन माँ के ग़ायब हो जाने के तीन साल बाद वे सब ज़मींदार के पास गए और बोले, “मालिक, अब हम आपके खेतों का ज़िम्मेदारी नहीं ले सकते। हमारा दिल अब यहाँ बिल्कुल नहीं लगता। आप अपने खेत हमसे वापस ले लीजिए।”

इस प्रसंग के बाद उन्होंने साथी मज़दूरों को दावत खिलायी, उन्हें छोटी-मोटी सौग़ातें दी, अलविदा कहा और अपना ख़ज़ाना लेकर दूसरे देश चल गए। 

इस नए शहर में उन्होंने अपने लिए एक हवेली ख़रीदी। शहर के लोगों जैसे कपड़े बनवाए। गँवई भाषा-बोली छोड़कर शहर के रीति-रिवाज़ और भाषा सीखने के लिए मास्टर रख लिए। शहरी आबादी में शामिल होने के लिए उन्होंने अपने नाम तक बदल डाले। किसान को ‘बापू’ की जगह ‘पिताजी’ कहने लगे। अब उनकी शामें नाटक और नाच घर में कटने लगीं अब यदि उनके गाँव के लोग भी उन्हें देखते तो कदापि पहचान ना पाते। 

धीरे-धीरे अमीरी के रंग में भी लोग ऐसे रँगे कि एक दिन जा पहुँचे ‘दासों’ की बिक्री के बाज़ार में वहाँ दासियों का बाज़ार लगा था, बुड्ढी-जवान, गोरी-काली, हर तरह की स्त्रियाँ बेची-ख़रीदी जा रही थीं। पाँचों बेटों ने घर जाकर किसान से कहा, “पिताजी-पिताजी, बाज़ार में हमने कई सुंदर और जवान लड़कियाँ बिकती देखी हैं। क्या हम एक अपने लिए भी ख़रीद लाएँ?” 

“क्या बात कर रहे हो बेटो,” पिता ने कहा, “क्या हमें अपने घर में रूप का बाज़ार लगाना है, जो जवान लड़की ख़रीदना चाहते हो? हाँ कोई बड़ी उमर की स्त्री हो तो सेवा करने के लिए ख़रीदी जा सकती है।” 

अगले दिन किसान (अब धनवान) ख़ुद ही बाज़ार गया! वहाँ उसने एक ऐसी स्त्री देखी जो काम के बोझ के कारण उम्र से पहले ही बहुत बुड्ढी दिखाई दे रही थी। इस धनवान को उस पर दया आ गई। वह दलाल के पास गया और उस सेवक स्त्री का दाम पूछा। 

“सौ सोने के सिक्के!” उत्तर मिला। 

दाम चुकाया गया, उसकी दीनहीन दशा से पिता का दिल फटा जा रहा था। दासी के लिए नए कपड़े ख़रीदे गए, अच्छा भोजन कराया गया और उसे घर सँभालने की ज़िम्मेदारी दे दी गई। 

रोज़ शाम को पाँचों जवान बेटे नाटक-तमाशा देखने निकल जाते। नई आयी दासी जब भी उन पाँच लड़कों को साथ देखती तो गहरी साँस भरती और उसकी आँखें आँसू बहाने लगती थीं। 

एक दिन पिता कुर्सी पर बैठा किताब पढ़ रहा था। बेटों के जाने के बाद स्त्री दरवाज़ा बंद करके आँखें पोंछती वापस घर में आयी तो धनवान ने सामने की खुली किताब बंद कर दी और दासी से पूछा, “तुम मेरे बेटों को देखकर रोती क्यों हो?” 

“मालिक,” दासी कहने लगी, “अगर आप मेरे दिल का हाल जानते तो ऐसी बात मुझसे कभी न पूछते।”

अब मालिक बोले, “आओ बैठो और अपने दिल का हाल सुनाओ।”

“मालिक,” वह बोली, “आप जैसा मुझे अब देख रहे हैं, पहले मैं वैसी नहीं थी। मैं दासी का काम पहले कभी नहीं किया था। मैं एक अच्छे किसान की बीवी थी। आपके बेटों जैसे मेरे भी पाँच बेटे थे।” और वह भरे गले से अपनी राम कहानी सुनाने लगी जब उसने साग तोड़ने जाने और लुटेरों द्वारा अगवाह कर लिए जाने की बात बताई तब मालिक उठा और दासी को बाँहों में भर लिया और कहने लगा, “बीवी मेरी प्यारी बीवी! मैं ही वह किसान हूँ और यह पाँच और तुम्हारे ही पैदा किए हुए बेटे हैं। तुम्हें मरा मान लेने के कुछ साल बाद हम खेत जोतते हुए गड़ा धन पा गए और अब उस गाँव को छोड़ आए हैं, जहाँ हमने तुम्हें खोया था।” 

17 साल बाद अपने परिवार से मिल पाने की ख़ुशी क्या होती है कोई उसे दासी से पूछे। वे दोनों पास-पास बैठकर अपने दुखड़े सुना ही रहे थे कि बेटे अपनी शाम की सैर से लौट आए। इन दोनों को हँस-हँसकर बतियाते देख आपस में बातें करने लगे, “देख लो पिताजी इसीलिए जवान और सुंदर लड़की लाने से मना कर रहे थे।” पिताजी तुरंत बोल उठे, “चुप भी रहो। तुम लोग ध्यान से देखो, यह तुम्हारी माँ है जिसे हम सब मरा मान बैठे थे। इतने सालों से उसका शोक मना रहे थे।” 

यह सुनते ही पाँचों बेटे माँ से लिपट गए। उसे अपनी गोदी में उठा लिया, और कहने लगे, “माँ तुमने बहुत दिन दुख झेल लिए। अब बस तुम रानी की तरह रहो। नौकर चाकर तुम्हारी सेवा करेंगे। तुम बस हम सब पर हुक्म चलाना। कभी किसान रहा धनवान और उसकी बिछड़ी बीवी, बेटों के साथ बुढ़ापे में सुख से रहने लगी।

ईश्वर करे जैसे इनके दिन बहुरे वैसे ही सबके दिन बहुरें!

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा
ललित निबन्ध
सामाजिक आलेख
दोहे
चिन्तन
कविता
सांस्कृतिक कथा
आप-बीती
सांस्कृतिक आलेख
यात्रा-संस्मरण
काम की बात
यात्रा वृत्तांत
स्मृति लेख
लोक कथा
लघुकथा
कविता-ताँका
ऐतिहासिक
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में