जूँ की खाल

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 220, जनवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

मूल कहानी: ला पेले डी पिडोशियो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (दि लाउज़ हाइड); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

प्रिय पाठक, 

एक और कहानी लेकर आई है सरोजिनी, 
जिसमें राजा-रानी हैं और है चतुर नौकरानी। 


बहुत पहले की बात है, एक राजा था। एक दिन वह टहल रहा था तो कुछ सोचता भी जा रहा था और अपने सिर के बाल खुजा रहा था। अचानक उसे अपने बालों में एक मोटी सी जूँ हाथ लग गई। राजा ने सोचा कि यह तो एक राजसी जूँ है, इसका भी आदर राजा के जैसा ही होना चाहिए। तो उस जूँ को मसलकर मारने के बदले उसे अपने महल में ले गया और सेवकों को उसका आदर-सत्कार करने की आज्ञा दे दी। जूँ राजा के सिर की थी, सो उसको बड़े आदर से रखा गया। रोज़ उसे नए-नए तरह का ख़ून पीने को मिलने लगा। कुछ ही दिनों में मुफ़्त का भरपेट भोजन पाकर जूँ बिल्ली जितनी मोटी हो गई। वह दिनभर आराम कुर्सी में बैठी रहती। स्वादिष्ट और नये-नये ख़ून पी-पी कर अगले कुछ ही दिनों में सूअर जैसी मोटी हो गई और फिर बछड़ों के आकार की। अब उसे बाड़े में रखा गया। जूँ का बढ़ना अभी भी न रुका और वह बछड़ों के साथ बाड़े में रखने लायक़ न रही। अब इतनी बड़ी जूँ को पालना राजा को उचित नहीं लगा, उन्होंने उसे ज़िबह करवाया और उसकी खाल उतरवाकर महल के द्वार पर टँगवा दी। 

कुछ समय बाद राजा ने मौज में आकर एक दिन मुनादी करवा दी कि ‘जो यह बता देगा कि महल के दरवाज़े पर टँगी खाल किस जानवर की है, उसके साथ राजकुमारी का विवाह कर दिया जाएगा। जो सही उत्तर न बता पायेगा, उसका सिर क़लम करवा दिया जाएगा’। 

मुनादी करवाने की देर थी कि इच्छुक लोगों का ताँता लग गया। लेकिन कोई सही जवाब ना दे पाया। भला कौन कल्पना कर सकता था कि महल के दरवाज़े पर लगी खाल जूँ की है! सो रोज़ कोई न कोई युवक अपने प्राणों से हाथ धोने लगा, जल्लादों का काम बढ़ गया। 

अब इधर राजा की बेटी का हाल सुनो, वह एक युवक से पहले से ही प्रेम करती थी और इस बात से उसके पिता अनजान थे। जबसे राजकुमारी को अपने पिता की मुनादी का समाचार मिला, वह बेचैन रहने लगी। आख़िरकार उसकी एक पुरानी, बूढ़ी दासी किसी तरह यह ख़बर निकाल ही लाई कि महल के दरवाज़े पर मढ़ी गई खाल राजा के सिर की जूँ की थी! 

फिर क्या था? अगले दिन जब राजकुमारी का उदास प्रेमी उससे मिलने उसकी खिड़की के नीचे आया तो वह धीमी आवाज़ में बोली, “कल मेरे पिता के पास जाओ और उन्हें बता दो कि दरवाज़े पर लटकी हुई खाल जूँ की है।” 

प्रेमी को आवाज़ साफ़ नहीं सुनाई दी, उसने पूछा, “किसकी है?” 

इस बार थोड़ी ऊँची आवाज़ में राजकुमारी ने कहा, “जूँ की, जूँ की है!”

“वही तो मैं भी पूछ रहा हूँ कि किसकी. . ., किसकी है?” 

अब राजकुमारी खीझकर ज़ोर से बोली, “जूँ की है! जो बालों में रहती है!” 

“अच्छा, अब समझा, जूँ की है! ठीक है, मैं कल आता हूँ! देखता हूँ कि कोई और तुमसे कैसे ब्याह करता है!”

इधर राजकुमारी की खिड़की के नीचे, सड़क के किनारे एक ठिगना, कुबड़ा मोची दिन भर बैठता था और आने-जाने वालों के टूटे जूतों की मरम्मत कर अपना गुज़ारा करता था। उसने राजकुमारी और उसके प्रेमी युवक की सारी बात सुन ली थी। वह मन ही मन बोला, “राजकुमारी को कौन ब्याहता है अब यह तो मैं देख लूँगा, मैं या वह जवान?” वह तुरन्त अपना सुआ, निहाई, हथौड़ी सब वहीं छोड़कर राजमहल की ओर दौड़ पड़ा। 

राजा के सामने सिर झुका कर बोला, “महाराज, महल के दरवाज़े पर मढ़ी खाल के बारे में मैं भी अपनी राय बताना चाहता हूँ।”

“ठीक है,” राजा ने कहा, “लेकिन ख़बरदार रहना, उसके बारे में बता कर कई लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं।”

“जी मालिक, मुझे इस बात की पूरी ख़बर है,” कुबड़े मोची ने कहा। 

उसे दरवाज़े पर मढ़ी खाल दिखाई गई। कुबड़े मोची ने उसे बड़े ध्यान से देखने का नाटक किया। सिर खुजाया, माथा ठोंका, खाल को सूँघा। कुछ देर बाद बोला, “राजा साहब, मैं समझ गया हूँ कि यह खाल किस पशु की है। मेरे लिए इसे पहचाना कुछ कठिन नहीं, आख़िर मैं रोज़ खालों को छूता हूँ, यह जूँ की खाल है!”

राजा साहब तो मानो आकाश से गिर पड़े! लेकिन बात तो फिर बात है! और ऐसी वैसी नहीं राजा की कही बात! बहुत उदास मन से राजकुमारी को बुलवाया और राजकुमारी का हाथ उसे देकर विधिवत् उसे अपना दामाद मान लिया!! 

बेचारी राजकुमारी जो अपने प्रेमी को पाने की आशा में ‘कल’ की बाट जोह रही थी, दुख के सागर में डूब गई। एक नाटा-कुबड़ा, मोची राजा बन गया और राजकुमारी रानी! बेचारी की ज़िन्दगी से ख़ुशियों ने विदा ले ली। राजकुमारी हँसना, मुस्कुराना, गुनगुनाना सब कुछ भूल गई, दिन-रात गुमसुम निराशा में डूबी रहती। 

जिस बूढ़ी नौकरानी ने खाल का राज़ राजकुमारी को बताया था, उससे राजकुमारी का दुख देखा नहीं जाता था। उसने इस बे-माँ की बच्ची को, उसकी माता की मृत्यु के बाद से ही, पाला-पोसा था। राजकुमारी की ख़ुशी के लिए वह अपनी जान तक दे सकती थी। 

एक दिन की बात है, वह दासी दौड़ी-दौड़ी रानी-राजकुमारी के पास आई और बोली, “रानी साहिबा मैंने तीन कुबड़े भाँड देखे जो शहर की सड़कों और गलियों में स्वाँग करते घूम रहे हैं। उनका नाच और स्वाँग देख कर लोग हँसते-हँसते लोटपोट हुए जा रहे हैं! मैं उन्हें महल में लाना चाहती हूँ। आपका दिल बहलाव होगा, बस आप हाँ कर दीजिए।”

“तुम्हारा दिमाग़ तो ठिकाने है ना,” रानी ने कहा, “अगर कुबड़े राजा को इस बात का पता चल गया तो वह न जाने क्या करें! उन्हें तो यही लगेगा ना कि हम उनकी हँसी उड़ाने के लिए उन कुबड़ों को यहाँ लाए हैं।”

“आप चिंता ना करें,” दासी ने कहा, “अगर राजाजी आ भी गए तो मैं उन्हें बड़े बक्से में छुपा दूँगी।”

तो तीनों कुबड़े विदूषक रनिवास में बुला लिए गए। उनका स्वाँग देखकर राजकुमारी न जाने कितने अर्से के बाद पेट पकड़-पकड़ कर हँसी। लेकिन कार्यक्रम के बीच में ही संतरियों की पुकार सुनाई दी और कुबड़े राजा वहीं पहुँच गए। दासी ने आव देखा न ताव, ताबड़तोड़ तीनों कुबड़ों को पकड़ा और जो अलमारी सामने दिखी उसी में बंद कर दिया। रानी अपने कपड़ों को सँभालती, राजा जी के पास तेज़ क़दमों से पहुँच गई। दोनों ने साथ खाना खाया और सैर को चले गए। 

अगले दिन रानी को राजा के साथ राज दरबार में रहना था। इस सारी व्यस्तता में कुबड़ों पर से सबका ध्यान हट गया। अगले दिन अचानक रानी को याद आया और उन्होंने दासी से पूछा, “उन तीनों कुबड़े विदूषकों का क्या हुआ?” 

“हे भगवान!” दासी अपना माथा पीटते हुए बोली, “मैं तो उन कुबड़ों के बारे में एकदम भूल ही गई, सचमुच मैं बूढ़ी हो गई हूँ। वे तीनों बेचारे अभी तक उसी अलमारी में बंद हैं!”

और फिर होना क्या था? अलमारी खोली गई, बिना हवा-पानी-भोजन के वे तीनों कुबड़े विदूषक मर चुके थे। उनके चेहरे भी विकृत हो चुके थे। डरी हुई रानी घबरा कर बोली, “अब क्या होगा?” 

“आप चिंता ना करें, मैं कोई न कोई रास्ता निकाल लूँगी,” दासी ने रानी को धीरज बँधाया। 

उसने एक कुबड़े का शरीर उठाया और एक बोरी में बंद कर दिया। एक मज़दूर को बुलवाया गया। उससे दासी ने कहा, “इस बोरी में एक चोर की लाश है, जो महल में हीरे-जवाहरात चुराने आया था। मैंने उसे पकड़ा और मेरे एक थप्पड़ से ही वह मर गया,” दासी ने बोरी खोलकर लाश का कूबड़ उसे दिखा दिया, “अब तुम इसे सब की आँख बचाकर, चुपचाप नदी में फेंक आओ, काम हो जाने पर तुम्हें मुँह माँगा धन दूँगी।”

मज़दूर ने बोरी उठाई, कंधे पर लादी और चला नदी की ओर। 

इधर चालाक दासी ने दूसरे कुबड़े की लाश को ठीक उसी तरह चेहरा छुपाते, कूबड़ दिखाते हुए बोरी में भरा और दरवाज़े के पीछे छुपा कर रख दिया। 

जब मज़दूर लौटा तो उसने धन माँगा। अब चालाक बूढ़ी दासी गरज कर बोली, “पैसे किस बात के? अभी तो चोर की लाश यहीं रखी है, दरवाज़े के पीछे छिपा कर!”

“आप मज़ाक कर रही हैं, मैं अपने हाथ से लाश की बोरी नदी में फेंक कर आ रहा हूँ।”

“तुम अपनी आँखों से यह दरवाज़े के पीछे की बोरी देख लो, अगर तुम उसे फेंक कर आए होते तो यहाँ कैसे आती?” 

बेचारे मज़दूर ने दूसरी बोरी उठाई और फिर नदी पर गया। बोरी में एक पत्थर बाँधा और उसे नदी में फेंक दिया। 

लेकिन महल लौटने पर जब पैसे माँगने गया तो क्या देखता है कि खुर्राट बुढ़िया दासी ग़ुस्से से लाल-पीली हुई, एक बोरी लिए बैठी है। उसे देखते ही चीख कर बोली, “क्या तुम एकदम गधे हो? एक बोरी ठीक से नहीं फेंक सकते? यह बोरी यहाँ कैसे आई है?” 

“लेकिन अम्मा, मैंने तो बोरी के साथ एक पत्थर भी बाँधकर उसे डुबोया था!” मज़दूर काँपते हुए बोला। 

“चाहे दो पत्थर बाँधो लेकिन अब मैं इस बोरी को यहाँ ना देखूँ! यह फेंकी नहीं गई तो पैसा तो क्या मैं तुम्हें पिटवा कर फेंक दूँगी!”

एक बार फिर बोरी लेकर मज़दूर नदी पर गया। बोरी के साथ दो पत्थर बाँधे और नदी में धकेल दिया। थोड़ी देर तक वहीं खड़ा देखता रहा। जब बोरी ऊपर नहीं आई तो वह महल लौटा और रानी के कमरे की ओर चला। वह अभी सीढ़ियों पर ही चढ़ रहा था कि उसने ऊपर से नीचे आते कुबड़े राजा को देखा। 

“हे भगवान! मैं क्या देख रहा हूँ? तीन बार नदी में फेंकने के बाद भी यह वापस आ गया। अब तो वह डायन बुढ़िया दासी मुझे नहीं छोड़ेगी!” क्रोध में अंधे होकर उसने कुबड़े राजा को गले से पकड़कर घसीटा और चीखा, “तू जल्लाद कुबड़ा! मैं एक बार एक पत्थर बाँधकर, दूसरी बार दो पत्थर बाँधकर तुझे नदी में फेंक आया था, पर हर बार तू कैसे वापस आ जाता है? कितनी बार तुझे नदी में डूबोना पड़ेगा? इतना पत्थर-जान है तू? अबकी बार मैं तुझे ठिकाने लगाता हूँ!”

ऐसा कहते हुए उसने कुबड़े मोची राजा का गला घोंटा। उसे घसीटते हुआ नदी तक ले गया। पैरों में दो-दो पत्थर बाँधे और नदी की बीच धारा तक धकेल दिया। 

जब रानी को इस बात का पता लगा कि उसका कुबड़ा मोची पति तीन विदूषकों की राह पर चला गया है तो उसने अपनी प्यारी दासी और मज़दूर को उपहार और धन से मालामाल कर दिया। 

अब वह अपने पहले प्रेमी से विवाह कर सुख से महल में रहने लगी। 

“उड़ती है बड़ी धूल, 
हवा तनिक धीरे बहो, 
मैंने तो कही अपनी बात, 
अब तुम भी तो कुछ कहो!”

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